संपादकीय

क्या राज्यपाल निरापद हैं?

Aditya Chopra

राज्यपालों के अधिकार और उनकी संवैधानिक हैसियत को लेकर अक्सर विवाद गर्माता रहता है। राज्यपालों की राज्यों के सन्दर्भ में भूमिका को लेकर भी प्रायः चर्चा होती रहती है। यह निश्चित तौर पर तथ्य है कि राज्यपालों को पद पर रहते हुए कई मामलों में छूट प्राप्त होती है। जैसे संसद के अन्दर राज्यपाल के सम्बन्ध में बहस नहीं हो सकती। इसका प्रमुख कारण यह माना जाता है कि राज्यपाल किसी भी प्रदेश के संवैधानिक मुखिया होते हैं और वह सीधे संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि होते हैं। अतः उन पर टिप्पणी सीधे राष्ट्रपति पर अंगुली उठाने जैसा काम हो सकता है जबकि राष्ट्रपति का पद पूरी तरह अराजनैतिक होता है। यही वजह है कि जब भी कोई राजनैतिक प्रत्याशी राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ता है तो वह अपने दल की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे देता है। इसका कारण यह है कि केन्द्र में किसी भी राजनैतिक पार्टी की सरकार राष्ट्रपति की अपनी सरकार होती है। हमारे संविधान निर्माता हमें जो व्यवस्था सौंप कर गये हैं वह इतनी त्रुटि रहित है कि यदि उसे शुचिता की भावना से चलाया जाये तो कहीं कोई विसंगति पैदा हो ही नहीं सकती। संविधान के अनुच्छेद 361 की धारा 2 के तहत राज्यपाल को आपराधिक कानूनों से छूट प्राप्त होती है।
भारत के स्वतन्त्र होने के समय किसी ने शायद कल्पना नहीं की होगी राज्यपाल के पद पर कभी कोई एेसा व्यक्ति भी बैठ सकता है जिसके निजी चरित्र पर सन्देह किया जा सके। परन्तु हमें आजाद हुए 76 साल हो रहे हैं और समय में बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। देश की राजनीति का रंग पूरी तरह बदल चुका है जिसका असर सभी क्षेत्रों में नजर आता है। जब संसद में बाहुबली और पूर्व दस्यु तक चुनकर आने लगें तो हम गिरावट के स्तर को माप सकते हैं। पूर्व दस्यु सुन्दरी स्व. फूलन देवी लोकसभा में चुनकर आई थीं। राजनीति के इस स्वरूप के बारे में निश्चित रूप से हमारे पुरखों ने कल्पना नहीं की होगी। अतः बदलते समय में हमें हर क्षेत्र में अपवाद देखने को मिल रहे हैं। इसका कारण हमें बाबा साहेब अम्बेडकर के इस कथन में ढूंढना होगा कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो मगर उसे लागू करने वाले लोग ही होते हैं। अतः लोगों की गुणवत्ता भी मायने रखती है। ताजा मामला प. बंगाल के राज्यपाल श्री सी.वी. आनन्द बोस का है जिनके खिलाफ उन्हीं के राजभवन कार्यालय में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। आपराधिक मामलों से छूट मिलने के कारण इस महिला की शिकायत पर प. बंगाल पुलिस किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकती अतः वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गई और उसने अपनी याचिका दायर कर दी। उसकी याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने विचारार्थ स्वीकार कर लिया है। इसका अर्थ यह होता है कि देश की सबसे बड़ी अदालत अब यह तय करेगी संविधान में अनुच्छेद 361 रखने का मन्तव्य क्या रहा होगा और अब हालात कैसे बदल रहे हैं।
हमारा संविधान कोई जड़ दस्तावेज नहीं है बल्कि समय, काल परिस्थिति के अनुसार इसमें संशोधन किये जाते रहे हैं जिससे भारत का सामाजिक व राजनैतिक ढांचा लगातार विकसित होता रहे और आगे की तरफ बढ़ता रहे। इसमें एक बात ध्यान रखने वाली है कि संविधान में पीछे के युगों में लौटने की कोई संभावना नहीं होती क्योंकि इंसान उत्तरोत्तर विकास व प्रगति करता रहता है। यह प्रगति बौद्धिक स्तर पर भी होती है। राज्यपालों के मामले में संविधान बहुत स्पष्ट है। वह इन्हें दुनियावी बुराइयों व कमजोरियों से ऊपर रख कर देखता है। इनकी नियुक्ति एक अराजनैतिक राष्ट्रपति द्वारा केवल इन्हीं योग्यता को देखकर की जाती है। मगर व्यक्ति में कमजोरियां होती हैं और जो कमजोरियों का शिकार बन जाता है वह पद की शुचिता को भंग करता है। जैसे कि आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे स्व. नारायण दत्त तिवारी ने की थी। हालांकि उनसे इस्तीफा ले लिया गया था मगर उनकी हरकतों से राज्यपाल के पद की गरिमा पर कालिख तो लग ही गई थी। श्री आनन्द बोस का मामला दूसरा है। यहां उनकी ही एक कर्मचारी उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा रही है। कुछ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई पर भी एक महिला ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाये थे। उसकी बाकायदा जांच हुई थी। हालांकि जांच प्रक्रिया की काफी आलोचना भी हुई थी मगर हकीकत यही रहेगी कि मामले की जांच हुई थी। जाहिर है कि सर्वोच्च न्यायालय की समीक्षा में एेसे सभी मामले आ सकते हैं।
दरअसल राज्यपाल जैसे पद पर बैठे व्यक्ति का चरित्र किसी साफ चादर जैसा समझा जाता है । इस पर जरा सा भी मैल लग जाये तो वह बहुत दूर से नजर आने लगता है। मगर इस मामले के समानान्तर हम देख रहे हैं कि देश के कई राज्यों के राज्यपाल आजकल राजनैतिक विवादों में भी पड़ने लगे हैं जबकि उनका एकमात्र कार्य अपने राज्य में संविधान का शासन देखने का होता है और हर चुनाव के बाद राज्य को एक स्थिर व बहुमत की सरकार देने का होता है। दैनन्दिन के सरकारी कामकाज में टांग अड़ाने का नहीं। इसके लिए उन्हीं द्वारा शपथ दिलाई गई सरकार होती है जो कि उनकी अपनी सरकार ही होती है। हमारा संविधान बहुत बारीक शास्त्रीय कला का अनूठा नमूना है। इसके तहत राज्यपालों को जो निरापदता मिली हुई है उसका गलत इस्तेमाल भी नहीं होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय अब इसी निरापदता पर विचार करेगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com