वह भी एक 15 अगस्त था, 49 साल पहले। 1975 में स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब लालक़िले की सीढ़ियां चढ़ रहीं थी तो उन्हें एक चिट पकड़ाई गई, ढाका में बंगलादेश के संस्थापक शेख़ मुजीबुर्रहमान, उनकी पत्नी,तीन बेटे और दो बहुओं की हत्या कर दी गई। हत्यारे बंगलादेश के सैनिक थे जिन्हें बाद में फांसी पर चढ़ा दिया गया। शेख़ हसीना और उनकी छोटी बहन रेहाना यूरोप में थी इसलिए बच गईं। बाद में उन्हें नई दिल्ली में शरण दी गई और पंडारा रोड में एक मकान दे दिया गया। इंदिरा गांधी ने प्रणव मुखर्जी की ज़िम्मेवारी लगाई कि वह इन बहनों का ध्यान रखें। जब तक प्रणव मुखर्जी रहे यह रिश्ता चलता रहा। 5 अगस्त को शेख़ हसीना को फिर भारत आना पड़ा, बहन रिहाना साथ थी। इस बार उन्हें बदनामी में देश छोड़ना पड़ा। इस 15 अगस्त को वह दिल्ली में है। इस बार नई दिल्ली की किसी कोठी में नहीं बल्कि हिंडन एयरबेस में हैं। कोई भी देश, भारत को छोड़ कर, उन्हें शरण देने के लिए तैयार नहीं।
शेख़ हसीना की यह हालत क्यों हुई कि उनके सरकारी निवास पर भीड़ ने हमला कर दिया और उन्हें जान बचाने के लिए मिलिटरी हैलिकॉप्टर में भागना पड़ा? आख़िर उन्होंने देश को स्थिरता दी और तरक्की दी। आज बंगलादेश की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से कहीं बेहतर है। ग़रीबी आधी रह गई, साक्षरता बढ़ी और कपड़ा उद्योग में उस देश ने भारत को पीछे छोड़ दिया। लेकिन इसके बावजूद शेख़ हसीना ने अपने लोगों, विशेष तौर पर युवाओं को इतना नाराज़ कर लिया कि उनके खिलाफ विद्रोह हो गया। उनके पैतृक निवास, घनमंडी, जिसे 49 साल पहले हाथ नहीं लगाया गया था को जला दिया गया। जिस तरह मास्को में लेनिन और बग़दाद में सद्दाम हुसैन के बुत तोड़ दिए गए थे, उसी तरह ढाका में राष्ट्रपिता शेख़ मुजीबुर्रहमान का बुत गिरा दिया गया। हसीना ने लोगों को इतना नाराज़ कर लिया कि वह अपने ही इतिहास पर टूट पड़े। वह निरंकुश बन गई। सारी ताक़त अपने हाथ में समेट ली। विपक्षी नेताओं को जेल में डाल कर चुनाव करवाए जाते रहे। फिर जैसे शायर ने भी कहा है,
जिनमें हो जाता है अंदाज़-ए-खुदाई पैदा,
हमने देखा है वो बुत तोड़ दिये जातें है!
बंगलादेश की जहांगीर नगर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर शहाब इनाम खान लिखते हैं, "अपनी सरकार के अंतिम दिनों में वह हक़ीक़त से कटे तानाशाह की मिसाल थीं…लोगों के साथ रिश्ता टूट गया था…स्टूडेंट्स और उनके मामलों को प्रति ग़ायब हमदर्दी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया"। अनुमान है कि दो महीने के दमन में 450 से अधिक लोग मारे गए। जब लोगों को दबाया जाता है तो बड़ा विस्फोट होता है। हसीना ने दीवार पर लिखा पढ़ने से इंकार कर दिया जब तक कि उनके बनाए सेनाध्यक्ष जनरल वकार-उर-ज़मन ने 45 मिनट में देश छोड़ने का अल्टिमेटम नहीं दिया। अब उनके पुत्र का कहना है कि वह देश लौटना चाहती हैं पर यह असम्भव लगता है। उनके भविष्य से भी अधिक महत्व रखता है कि बंगलादेश का क्या बनता है और वहां की हालत का भारत पर क्या असर पड़ता है? पत्रकार नज़ीफा रइदा ढाका केडेली स्टार में 'यह वह बंगलादेश नहीं जिसके लिए हम गोलियां खाने के लिए तैयार थे', के शीर्षक अधीन लिखती है, "बंगलादेश तानाशाह से मुक्त था…हम सांस लेने के लिए आज़ाद थे…देश से हसीना के भागने का मतलब था कि छात्रों, पत्रकारों और सक्रिय लोगों के ज़बरदस्ती ग़ायब हो जाने का अंत था…लेकिन शीघ्र हमारी ख़ुशी भय में परिवर्तित हो गई। हमने …साम्प्रदायिक हिंसा देखी जब हिन्दुओं और अवामी लीग के लोगों पर हमले शुरू हो गए…मंदिरों को आग लगाई जा रही थी…" ।
