संपादकीय

पाठ्यक्रमों में शामिल करें शहीदों का इतिहास

Shera Rajput

भारत का इतिहास उन वीर बलिदानी भारत के बेटे-बेटियों से भरा है जिन्होंने स्वतंत्रता पाने के लिए देश हित में बलिदान दिया। यद्यपि उनमें से असंख्य ऐसे हैं जिन्हें कभी न इतिहास में स्थान मिला है, न लोक गाथाओं में और शिक्षा जगत में तो उनको कभी स्थान मिला ही नहीं। कौन नहीं जानता कि 1857 के संग्राम में यह देखा सुना गया कि अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति विफल होने के बाद गांवों में, शहरों में असंख्य लोगों को फांसी पर लटकाया। यह भी कहा जाता है कि गांवों में जब वृक्षों पर लटकाकर फांसियां दी गईं तो जितनी बड़ी शाखाएं थीं उसके साथ उतने ही व्यक्तियों को फांसी के लिए लटकाया गया। यह तो कल की बात है, 1857 से लेकर दो वर्ष तक यह दमनचक्र चला। अगर देश उसे ही नहीं जानता तो क्या आशा रखी जा सकती है कि उससे पहले के इतिहास की सही जानकारी कभी स्वतंत्र भारत की सरकारों ने देशवासियों को दी हो इसके पश्चात फिर ताजी घटना है कि अंडमान की जेल जिसे काला पानी कहते थे वहां कितने लोग शहीद हुए, कितने बैलों की तरह कोल्हू में जोते गए। कितने लोगों को फांसी देकर बिना किसी अंतिम संस्कार के सागर में फेंक दिया गया।
आज तक देश को इन सारे शहीदों की जानकारी नहीं दी गई। शहीदों की चिताओं पर मेले लगने की बात तो बहुत दूर है। स्वतंत्रता के पश्चात जब हम लोगों ने स्कूल में शिक्षा प्राप्त की, स्कूलों की दीवारों पर, हर कक्षा में शहीदों के चित्र लगाए जाते थे, यद्यपि उनकी संख्या सीमित थी। शहीदों के दिन मनाए जाते थे और पाठ्यक्रम में भी इन ज्ञात-अज्ञात वीरों की कहानियां पढ़ाई जाती थीं। बंग-भंग आंदोलन जो 1905 से लेकर 1911 तक चला और फिर कलकत्ता से चलकर दिल्ली राजधानी बनाई गई, उस बंग भंग आंदोलन में खुदीराम, कन्हाई, नरेन्द्र जैसे कितने वीर हाथ में गीता लिए अंग्रेज सरकार से जूझते हुए फांसी पर चढ़ गए। उनके संबंध में भी देशवासी अधिक नहीं जानते। बहुत दूर की बात क्या की जाए अमृतसर से दो बेटे 1906 से 1909 के बीच श्री मदनलाल ढींगरा और उसके बाद 1940 में शहीद उधम सिंह ने भारत में भारतीय अणख और स्वाभिमान का जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह भी विश्व में अतुलनीय है, लेकिन दुखद सत्य यह है कि इन हुतात्माओं की जन्मभूमि, कर्मभूमि अमृतसर और पंजाब के लोग ही इन वीरों के विषय में कुछ नहीं जानते।
यह ठीक है कि 1973 में पहले शहीद उधम सिंह की और उसके बाद शहीद ढींगरा की अस्थियां लंदन की पैटन विले जेल से भारत लाई गईं। उनको उचित सम्मान भी दिया गया, पर मदनलाल ढींगरा के साथ न्याय नहीं हुआ क्योंकि किसी भी सरकार ने उसकी अपनी ही जन्मभूमि अमृतसर में उसको कोई स्थान नहीं दिया। उसका स्मारक नहीं बना और लंबे संघर्ष के बाद जो अब बनाया जा रहा है वहां भी भवन तो बन गया, लेकिन उसकी आत्मा ढींगरा से सम्बद्ध साहित्य इंग्लैंड में उसके बलिदान के चिन्ह आज तक भारत नहीं लाए गए, यद्यपि सरकारों को बार-बार आग्रह किया, जगाने का प्रयास किया पर त्रेता में एक कुंभकरण था आज हर सरकार में, हर विभाग में कुंभकरण से भी बड़े कुंभकरण विद्यमान हैं।
