संपादकीय

केरल : अल्पसंख्यकों में ही दरार

केरल राज्य अपनी मनोहारी प्राकृतिक छटा के लिए ही प्रख्यात नहीं है बल्कि आश्चर्यजनक रूप से अपनी सैद्धान्तिक राजनीति के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां के लोग राजनीति को दैनिक जीवन की आवश्यकता के रूप में लेते हैं।

Aditya Chopra
केरल राज्य अपनी मनोहारी प्राकृतिक छटा के लिए ही प्रख्यात नहीं है बल्कि आश्चर्यजनक रूप से अपनी सैद्धान्तिक राजनीति के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां के लोग राजनीति को दैनिक जीवन की आवश्यकता के रूप में लेते हैं। वे राजनीति से उदासीन नहीं रहते बल्कि इसमें रच-बस कर जीवन को सुगम बनाना चाहते हैं। इसकी राजधानी तुरुवनन्तपुरम् की मेयर एक 20 साल की छात्रा ही चार महीने पहले चुनी गई थीं। इस राज्य की युवा पीढ़ी विशेष रूप से लोकतन्त्र में राजनीति की महत्ता को समझती है और चुनावों में बढ़-चढ़कर भाग भी लेती है। संभवतः देश का यह एकमात्र राज्य होगा जहां युवा मतदाता सर्वाधिक संख्या में वोट डालते हैं। आजादी के बाद से ही यह राज्य भारत की राजनीति की प्रयोगशाला इसी वजह से कहलाने लगा था  क्योंकि इसने आजादी दिलाने वाली पार्टी कांग्रेस को नकार कर कम्युनिस्टों का हाथ पकड़ा था। 1956 में इस राज्य के अस्तित्व में आने के बाद जब 1957 में चुनाव हुए तो यहां स्व. ईएमएस नम्बूदिरिपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। तब से इस राज्य में यही सिलसिला चल रहा है कि कभी कांग्रेस के नेतृत्व में राज्य सरकार गठित होती है तो कभी कम्युनिस्टों के नेतृत्व में। विगत महीने हुए विधानसभा चुनावों में यहां मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में गठित वामपंथी मोर्चे ने शानदार जीत हासिल की। मगर इस राज्य की यह भी विशेषता है कि यहां कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी दलों को बहुसंख्यक हिन्दू समाज का जबर्दस्त समर्थन मिलता है जबकि कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों को अल्पसंख्यकों का समर्थन मिलता है।
 वैसे इस राज्य में साम्प्रदायिक आधार पर मतों का बंटवारा नहीं होता है मगर सैद्धान्तिक आधार पर अल्पसंख्यक स्वयं को  कांग्रेस के ज्यादा निकट पाते हैं। सामाजिक समता और आर्थिक गैर बराबरी दूर करने की बातें सभी दल प्रमुखता से करते हैं फिर भी राज्य के हिन्दू समाज के बहुमत वर्ग की निगाहों में मार्क्सवादी पार्टी अधिक जोरदार तरीके से आर्थिक बराबरी की बात करती है और वह समाज का बंटवारा जातिगत आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर करती है जिसमें हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद दिखाई नहीं देता है। मगर उच्च न्यायालय के फैसले से  अल्पसंख्यकों के बाद से अल्पसंख्यकों के बीच ही रस्साकशी शुरू हाे गई है जिससे श्री विजयन असमंजस में हैं कि वे इधर जायें या उधर जायें। पहले पिछली सरकार के दौरान  फैसला किया गया था कि अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों को सरकारी वजीफा उनकी आर्थिक हालत व प्रतिभा के मद्देनजर 80 अनुपात 20 में दिया जाये। अर्थात 80 प्रतिशत छात्रवृत्तियां मुस्लिम छात्रों को और 20 प्रतिशत ईसाई छात्रों को दी जायें। केरल की कुल जनसंख्या में 25.56 प्रतिशत मुस्लिम और 18.38 प्रतिशत ईसाई हैं।  मगर केरल उच्च न्यायालय ने इस फैसले को निरस्त या रद्द कर दिया है। इससे जहां ईसाई समुदाय के लोग खुश हैं वहीं मुस्लिमों में रोष है। 
उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि अल्पसंख्यक छात्रों के वजीफे का बंटवारा न्यायपूर्ण ढंग से एक समान दृष्टि के आधार पर होना चाहिए। इसका मतलब यह निकलता है कि  एक जैसी आर्थिक पृष्ठभूमि के जिस अल्पसंख्यक  छात्र की पात्रता उसकी योग्यता के आधार पर बनती है उसे छात्रवृत्ति दी जानी चाहिए।  इस फैसले का ईसाई समुदाय के लोगों ने स्वागत किया है जबकि मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने इस पर रोष प्रकट किया है। सवाल पैदा होता है कि क्या वजीफे का आपातिक बंटवारा राजनीति के नजरिये से किया गया? राज्य में 2011 से 2016 तक ही कांग्रेस नीत ओमन चांडी लोकतान्त्रिक मोर्चा सरकर रही है। उससे पहले 2006 से 2011 तक वामपंथी मोर्चा की सरकार थी। जबकि 2016 से श्री विजयन मुख्यमन्त्री हैं। क्या श्री विजयन अल्पसंख्यकों के मुस्लिम समुदाय को खुश करना चाहते थे या ईसाइयों को खुश करना चाहते थे? शिक्षा के क्षेत्र में एेसा  फैसला विशुद्ध राजनैतिक था? क्योंकि मुस्लिमों और ईसाइयों में छात्रवृत्ति के बंटवारे का आधार 'कोटा' कैसे हो सकता है जबकि सभी अल्पसंख्यकों का संविधान में एक समान दर्जा है। जब सभी  एक ही श्रेणी में आते हैं तो फिर उनके बीच किस तरह विभाजन किया जा सकता है? यह स्वयं प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध है और संविधान की भावना के भी विरुद्ध प्रकट होता है। मुस्लिम नेताओं का कहना है कि सच्चर समिति की रिपोर्ट आने के बाद अल्पसंख्यकों को वजीफा देने की स्कीम शुरू की गई थी। अतः सरकार न्यायालय के समक्ष तथ्य रखने में असफल रही है। सच्चर समिति ने कहा था कि भारत में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जातियों के समाज से भी बदतर है। उस समय केन्द्र में कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार थी।
राज्य में अल्पसंख्यक वर्ग के छात्राओं को वजीफा देने की स्कीम सच्चर समिति की रिपोर्ट की रोशनी में ही शुरू की गई थी। मगर 2006 से 2011 के अपने शासनकाल में वाम मोर्चा सरकार ने इसमें संशोधन करके लैटिन केथोलिक ईसाइयों और परिवर्तित ईसाइयों को भी हिस्सा देने का फैसला किया। मुस्लिम नेता मांग कर रहे हैं कि सभी छात्रवृत्तियां मुस्लिम छात्रों को ही दी जायें जबकि ईसाई समुदाय के नेताओं ने उच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत किया है और राय व्यक्त की है कि उनके अधिकारों का मुख्यमन्त्री को संरक्षण करना चाहिए। केरल में पहली बार एेसा हो रहा है कि अल्पसंख्यक वर्ग के दो समुदायों के बीच मनमुटाव की स्थिति पैदा हो गई है। श्री विजयन के लिए यह समस्या गले की हड्डी भी बन सकती है क्योंकि मौका देख कर सभी राजनीतिक दल इस मसले पर अपना गला साफ करेंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com