संपादकीय

इन दिनों अवकाश पर हैं मुद्दे, सिद्धांत, नैतिक तकाजे

Shera Rajput

तो क्या हमारी सियासत भी अब नश्वरता के सिद्धांत पर चल निकली है? जो आज जहां है कल वह कहां होगा यह तय नहीं है। नश्वरता का यह सिद्धांत अतीत में सिर्फ जीवनदर्शन पर लागू होता था। अब यह सिद्धांत राजनैतिक दलों में भी, साहित्यिक संस्थानों में भी, सरकारों में भी और व्यवसाय की दुनिया में भी फैल चुका है।
देश की वित्त मंत्री सीतारमण चुनाव नहीं लड़ रहीं। उनका कहना है उसके पास चुनाव लड़ने योग्य पैसे ही नहीं हैं। केजरीवाल जेल में हैं। वह ईडी के रिमांड पर हैं। मगर वहां भी मंत्र-जाप वही है, 'मैं कट्टर ईमानदार हूं।' अब वह शराब-घोटाले के चर्चित कारोबारियों से भाजपा का संबंध जोड़ने की मशक्कत में लगे हैं। मुद्दे, सिद्धांतवाद, राजनैतिक दर्शन, पारदर्शिता, नैतिकता, सादगी आदि शब्द अब नई राजनैतिक उठा-पटक के दायरे में 'डिलीट' हो चुके हैं।
एक अजब विसंगति यह भी रही है कि कुछ वर्ष पहले तक हमारे राजनेता, सत्ता में आते ही राजघाट पर जाते थे। वहां बापू की समाधि पर संकल्प लेने की परंपरा थी। महाराष्ट्र में शिवाजी की प्रतिमा, गुजरात में सरदार पटेल की प्रतिमा और पंजाब में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के स्मारक पर जाकर शपथ लेना भी एक राजनैतिक कवायद होती थी। अब धीरे-धीरे सारी परम्पराएं धूमिल होने लगी हैं। एक समय वह भी था जब संसद में, विधानसभाओं में, राजनैतिक मंचों पर दुष्यंत कुमार की गजलों, बिस्मिल की गज़ल 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,' बापू की रघुपति राघव राजा राम आदि रट कर बोले जाते थे, बीच-बीच में कुछ अवसरों पर इकबाल, गालिब और कबीर भी बुलंद होने लगते थे मगर अब शुरुआत ही आरोपों-प्रत्यारोपों से होती है। अभद्र भाषा से, संसदीय गरिमाओं की झीनी चदरिया भी अब चिंदी-चिंदी होने लगी है।
अब यह समझ पाना असंभव है कि कला, संगीत, संस्कृति, साहित्य, विरासत आदि के संरक्षण को एक ओर बुहारे जाने के पीछे दलील क्या है? दूसरी ओर देश के 'एआई-मिशन' अर्थात 'कृत्रिम बुद्धि-मिशन' के लिए दस हजार करोड़ रुपए की राशि 'सब्सिडी' के रूप में जुटाई गई है। यानी कृत्रिम वैचारिकता, कृत्रिम संवेदनशीलता, कृत्रिम सृजन, कृत्रिम आंसू, कृत्रिम मुस्कान, कृत्रिम आतिथेय, सब कुछ कृत्रिम। ऐसे माहौल में आने वाले कल की दिशा क्या होगी, कुछ तय नहीं है।
सरकारी कार्यालयों में महात्मा गांधी, डॉ. अम्बेडकर और देश के राष्ट्रपति के चित्र दीवारों पर सुशोभित होते थे। अब सबके अपने-अपने नायक हैं, अपने-अपने 'आईकॉन' हैं। दिल्ली व पंजाब में राष्ट्रपति के साथ केजरीवाल व शहीद-ए-आजम भगत सिंह के चित्र हैं जबकि कुछ अन्य राज्यों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व प्रदेश के राज्यपालों के चित्र हैं। पूर्वांचल में अलग-अलग परंपराएं हैं। यानी इस मामले में भी देश में एकरूपता नहीं है। सुना है केजरीवाल के गुप्तचर, ईडी व सीबीआई के कुछ अधिकारियों की जासूसी में लगे हैं। कोई अजूबा नहीं होगा कि कुछ विपक्षी सरकारें अपनी-अपनी 'ईडी', सीबीआई या आईबी का राज्य स्तर पर गठन करने लगें। कुछ भी हो सकता है इस सियासी मौसम में।
पिछले 72 घंटों में मुख्तार अंसारी पर बहुकोणीय चर्चाएं जारी हैं। कुछ लोग उन्हें 'राबिनहुड', 'गरीबों का मसीहा', 'दलितों का रक्षक' और न जाने किन-किन तमगों से नवाज़ने में लगे हैं। इस बात की संभावना रद्द नहीं की जा सकती कि मुख्तार के नाम पर आने वाले समय में स्मारक भी बनने लगें, स्कूल भी खुलें और इस्लामी-शिक्षा के केंद्र भी स्थापित हो जाएं। यानि उसके पक्ष में उसकी प्रशंसा में इतना कुछ होने लगे कि उसका अपराधी चेहरा पूरी तरह से गायब ही हो जाए। यह संभावना भी रद्द नहीं की जा सकती कि आने वाले समय में उसकी स्मृति में एकाध जेल भी बने। पंजाब में अपनी कैदी जि़ंदगी के मध्य मुख्तार अंसारी के रहन-सहन व जीवनशैली पर कुछ किताबें भी छपने लगें। यानी हमारे परिवेश की यह भी एक विशेषता है कि हम 'सुपुर्द-ए-खाक' की रस्म अदा करने के बाद उसे अमरत्व देने की ओर अग्रसर होने लगें। अब मुख्तार-प्रकरण को अल्पसंख्यकों के अधिकारों व दमनचक्र का मुद्दा भी बनाया जा रहा है। यह स्थितियां ठीक नहीं हैं। लोकतंत्र के प्रहरियों को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
इधर आयकर विभाग ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को आयकर वसूली का नोटिस भेजा है। इस पर भी बवाल मचा है। आरोप है कि कांग्रेस के पास पहले ही चुनावी-खर्च जुटाने का गंभीर संकट है। ऐसे हालात में यह नया नोटिस उसके राजनैतिक अधिकारों पर डाका डालने का प्रयास है। मगर यह भी स्पष्ट है कि कांग्रेस ने इस नोटिस की तथ्यता से भी इन्कार नहीं किया। फिर वही दुष्यंत याद आते हैं:
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार,
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार

– डॉ. चन्द्र त्रिखा