इस महिला पत्रकार ने सच्चाई बताने की हिम्मत की कि अल्पसंख्यक हिन्दुओं, ईसाईयों और अहमदियों पर हमले हो रहे हंै। 100 हिन्दू मारे गए हैं। वहां कई सौ हिन्दू मकान और बिसनेस जला दिए गए हैं। मंदिरों पर लगातार हमले हो रहे हैं। सरकार के कार्यकारी प्रधान मुहम्मद युनस बार-बार हमले बंद करने की गुहार लगा चुके हैं पर ढाका और चिटगांव जैसे बड़े शहरों में भी हमले जारी हैं। वहां पूरी अराजकता है। प्रधानमंत्री के निवास के बाद पुलिस थानों, संसद भवन और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट पर हमला हो चुका है। अपने पर हमलों के बाद पुलिस भाग गई है और देश में कहीं भी क़ानून व्यवस्था सम्भालने वाला नहीं रहा। शहरों में ट्रैफ़िक छात्र सम्भाल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट पर हमले के बाद चीफ़ जस्टिस और पाँच जजों ने इस्तीफ़ा दे दिया है।
84 वर्षीय मोहम्मद युनस जो नोबेल प्राइज़ विजेता है, के सामने बड़ी चुनौती है। पहली चुनौती तो बुरी तरह विभाजित देश में स्थिरता और क़ानून और व्यवस्था को क़ायम करना है। वह बैंकर रहे हैं और जानते हैं कि लम्बी अस्थिरता की क़ीमत क्या है। जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों पर रोक लगानी होगी जो पाकिस्तान से निर्देश लेते हैं और हिन्दुओं पर हमले उकसा रहे हैं। अगर पाकिस्तान की तरह बंगलादेश में इस्लामी चरमपंथी हावी हो गए तो देश वह सब खो देगा जो उसने अभी तक हासिल किया है। लेकिन हमारे लिए सरदर्द पैदा हो जाएगी। बंगलादेश की अस्थायी हुकूमत ने यह भी तय करना है कि उस भारत के साथ उसके रिश्ते कैसे हो जिसके साथ उसकी 4096 किलोमीटर लम्बी सीमा है और जिसने उसे तीन तरफ़ से घेरा हुआ है।
बंगलादेश की हालत केवल वहां की सरकार के लिए ही नहीं, हमारे लिए भी बड़ी चुनौती है। सीमा पर हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए जो भारत में प्रवेश चाहते हैं। जिस तरह पहले श्रीलंका, नेपाल और मालदीव में हमारे विरोधी हावी हो चुके हैं वैसा अब बंगलादेश में भी हो सकता है। बंगलादेश में हमारी पूर्व राजदूत वीणा सीकरी का मानना है कि हमारी सीमा पर हो रही उथल पुल में विदेशी हाथ को रद्द नहीं किया जा सकता। वह जमात के पाकिस्तान की आईएसआई से रिश्ते की तरफ़ इशारा करती हैं। उन्हें इसमें चीन-पाकिस्तान की मिलीभगत दिखती है। एक और पूर्व राजदूत हर्ष श्रींगला का भी कहना है कि जो ताक़तें भारत और बंगलादेश की विरोधी हैं उनकी दखल को रद्द नहीं किया जा सकता। पर शेख़ हसीना खुद उनके पलायन के पीछे अमेरिका का हाथ देखती हैं। वह सार्वजनिक आरोप लगा चुकीं हैं कि अमेरिका बंगलादेश के पूर्व में भारत और म्यांमार का हिस्सा लेकर ईसाईस्तान बनाना चाहता है। इस तरह वह चीन के बढ़ते कदमों को रोक सकेगा और भारत पर नज़र रख सकेगा।
