संपादकीय

‘सीएए’ की न्यायिक समीक्षा

Aditya Chopra

नागरिकता संशोधन कानून ( सीएए) के मसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी कर उससे अपना जवाब 2 अप्रैल तक दाखिल करने का आदेश दिया है। इस मामले में यह साफ होना चाहिए कि 2019 में संसद पारित इस कानून को ही 2020 में दो सौ के लगभग याचिकाएं दायर कर इसकी वैधता को चुनौती दे दी गई थी। मगर इस कानून की शर्तें तय करने में सरकार ने चार साल से अधिक का समय लिया। कानून को जमीन पर लागू करने के लिए इसकी शर्तें तय करना जरूरी होता है जिसके लिए छह महीने का समय होता है मगर मोदी सरकार ने हर छह महीने से पहले संसद में जाकर इसकी अवधि को बार-बार बढ़वाया और इस साल मार्च के चालू महीने में इसकी शर्तें घोषित कीं। न्यायालय में इन शर्तों को भी अब चुनौती दे दी गई है। यह कानून कहता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के तीन इस्लामी देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों जैसे हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई को भारत की नागरिकता दे दी जायेगी। इसके लिए 31 दिसम्बर, 2014 की तारीख को आधार बनाया गया है। इससे पहले तक जो भी गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक भारत में शरण लेने आये हैं उन्हें भारतीय नागरिकता दे दी जायेगी, बशर्ते वे कुछ शर्तों पर पूरा उतरते हों। इन्हीं शर्तों का ब्यौरा सरकार ने इसी महीने जारी किया है।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने मुख्य मुद्दा नागरिकता कानून में संशोधन किये जाने का है। उसे इस कानून की संवैधानिक वैधता पर विचार करना है। इसमें अब शर्तों का नया मामला भी जुड़ गया है। हमने देखा कि जब दिसम्बर 2019 में इससे सम्बन्धित विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया था तो उसे राष्ट्रपति की सहमति भी तुरन्त मिल गई थी जिसकी वजह से यह देश का कानून हो गया था। शर्तें घोषित होने के बाद इसके व्यावहारिक तौर पर लागू होने का रास्ता खुल चुका है। अतः इसके खिलाफ दायर याचिकाओं में याचना की गई है कि इसे जमीन पर लागू होने से रोका जाये और पूरे कानून की ही संवैधानिक समीक्षा की जाये। अतः सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डीवाई चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय पीठ ने याचिकाकर्ताओं की यह दलील गंवारा नहीं की कि कानून को अमल पर तब तक रोक लगा दी जाये जब तक कि इस पूरे मामले पर सुनवाई पूरी हो जाने तक अन्तिम फैसला न हो जाये। इस मामले में स्थिति बहुत ज्यादा उलझी हुई नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय का अभी तक का यह इतिहास रहा है कि वह संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को कभी भी हल्के में नहीं लेता है और बहुत गंभीरता के साथ इनके हर पहलू पर गहन विचार करने के बाद ही कोई फैसला देता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की कसौटी पर एेसे किसी भी कानून को ठोक-बजा कर परखने के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंच पाता है। हालांकि स्वतन्त्र भारत के इतिहास में पहले एेसा कई बार हुआ है जब इसने संसद द्वारा बनाये गये कानून को संविधान के दायरे से बाहर पाया और उसे असंवैधानिक घोषित किया। सबसे ताजा मामला चुनावी बॉण्डों का है जिन्हें 2018 में संसद में कानून बना कर ही लागू किया गया था। चुनावी बॉण्ड स्कीम को न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने असंवैधानिक करार दिया। इससे पूर्व 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने असम के नागरिकता कानून को भी असंवैधानिक घोषित किया था। पूर्व में जायें तो एेसे कई और उदाहरण भी मिलते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि यह धर्म को बुनियाद बना कर नागरिकता प्रदान करता है जबकि भारत का संविधान कहता है कि किसी भी भारतीय नागरिक के साथ सरकार धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी। मगर नागरिकता मामले में सबसे बड़ा पेंच यह है कि यह भारतीय नागरिकों की जगह विदेशों से आने वाले उन नागरिकों की बात करता है जिन्हें भारतीय नागरिकता दी जानी है और इसके लिए उनके धर्म को आधार बनाया गया है। इस मामले की भीतरी तह में जाने पर हमें असम, बंगाल व कुछ पूर्वोत्तर राज्यों की विदेशी नागरिकों की समस्या से भी दो-चार होना पड़ेगा। खासतौर पर बांग्लादेश से आये नागरिकों के मुद्दे पर, क्योंकि केन्द्रीय कानून कहता है कि 2014 से पहले जो भी गैर मुस्लिम व्यक्ति तीन इस्लामी देशों से भारत में आ चुके हैं उन्हें कुछ शर्तें पूरी करने पर भारत की नागरिकता दे दी जायेगी।
नागरिकता के मामले में असम का कानून अलग है जो कि 2005 में पुराने कानून के अवैध घोषित होने पर पुनः संसद द्वारा बनाया गया था। असम नागरिकता कानून बांग्लादेश के उदय होने पर इन दोनों देशों के तत्कालीन राज्य प्रमुखों स्व. इन्दिरा गांधी व शेख मुजीबुर्रहमान के बीच हुए समझौते के परिप्रेक्ष्य में तैयार हुआ था जिसमें कहा गया था कि मार्च 1971 तक जो भी बांग्लादेशी भारत में आये थे उन्हें यह छूट होगी कि वे दोनों में से किसी भी एक देश के नागरिक बन सकते हैं परन्तु दिसम्बर 2019 में बना नागरिक संशोधन कानून पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के 2014 से पहले आये गैर मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता देने का ऐलान करता है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह पूरा मसला अपनी समग्रता में ही पेश होगा और इस प्रकार पेश होगा कि यह भारत के उस संविधान पर खरा उतरे जिसकी बुनियाद मानवतावाद पर रखी हुई है। अतः सर्वोच्च न्यायालय यह फैसला करेगा कि तीन इस्लामी देशों से भारत आने वाले गैर मुस्लिमों के साथ संविधान की रुह से कैसा व्यवहार हो क्योंकि ये अपने देशों में धार्मिक आधार पर ही हो रहे भेदभाव से दुखी होकर भारत आ रहे हैं।