इससे ज्यादा शिक्षा जगत में शहीदों की शहादत से अनभिज्ञता क्या होगी कि जब एक पुरस्कार वितरण समारोह जो मीडिया फेस्टिवल में मीडिया जगत में प्रशिक्षण ले रहे प्रथम तीन विजेताओं से जब मदनलाल ढींगरा और उधम सिंह के विषय में पूछा गया पर उनका जो उत्तर था उसे न लिखना ही उचित रहेगा। इससे भी पहले की एक वीरगाथा जहां स्वतंत्रता से पूर्व पंजाब के सियालकोट में एक चौदह वर्षीय वीर बालक ने हिंदू धर्म और हिंदू गौरव के लिए अपना सिर कटवा दिया, भरे दरबार में मुगल नबाव ने उसको पहले पत्थर मरवाए, फिर उसका सिर काटने का आदेश दिया, क्योंकि वह मुसलमान नहीं बनना चाहता था। हकीकत अपना काम कर गया, पर इससे उनको कोई अंतर नहीं पड़ा जो मंदिरों और धर्म स्थानों में बैठे हिंदू धर्म के विशेष रक्षक होने का दावा कर रहे हैं।
अधिकतर लोग हकीकत के विषय में नहीं जानते। इससे यह सिद्ध होता है कि हमारी नई पीढ़ी को न तो उत्तर पूर्व के शहीद क्रांतिकारी, दक्षिण भारत के विदेशियों से जूझने वाले शहीद उनकी तो बात ही क्या, युवा पीढ़ी को शहीदों की अधिक जानकारी नहीं। सीधी बात है जहां दीपक जलेंगे वहीं रोशनी होगी। जब आज की शिक्षा नीति ने, हमारे मीडिया ने बच्चों को इन शहीदों की गाथाएं सुनाई ही नहीं, पाठ्यक्रमों में इन्हें स्थान दिया ही नहीं, तो फिर बच्चे कैसे बलिदानी वीरों की गाथाएं जान पाएंगे। कौन नहीं जानता कि वह कौम अधिक समय तक जिंदा नहीं रहती जो उनको भूल जाती है जिनके कारण हमारा देश, हमारी संस्कृति सुरक्षित है। अंडेमान की जेल से कुछ किलोमीटर दूर ही हम्फी जैसा स्थान है जहां जापानियों ने भारत के स्वतंत्रता प्रेमियों को गोलियों से भून-भून कर एक गड्ढे में गिरा दिया। भला हो उस पशु चराने वाले को जिसने यह देखा और देश को सुनाया। वे सभी हिंदुस्तानी थे उनमें से अधिक पंजाबी भी थे, पर क्या आज पंजाब के लोग यह जानते हैं ऐसे कितने भारत मां के बेटे हैं जो भारत मां की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते बलिदान हो गए। न फांसी से डरे, न काले पानी की यातनाओं से, न देश से निर्वासन की पीड़ा से और न ही वीर सावरकर और चाफेकर की तरह सर्वस्व अर्पण से।
क्या कोई विश्वास करेगा कि शहीद मदनलाल ढींगरा के संबंध में कोई साहित्य नहीं दे रहा। दो-चार शहीदों का ही उनको नाम याद हैं और जो हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की समाधि बनाई गई उसके साथ बटुकेश्वर दत्त उपेक्षित हैं उसका नाम केवल स्थानीय भाषा में लिखा है वह भी कटा-फटा। भारत सरकार से निवेदन है कि देश के बच्चों को अंतरिक्ष और सागर के गर्भ में क्या है यह तो पढ़ाइए, पर यह भारत का अमृत महोत्सव किनकी बदौलत मिला उनसे भी हर विद्यार्थी को परिचित करवाएं, तभी यह अमृत अमर रहेगा।

– लक्ष्मीकांता