यह अच्छी बात है कि कर्नाटक सरकार ने निजी व्यवसायों और उद्योगों में स्थानीय लोगों के लिए कोटा लागू करने के कदम को रोक दिया है -और ध्यान रहे, वापस नहीं लिया है। सिद्धारमैया सरकार ने पिछले सोमवार को एक विधेयक पारित किया, जिसमें प्रबंधन में स्थानीय लोगों के लिए 50 प्रतिशत और गैर-प्रबंधन पदों पर 75 प्रतिशत आरक्षण अनिवार्य किया गया है।
उद्योग जगत के विभिन्न नेताओं द्वारा भारी विरोध और मुख्यधारा के मीडिया में व्यापक आलोचना के बाद, कर्नाटक मंत्रिमंडल ने घोषणा की कि वह उद्योगों, कारखानों और अन्य प्रतिष्ठानों में स्थानीय उम्मीदवारों के लिए कर्नाटक राज्य रोजगार विधेयक, 2024 को स्थगित कर रहा है। नौकरियों के लिए प्रस्तावित आरक्षण इतने कड़े थे कि यदि योग्य स्थानीय उम्मीदवार उपलब्ध नहीं होते तो निजी नियोक्ताओं के लिए यह अनिवार्य था कि वे तीन साल तक प्रशिक्षण दें और फिर उन्हें नौकरी पर रखें। विधेयक में 'स्थानीय उम्मीदवार' की परिभाषा ऐसे व्यक्ति के रूप में दी गई है, जो 15 वर्षों से राज्य में निवास कर रहा हो और कन्नड़ पढ़ने, लिखने और बोलने में सक्षम हो। न्यूनतम पात्रता में कन्नड़ भाषा के साथ माध्यमिक शिक्षा शामिल थी। जिन लोगों के पास भाषा दक्षता नहीं है, उन्हें आरक्षित श्रेणी के तहत रोजगार पाने से पहले कन्नड़ में दक्षता के लिए एक परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी।
विधेयक का समय भी महत्वहीन नहीं था। हाल के दिनों में सिद्धारमैया से जुड़े एक भूमि घोटाले के खुलासे ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। उनकी पत्नी पार्वती को मैसूरू शहरी विकास प्राधिकरण द्वारा अधिग्रहित तीन एकड़ ग्रामीण भूमि के मुआवजे के रूप में प्रमुख भूमि का एक बड़ा हिस्सा आवंटित किया गया था। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने दावा किया कि उक्त भूमि उनके भाई ने उन्हें उपहार में दी थी। मैसुरू शहरी विकास प्राधिकरण द्वारा उन्हें आवंटित भूमि की कीमत पार्वती से प्राप्त भूमि की कीमत से कई गुना अधिक थी। लिहाजा, जब भूमि घोटाला सुर्खियों में था, सिद्धारमैया ने आरक्षण विधेयक लाकर चतुराई से जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश की, जिसका हश्र पहले से तय था। इसके अलावा, एक अन्य वजह जिसने सिद्धारमैया को लोकलुभावन आरक्षण प्रस्ताव को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया, वह थी उनके और उनके महत्वाकांक्षी उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के बीच सार्वजनिक खींचतान।
बेशक, कर्नाटक पहला राज्य नहीं था, जिसने स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों में कोटा लागू करने की मांग की थी। दरअसल, यह नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में भूमिपुत्रों के लिए 60 और 70 के दशक में हुए आंदोलनों का ही परिणाम है (नौकरशाही के निचले स्तर पर प्रभुत्व रखने वाले तमिलों के खिलाफ मुंबई में बाल ठाकरे के हिंसक विरोध प्रदर्शन ने शिवसेना को राज्य में जड़ें जमाने में मदद की थी)। हाल के वर्षों में महाराष्ट्र 2008 में ऐसा विधेयक लाने वाला पहला राज्य था, जिसमें निजी क्षेत्र में 80 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गई थीं। इसके बाद 2019 में आंध्र प्रदेश ने 75 प्रतिशत नौकरियां आरक्षित की थीं।
एक साल बाद, यह हरियाणा ही था जिसने निजी क्षेत्र में 30,000 रुपए या उससे कम मासिक वेतन वाले पदों के लिए 75 प्रतिशत नौकरियां आरक्षित कर दीं। उद्योग संघों के आक्रोशपूर्ण विरोध के बाद, हरियाणा सरकार ने आरक्षित कोटा 75 प्रतिशत से घटाकर 50 प्रतिशत करने की कोशिश की। यद्यपि अन्य राज्यों में भी ऐसे कानूनों को चुनौती दी गई तथा संबंधित उच्च न्यायालयों द्वारा उनके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी गई, परन्तु हरियाणा उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद विस्तृत आदेश जारी करते हुए आरक्षण कानून को अवैध घोषित कर दिया।
अदालत ने कहा कि राज्य सरकार को निजी नियोक्ताओं के देशभर से किसी को भी काम पर रखने के अधिकार को प्रतिबंधित करने का अधिकार नहीं है। समान रूप से महत्वपूर्ण बात यह है कि आरक्षण कानून ने 'हरियाणा राज्य से बाहर के नागरिकों के एक समूह को दोयम दर्जे का दर्जा देकर और उनकी आजीविका कमाने के मौलिक अधिकार में कटौती करके' संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन किया है। यह कानून भारत में कहीं भी स्वतंत्र रूप से घूमने और कोई भी पेशा या व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए कोटा के खिलाफ एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि इसका निजी क्षेत्र की कार्यकुशलता और उत्पादकता पर भयानक प्रभाव पड़ेगा। नियोक्ता उपलब्ध सर्वोत्तम प्रतिभाओं को नियुक्त करना पसंद करते हैं। उन्हें स्थानीय लोगों को नियुक्त करने के लिए मजबूर करना उनकी पसंद को सीमित करता है और उनकी उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
दरअसल, राजनेताओं द्वारा ऐसे प्रतिबंधात्मक कानून प्रस्तावित करने का मूल कारण नौकरियों की अत्यधिक कमी है। न तो केंद्र और राज्य सरकारें और न ही निजी क्षेत्र इतनी नौकरियां पैदा कर रहे हैं कि वे बेरोजगारों की उस विशाल संख्या को खपा सकें, जो हर साल बेरोजगारों की श्रेणी में जुड़ती जा रही है। वास्तव में हमारे शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा का स्तर इतना खराब है, बेशक-कुछ अपवादों को छोड़कर, कि स्नातक की डिग्री दिखाने वाले भी स्कूल स्तर के छात्रों के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ हैं। बहुत से स्नातकों की विश्वविद्यालय की डिग्री उस कागज के लायक नहीं है, जिस पर वह लिखी गई है।
– वीरेंद्र कपूर