जम्मू-कश्मीर की नवगठित उमर अब्दुल्ला सरकार ने अपनी पहली बैठक में रियासत को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित करके साफ कर दिया है कि यह मसला उसके लिए सर्वोच्च है और वह इस पर कोई समझौता नहीं कर सकती। राज्य में हाल ही में हुए चुनावों के बाद श्री अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल काॅन्फ्रेंस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है और 90 सदस्यीय विधानसभा में इसकी 42 सीटें आयी हैं जबकि इसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस को छह स्थान मिले हैं। नेशनल काॅन्फ्रेंस जम्मू-कश्मीर की कदीमी पार्टी मानी जाती है जिसकी जड़ें आजादी से पहले शेख मुहम्मद अब्दुल्ला से जाकर जुड़ती हैं। उमर सरकार ने अपनी मन्त्रिंडल की पहली बैठक करके जिस तरह रियासत को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया है वह सूबे की बदली हुई स्थिति के बारे में भी साफ इशारा करता है। रियासत की अन्य पार्टियों महबूबा मुफ्ती की पीडीपी व सज्जाद लोन की पीपुल्स काॅन्फ्रेंस ने उमर सरकार के इस फैसले की यह कहते हुए तीखी आलोचना की है कि सबसे पहले जम्मू-कश्मीर राज्य को उसका खोया रुतबा दिलाने के लिए अनुच्छेद 370 की बहाली का प्रस्ताव लाया जाना चाहिए था क्योंकि नेशनल काॅन्फ्रेंस ने चुनावों के दौरान लोगों से यही वादा किया था।
राज्य के हर क्षेत्रीय दल ने चुनावों में अनुच्छेद 370 को अपने एजेंडे में रखा था परन्तु कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में अनुच्छेद 370 का जिक्र नहीं किया था मगर रियासत को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का वादा सबसे ऊपर रखा था। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि उमर अब्दुल्ला के लिए भी पूर्ण राज्य का दर्जा खास मायने रखता है, क्योंकि 5 अगस्त, 2019 से पहले जम्मू-कश्मीर न केवल पूर्ण राज्य था बल्कि इसकी भौगोलिक सीमाओं में लद्दाख भी समाहित था परन्तु इस दिन केन्द्र की मोदी सरकार ने संसद के माध्यम से अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया था और रियासत को दो केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में तकसीम कर दिया था। जब 5 अगस्त को राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पारित हो रहा था तो कांग्रेस के नेता श्री पी. चिन्दम्बरम ने यह कहते हुए इसका तीव्र विरोध किया था कि स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह पहली घटना होगी जब किसी राज्य का दर्जा घटाकर उसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया हो। चिन्दम्बरम मनमोहन सरकार में गृहमन्त्री रह चुके थे।
हाल ही में दस वर्ष बाद अर्ध राज्य जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस व नेशनल काॅन्फ्रेंस मिलकर चुनाव लड़े थे। कांग्रेस पार्टी के विधायकों ने उमर सरकार का बाहर से समर्थन करने का निश्चय किया और उमर सरकार में अपनी शिरकत नहीं की। जाहिराना तौर पर नव गठित उमर सरकार ने पूर्ण राज्य के प्रस्ताव के जरिये केन्द्र में शासन करने वाली पार्टी भाजपा के सामने चुनौती फेंक दी है कि वह या तो इस प्रस्ताव को स्वीकर करे अथवा रियासत के लोगों से चुनाव के दौरान किये गये अपने वादे से फिर जाये क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के सभी बड़े नेता जनता से वादा कर रहे थे कि मोदी सरकार पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करेगी। दरअसल पूर्ण राज्य के दर्जे का मुद्दा राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के बीच का है। हालांकि विधानसभा में भी यह प्रस्ताव पारित कराया जायेगा जबकि अनुच्छेद 370 का मसला विशुद्ध रूप से विधानसभा या विधायिका का है। 2000 में सूबे में नेशनल काॅन्फ्रेंस की ही सरकार थी जिसके मुखिया उमर साहब के पिता श्री डा. फारूक अब्दुल्ला थे। उनकी सदारत में विधानसभा में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित करके तत्कालीन केन्द्र की वाजपेयी सरकार को भेजा गया था कि जम्मू-कश्मीर राज्य को स्वायत्तता दी जाये और 1953 जैसी स्थिति को बहाल किया जाये। 1953 तक जम्मू-कश्मीर को न केवल रक्षा, संचार, विदेश व वित्त छोड़ कर सभी अख्तियार मिले हुए थे बल्कि इस राज्य के मुख्यमन्त्री को प्रधानमन्त्री कहा जाता था और राज्यपाल को सदर-ए- रियासयत। मगर धीरे-धीरे ये सभी अख्तियार कम किये गये और 1965 के भारत-पाक युद्ध से पहले ही यहां मुख्यमन्त्री को प्रधानमन्त्री कहना बन्द कर दिया गया और सदर-ए-रियासत भी राज्यपाल कहलाये जाने लगे। मगर अनुच्छेद 370 लागू रहा जिसे बाद की केन्द्र सरकारों ने और ज्यादा हल्का कर दिया। अब इसे पूरी तरह समाप्त ही कर दिया गया है परन्तु सूबे का रुतबा भी घटा दिया गया है।
उमर अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल काॅन्फ्रेंस ने भी चुनावों में मतदाताओं से वादा किया था कि वह अनुच्छेद 370 को बहाल करने के लिए सरकार में आने पर काम करेंगे। मगर यह मुद्दा सरकार का नहीं बल्कि विधायिका या विधानसभा का है। जबकि पूर्ण राज्य का मुद्दा दो सरकारों के बीच का है। उमर मन्त्रिमंडल अपनी बैठक बुलाकर अनुच्छेद 370 की वापसी की मांग नहीं कर सकता क्योंकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 370 हटाने की कार्रवाई को पूर्णतः संवैधानिक या वैध माना है। उमर सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले खिलाफ नहीं जा सकती। एेसा कार्य केवल हर पार्टी के चुने हुए विधायक ही कर सकते हैं और विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी नेशनल काॅन्फ्रेंस के बाद 29 सदस्यों वाली दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है जिसके रहते अनुच्छेद 370 हटाने का प्रस्ताव विधानसभा में कभी पारित नहीं हो सकता।
वैसे उमर अब्दुल्ला अच्छी तरह जानते हैं कि अनुच्छेद 370 की कश्मीर में वापसी कभी संभव नहीं होगी क्योंकि इस सन्दर्भ में उनके राज्य के ही नेताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई याचिकाओं पर फैसला उनके विरुद्ध आ चुका है। इसके साथ ही श्री उमर अब्दुल्ला ने खुद एक अंग्रेजी अखबार के मंच से इस बारे में पूछे गये सवाल के जवाब में कहा था कि 370 को अब भूल जाना चाहिए जबकि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उनके इस कथन के बाद आया था। एक अहम सवाल यह भी है कि 370 के विरुद्ध पूरे भारत के लोगों में एक भावनात्मक रिश्ता है जिस पर मोदी सरकार ने अमल करके जनता की सहानुभूति बटोरी थी। यह हकीकत विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं को न मालूम हो एेसा संभव नहीं है।