संपादकीय

मदरसे : शिक्षा का अधिकार

भारत में मदरसों की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। बेशक ये इस्लामी पद्धति के स्कूल हों मगर इनमें पढ़ने वाले सभी धर्मों के विद्यार्थी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भी रहते आये हैं।

Aditya Chopra

भारत में मदरसों की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। बेशक ये इस्लामी पद्धति के स्कूल हों मगर इनमें पढ़ने वाले सभी धर्मों के विद्यार्थी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भी रहते आये हैं। मदरसों में प्राथमिक शिक्षा तक पढे़ बहुत से छात्र जीवन में आगे चलकर भारतीय नायक तक बने जिनमें स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद का नाम अव्वल दर्जे में आता है। भारत- पाकिस्तान के बीच आजादी के बाद 1947 से 1948 तक चली पहली लड़ाई के नायकों में से एक ब्रिगेडियर उस्मान का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित है जिन्हें नौशेरा का शेर कहा जाता है। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी मदरसे में ही हुई थी। यदि हम और पीछे के इतिहास में जाएं तो सिख धर्म प्रवर्तक गुरु नानक देव जी ने भी प्राथमिक शिक्षा एक मदरसे से ही ली थी। मदरसे में पढ़ाने वाले हिन्दू शिक्षक भी हुआ करते थे। भारत के बंटवारे से पहले उत्तर भारत के कई राज्यों में प्राथमिक विद्यालयों के नाम पर मदरसे ही छोटे कस्बों व गांवों में हुआ करते थे जिनमें सभी धर्मों के छात्र पढ़ाई करते थे। मदरसों में पढ़ाने वाले हिन्दू शिक्षकों को भी मौलवी साहब कह कर पुकारा जाता था। इस बाबत अकबर इलाहाबादी का एक शेर बहुत प्रसिद्ध है।

रखी है शेख ने दाढ़ी सफेद सन्त की सी

मगर वो बात कहां मौलवी मदन की सी

जाहिर है कि भारत की संस्कृति से प्रभावित होकर पिछली सदियों में भारत पर राज करने वाले सुल्तानों और मुगल बादशाहों ने मदरसों के चरित्र को भी भारत के रंग में ढालने के प्रयास किये होंगे। इसी प्रकार अविभाजित पंजाब में भी सिख धर्म फैलने के साथ ही पंजाबी पाठशालाओं का चलन पड़ा। ये पंजाबी प्राथमिक स्कूल भी सभी धर्मों के बच्चों को अपने यहां शिक्षा देते थे। इनमें हिन्दू व मुसलमान दोनों ही सम्प्रदायों के बच्चे भर्ती हुआ करते थे लेकिन भारत के बंटवारे से पहले ही 1936-37 के बाद से इस क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन आया और मदरसे मुसलमानों की पहचान बनने लगे। इसकी वजह मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों को अलग कौम बता कर पाकिस्तान का आन्दोलन छेड़ देना था। 1947 में पाकिस्तान बनने के बावजूद भारत में मदरसा शिक्षा प्रणाली जारी रही मगर इसके स्वरूप में परिवर्तन भी आना शुरू हो गया। वर्तमान सन्दर्भ में मदरसा शिक्षा प्रणाली पूरी तरह मजहबी चोला ओढ़ चुकी है मगर भारत का संविधान प्रत्येक अल्पसंख्यक समाज को अपनी शिक्षण संस्थाएं खोलने की इजाजत देता है अतः मदरसों को हम वैध शिक्षण संस्थान कहेंगे। पिछले दिनों ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षक आयोग’ ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वे अपने-अपने प्रदेश के मदरसों को सरकारी अनुदान देना बन्द करें और इनके विद्यार्थियों का ‘शिक्षा के अधिकार’ के तहत दूसरे स्कूलों में प्रवेश कराएं। जाहिर है कि आयोग चाहता है कि मदरसों को बन्द किया जाये। मगर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग के इस आदेश पर रोक लगा दी है। आयोग का कहना है कि सरकारी अनुदान प्राप्त मदरसे शिक्षा का अधिकार के तहत जारी निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग के निर्देशों की रोशनी में केन्द्र सरकार समेत त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने जो भी कदम उठाये हैं, उन पर फौरी रोक लगा दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह अन्तरिम आदेश जमीयत उलेमा-ए -हिन्द द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द का कहना है कि आयोग ने विगत 7 जून और 25 जून को जो भी निर्देश राज्य सरकारों को दिये हैं वे संविधान के विरुद्ध हैं क्योंकि संविधान में अल्पसंख्यकों के शैक्षिक व सांस्कृतिक अधिकारों को पूरा संरक्षण दिया गया है। अतः आयोग के निर्देश संविधान के अनुच्छेद 30 के खिलाफ हैं जिसमें अल्पसंख्यकों को अधिकार दिया गया है कि वे अपनी पसन्द के शिक्षण संस्थान खोल सकते हैं। जमीयत का कहना है कि कानून में एेसा कोई प्रावधान नहीं है कि कोई भी राज्य सरकार मदरसों पर इस प्रकार का हुक्म लागू कर सके।

इसके साथ ही आयोग को एेसा आदेश शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत जारी करने का अख्तियार भी नहीं है क्योंकि ‘शिक्षा का अधिकार’ के कानून की धारा 1(5) कहती है कि इस कानून में जितने भी प्रावधान हैं वे मदरसों पर लागू नहीं होते। विगत 7 जून को आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया था कि वह राज्य के सभी सरकारी अनुदान प्राप्त तथा मान्यता प्राप्त एेसे मदरसों की जांच कराये जिनमें गैर मुस्लिम विद्यार्थी भी पढ़ते हैं। एेसे विद्यार्थियों को शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत अन्य स्कूलों में भर्ती करा दिया जाना चाहिए। आयोग ने इसके बाद 25 जून को भी केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय और शिक्षा व संस्कृति सचिव को पत्र लिखकर कहा कि वे सभी राज्य सरकारों को आदेश दे कि वे अपने मदरसों का निरीक्षण करें और देखें कि जो भी मदरसा शिक्षा के कानून का पालन नहीं कर रहा है, उसकी मान्यता समाप्त कर दी जाये। इसके बाद 26 जून को ही उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने जिलाधीशों को आदेश दिया कि वे आयोग के निर्देशों के अनुसार काम करें। त्रिपुरा की सरकार ने भी अपने जिलाधीशों को एेसा ही आदेश दिया। इन दोनों ही राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। इसके बाद केन्द्र की सरकार ने 10 जुलाई को सभी राज्य सरकारों व केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों के प्रशासनों को भी आयोग के निर्देशों के तहत आगे कार्रवाई करने के निर्देश दिये। भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त मदरसे उत्तर प्रदेश में हैं जिनकी संख्या 16 हजार 513 हैं जिनमें 27 लाख विद्यार्थी पढ़ते हैं। इनमें से 558 एेसे मदरसे हैं जिनका पूरा खर्चा राज्य सरकार उठाती है जबकि बाकी मदरसों को अनुदान देती है। सवाल यह उठता है कि यदि इन मदरसों का आधुनिकीकरण हो चुका है और इनकी शिक्षा पद्धति में समयानुकूल परिवर्तन आ चुका है तो इन्हें बन्द क्यों किया जाये। आयोग को यह सोचना चाहिए कि मदरसों में अधिसंख्य बच्चे गरीब तबके के ही होते हैं। बजाये बन्द करने के इन मदरसों का आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए जिससे भारत की नई पीढ़ी वैज्ञानिक सोच की बनें।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com