संपादकीय

जम्मू-कश्मीर परिणाम एक सबक

Shera Rajput

विधानसभा चुनाव के नतीजे विजेताओं और हारने वालों के लिए सबक हैं। हारने वाले लोग किस तरह आत्मचिंतन करते हैं और फैसले से सबक लेते हैं, अगर वे ऐसा करते भी हैं, तो यह अंततः अगले दौर के चुनावों में उनके प्रदर्शन पर दिखाई देगा लेकिन यह विजेता ही हैं जिनका आचरण तुरंत उनके संबंधित क्षेत्राधिकार में प्रदान की जाने वाली शासन की गुणवत्ता पर असर डालेगा। तो, आइए सबसे पहले जम्मू और कश्मीर से शुरुआत करते हैं।
निस्संदेह, अब्दुल्ला परिवार ने अपने पुराने साथी कांग्रेस को अपने साथ लेकर वापसी की है। हिंदू बहुल क्षेत्र में नेशनल कॉन्फ्रेंस के समर्थन के बावजूद भी कांग्रेस लड़खड़ा गई और जम्मू में 29 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल एक सीट जीत पाई। कुल मिलाकर, कांग्रेस ने 39 सीटों पर चुनाव लड़कर छह सीटें जीतीं, जिसका श्रेय नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गठबंधन के कारण मुस्लिम वोटों के हस्तांतरण को जाता है। कांग्रेस पार्टी ने अपने वरिष्ठ साथी के पीछे मुश्किल से अपना वजन डाला, जबकि बाद वाले ने उसे 6 सीटें जीतने में मदद की, जो एक तरह से उसकी प्रतिष्ठा बचाने वाली बात थी। हम इस बात पर जोर केवल इस लिए दे रहे हैं कि उमर अब्दुल्ला सरकार की सफलता के लिए कांग्रेस से उसका संबंध आड़े नहीं आएगा, न आना चाहिए, भले ही वह केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के साथ स्वस्थ कार्यकारी संबंध स्थापित करने का प्रयास कर रही हो।
इसके अलावा, केंद्र शासित प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्ला काफी लंबे समय तक सफल कार्यकाल के बाद ही केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए राजी हो सकती है। यह जम्मू-कश्मीर और केंद्र सरकार दोनों के आपसी हित में होगा कि वे केंद्र शासित प्रदेश को भारतीय संघ के पूर्ण राज्य के रूप में 2019 से पहले की स्थिति में वापस लाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाएं। उमर अब्दुल्ला सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील केंद्र शासित प्रदेश को चलाने की पेचीदगियों को समझने के लिए पर्याप्त अनुभवी हैं। उन्हें संकटग्रस्त क्षेत्र को बड़ी मुख्यधारा में एकीकृत करने के साझा लक्ष्य को हासिल करने के लिए मोदी सरकार के साथ सहयोग करना चाहिए। अब्दुल्ला परिवार सत्ता में रहते हुए केंद्र के साथ मिलकर काम करने के लिए जाना जाता है, हालांकि विपक्ष में रहते हुए वे विपरीत रुख अपनाते हैं।
चुनावी मुद्दे के रूप में अब्दुल्ला के लिए अनुच्छेद 370 को बहाल करने का वादा करना ठीक था, लेकिन अगर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने इसे नई दिल्ली के साथ विवाद का मुद्दा बना दिया तो यह केंद्र के लिए अपमान होगा। उन्हें केंद्र से झगड़ा करने के बजाय सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, शिक्षा, नौकरी, स्वास्थ्य आदि की बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। जहां तक ​​केंद्र का सवाल है तो अनुच्छेद 370 अब पूर्ण रूप से समाप्त हो चुका है और वह कभी भी इसके बहाली की उम्मीद नहीं करेगा। हालांकि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करना उसकी योजना में बना रहेगा क्योंकि ऐसा करने से बनने वाली अब्दुल्ला सरकार की नजर में केंद्र की साख में भी इजाफा होगा।
उधर राष्ट्रीय राजधानी से सटा गुरुग्राम जिसने 80 के दशक में मारुति-सुज़ुकी संयंत्र के साथ देश में ऑटोमोटिव क्रांति को जन्म दिया, लेकिन आज नागरिक निकाय कार्य शक्ति को बढ़ाने के लिए आवाज उठाई जा रही है। गुरुग्राम मिलिनियम सिटी के लोगों ने भारी विरोध और नागरिक निकाय के बुनियादी ढांचे में गिरावट के बावजूद भी शहरी आबादी ने भाजपा को वोट किया है, जो पार्टी के लिए एक तरह की चुनौती है कि वह मतदाताओं को हल्के में न लें। उधर पूरे चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने जाति सर्वेक्षण, अग्निवीर, जलेबी, जैसे कई मुद्दे उठाए लेकिन सभी मुद्दे ध्वस्त हो गए और कांग्रेस को इसका भारी नुकसान चुनाव नतीजों में झेलना पड़ा। दूसरे शब्दों में कहें तो किसी का विरोध करने की तुलना में शासन करना बहुत कठिन हो जाता है। इसलिए, कांग्रेस को गहन चिंतन की जरुरत है।

– वीरेंद्र कपूर