संपादकीय

मनमोहन सिंह : इतिहास क्या कहेगा?

Shera Rajput

33 वर्ष सांसद रहने के बाद 91 वर्षीय डा. मनमोहन सिंह सक्रिय राजनीति से रिटायर हो गए हैं। शायद ही कोई और राजनेता होगा जिसका उनके जैसा अनुभव और देश के प्रति उनके जैसा योगदान होगा। वह मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे, रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, भारत सरकार के वित्त सचिव रहे, यूजीसी के अध्यक्ष रहे, योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे, 1991 में वित्त मंत्री बने और 2004 में देश के प्रधानमंत्री बन गए। इतनी बड़ी प्रशासनिक और राजनीतिक यात्रा के बाद भी वह उसी तरह बेदाग हैं जैसे वह यह यात्रा शुरू करने के समय थे। उनके शासनकाल के साथ कुछ विवाद भी जुड़े हैं जिन पर आगे चल कर चर्चा करूंगा, यहां यह कहना चाहूंगा कि आजकल ऐसे लोग नहीं मिलते। वह ईमानदारी और शालीनता के प्रतीक हैं। अहंकार से वह कोसों दूर थे। पूरी तरह से सैक्यूलर थे।
देश के वित्त मंत्री रहते हुए उन्हें अचानक आए अतिथियों के लिए खुद कुर्सियां उठाते देखा गया है। कभी किसी के खिलाफ अपशब्द बोलते या अशिष्टता दिखाते उन्हें नहीं देखा गया। उनकी शांत गरिमा ने देश को दस साल स्थिरता दी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की प्रतिष्ठा बढ़ी। जब उनका मन 'मौन' सिंह कह कर मज़ाक उड़ाया गया तो उन्होंने यह जवाब दिया : –
हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी ख़ामोशी,
न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली!
पर यह शांत और नम्र व्यक्ति देश की दिशा बदलने में सफल रहा। राजीव गांधी की हत्या के बाद जब पी.वी. नरसिम्हा राव अचानक प्रधानमंत्री बन गए तो देश की आर्थिक हालत बुरी थी। प्रधानमंत्री राव को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने पुरानी सोच को एक तरफ़ फेंक कर नए साहसी कदम उठाए जिसमें वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उनका पूरा साथ दिया। शुरुआत राव और मनमोहन सिंह की जुगलबंदी से हुई, पर बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को सही दिशा दी। जब 1991 में उन्होंने वित्त मंत्री के तौर पर पहला बजट रखा तो भारत को 'उभर रही आर्थिक शक्ति' बताते हुए उन्होंने कहा, "सारी दुनिया यह अच्छी तरह सुन ले भारत अब जाग गया है, हम विजयी होंगे"।
विडंबना है कि इन्हीं शब्दों को आज भी दोहराया जा रहा है और इन्हीं नीतियों का फ़ायदा आज का नेतृत्व उठा रहा है, पर मनमोहन सिंह को श्रेय नहीं दिया जा रहा। उन्हें केवल इनके कार्यकाल की कमज़ोरियों और नाकामियों के लिए ही याद किया जाता है। 'आधार', 'मनरेगा' और 'आरटीआई' जैसे महत्वपूर्ण क़ानून और कदम उन्हीं के समय शुरू किए गए। इनके बिना तो आज के भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न केवल आर्थिक नीति में बल्कि विदेश नीति में भी उनके द्वारा उठाया गया कदम दिशा बदल गया। 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करने के लिए तो उन्होंने अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया था।
वामपंथी जिनका समर्थन सरकार को चलाने के लिए ज़रूरी था, ने समर्थन वापिस ले लिया था। सोनिया गांधी का झुकाव भी वामपंथी सोच की तरफ़ था, पर मनमोहन सिंह अड़ गए और देश ने पहली बार देखा कि वह साम, दाम, दंड, भेद का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। अमर सिंह के द्वारा उन्होंने सपा को गांठ लिया और फिर जो हुआ वह तो ऐतिहासिक था। हमारे ख़िलाफ परमाणु भेदभाव ख़त्म हो गया। इसी के साथ हमने इतिहास की हिचकिचाहट को त्यागते हुए अमेरिका के साथ घनिष्ठ सम्बंध कर लिए। अगर आज दोनों देश स्ट्रैटेजिकल पार्टनर हैं और हम क्वाड जैसे संगठन में शामिल हैं तो यह 2008 में हुए समझौते का ही परिणाम है लेकिन डा. मनमोहन सिंह का कार्यकाल केवल उपलब्धियों के लिए ही नहीं जाना जाएगा, बहुत कुछ ऐसा भी हुआ जिसने उन्हें जवाबदेह बना दिया।
2004 में सोनिया गांधी कांग्रेस की संसदीय पार्टी की नेता चुनी गई। वह यूपीए की अध्यक्षा भी थीं। सहयोगी पार्टियां भी उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने को तैयार थी। पर उन्होंने इंकार कर दिया। संसदीय पार्टी की बैठक में बहुत इमोशनल सीन भी देखे गए। चर्चा तो यह रही कि राष्ट्रपति कलाम उन्हें शपथ दिलाने को तैयार नहीं थे, पर कारण कुछ और था।