लेकिन हमारी चिन्ता अमेरिका नहीं चीन है जो वहां की अस्थिरता में से अपना उल्लू सीधा करना चाहेगा। जब तक शेख़ हसीना सत्तारूढ़ थी उन्होंने भारत विरोधी तत्वों को क़ाबू में रखा था। अगर अब बंगलादेश विरोधी देश बन जाता है तो हमारे उत्तर पूर्व में अस्थिरता शुरू हो सकती है जैसे हम मणिपुर में देख रहे हैं। 2001-2006 में जब हसीना विरोधी बीएनपी की वहां सरकार थी तो असम के बाग़ियों को वहां पनाह मिलती थी। बंगलादेश में उनकी आज़ादी के बाद से ही वह तत्व मौजूद हैं जो पाकिस्तान के साथ रिश्ता चाहते हैं और शेख़ हसीना के सैक्यूलर शासन को पसंद नहीं करते थे। यह तत्व हावी होने की कोशिश करेंगे। उस देश की हमारे पांच प्रांतों के साथ सीमा है इसलिए शरारत की गुंजायश बनी रहेगी। पर हम विकल्प हीन नहीं है, न कमजोर हैं। भूगोल ही कहता है कि अगर उस देश ने क़ायम रहना है और तरक्की करनी है तो भारत के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते चाहिएं।
मालदीव में भी सत्ता परिवर्तन के बाद नए राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़ू ने पहले तो भारत को वहां से निकलने का आदेश दे दिया था पर अब भारत को 'निकटतम साथी' कह रहे हैं और रिश्तों का गुणगान कर रहे हैं। इसी तरह नई चीन समर्थक सरकार श्रीलंका में क़ायम हुई तो पहले तो हमारा विरोध किया गया पर जब आर्थिक बदहाली सामने आई तो केवल भारत मदद के लिए आगे आया,चीन ने हाथ नहीं बढ़ाया। नेपाल में भी के.पी. शर्मा ओली की सरकार चीन परस्त समझी जाती है पर वह भी जानते हैं कि भारत का विरोध उनका दाना पानी बंद कर देगा। केवल उत्तर में चीन और बग़ल में पाकिस्तान है जो वैर छोड़ने वाले नहीं। असली चैलेंज यहां है। जम्मू-कश्मीर में फिर आतंकवाद शुरू हो गया है।
पर इस 15 अगस्त को यह अहसास भी है कि हम कमजोर बेबस देश नहीं है। इस सारे क्षेत्र में हम स्थिरता का नख़लिस्तान है। पाकिस्तान में पांच बार ज़बरदस्ती सत्ता परिवर्तन हुआ है, बंगलादेश में पन्द्रह बार कोशिश की गई। भारत में जब भी परिवर्तन हुआ है वह शांतिमय हुआ है। मुझे विश्वास है कि जिस प्रकार हमारी चुस्त कूटनीति श्रीलंका और मालदीव को बदलने में सफल रही थी वैसे ही बंगलादेश को साध लेगी। हमें केवल नेताओं के साथ ही नहीं बल्कि लोगों के साथ रिश्ता बनाना है। इसी के साथ यह बहुत ज़रूरी है कि भारत दुनिया के लिए खुद एक मिसाल बने, नागरिक आज़ादी का और धर्मनिरपेक्षता का। पिछले कुछ वर्षों से यहां से कलह के बहुत समाचार बाहर जा रहे हैं जिससे हमारे शुभचिंतक भी परेशान हैं। इस छवि को बदलने की ज़रूरत है। अच्छी बात है कि बंगलादेश की घटनाओं के बारे में विपक्ष को विश्वास में लिया गया है और विपक्ष पूरा समर्थन दे रहा है। एक परिपक्व लोकतंत्र में ऐसा होना चाहिए कि राष्ट्रीय हित में सब इकट्ठे हो जाएं जैसा 49 साल पहले बंगलादेश की स्थापना के समय थे। शेख़ हसीना का सौभाग्य है कि इस 15 अगस्त को वह भारत में हैं, नहीं तो उनका हश्र भी उनके पिता जैसा हो सकता था। अगर वह इतनी घमंडी न बन जाती और संस्थाओं को मसलने कि कोशिश न करती और लोगों की आवाज़ सुनना बंद न कर देती तो उन्हें देश से इस तरह भागना न पड़ता। उनकी दुर्गति में बड़ा सबक़ है कि जो समझने लगते हैं कि वह जनता से ऊपर हैं, उन्हें गिरा दिया जाता है। देश और जनता का हित किसी भी व्यक्ति विशेष से ऊपर है।
– चंद्रमोहन