अपनी किताब 'हॉउ प्राइम मिनिस्टरज़ डिसाइड' में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने बताया है कि असली कारण राहुल गांधी थे जो किसी भी हालत में अपनी माता को प्रधानमंत्री बनने नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने तो कोई 'चरम कदम' उठाने की धमकी भी दे दी थी। अटल बिहारी वाजपेयी जिनके साथ सोनिया गांधी के अच्छे सम्बन्ध थे, ने भी सलाह दी थी कि 'मत बनो। आप देश को विभाजित कर दोगे'। कारण कुछ भी हो, सोनिया गांधी ने इंकार कर दिया और उन मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया जिनके बारे वह आश्वस्त थीं कि वह उनके और उनके बच्चों के लिए राजनीतिक ख़तरा नहीं होंगे। राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी के सुझाव पर पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया था, पर वह ज़रूरत से अधिक आज़ाद हो गए थे। सोनिया गांधी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। उन्हें दूसरे पी.वी. नरसिम्हा राव नहीं चाहिए थे इसलिए विनय पूर्ण और निरंहकार मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। पर दुनिया में यह प्रभाव गया कि वह निर्वाचित नहीं, मनोनीत प्रधानमंत्री है।
सोनिया गांधी ने भी यह प्रभाव मिटाने की कोई कोशिश नहीं की कि सिंहासन के पीछे की सत्ता वह खुद हैं। मंत्री, प्रधानमंत्री के प्रति नहीं उनके प्रति वफ़ादार थे। उनसे आदेश लिए जाते थे। दुर्भाग्य की बात है कि मनमोहन सिंह ने भी अपनी आज़ाद हस्ती क़ायम करने की बहुत कोशिश नहीं की और स्थिति से समझौता कर लिया। अपनी किताब, 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' में डा. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने उन्हें यह कहते बताया है कि, "देखिए, आप को एक चीज़ समझनी चाहिए। मैंने इससे समझौता कर लिया है। सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते"। यह किसी भी प्रधानमंत्री द्वारा की गई सबसे दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी है कि सत्ता का केन्द्र वह नहीं कोई और है। देश के प्रधानमंत्री कह रहे थे कि वह अपने घर के मालिक नहीं हैं। संजय बारू ने यह भी बताया है कि पुलोक चटर्जी जिन्हें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के कार्यालय में लगवाया था, के द्वारा सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को महत्वपूर्ण फाईलों के निपटारे के बारे आदेश भेजती रहती थीं। प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह ने लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा और असम से राज्यसभा में आते रहे। अर्थात वह भी यह जतलाना नहीं चाहते थे कि वह महत्वाकांक्षी हैं।
उनकी इस कमजोरी का देश, उनकी सरकार और उनकी पार्टी को बहुत ख़ामियाज़ा चुकाना पड़ा। जब उनके कई साथियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो उन्हें बाहर करने की जगह प्रधानमंत्री मनमनोहन सिंह गांधी जी के तीन बंदरों की तरह बैठ गए कि न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो लेकिन इससे प्रधानमंत्री का पद तो शक्तिहीन बन गया। असली शक्ति 10 जनपथ के पास थी। इतना काफ़ी नहीं कि वह खुद ईमानदार और बेदाग रहे, प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी ज़िम्मेवारी बनती थी कि मंत्रिमंडल के अपने साथियों की लगाम भी कस कर रखें। शायद वह सोनिया गांधी के उपकार के बोझ के तले दब गए, पर असली वफ़ादारी तो देश और अपने पद के प्रति होनी चा​िहए थी जिसकी उन्होंने शपथ ली थी। देश में भ्रष्टाचार का मुद्दा हावी हो चुका था। सवाल उठने शुरू हो गए थे कि प्रधानमंत्री मनमनोहन सिंह ने इसे रोका क्यों नहीं? वह इतने निरीह क्यों थे? उनकी सरकार में हुए भ्रष्टाचार ने साए की तरह उनका पीछा किया।
उनका सबसे बड़ा तमाशा तब बना जब राहुल गांधी ने एक पत्रकार सम्मेलन में सबके सामने वह अध्यादेश फाड़ दिया जो अपराधी जनप्रतिनिधियों पर से चुनाव लड़ने की अयोग्यता हटाता था। यह अध्यादेश ग़लत था। राहुल गांधी अगर इसका विरोध कर रहे थे तो गलत नहीं था, पर उन्होंने इसे तब फाड़ा जब देश के प्रधानमंत्री वाशिंगटन में राष्ट्रपति ओबामा को मिलने जाने वाले थे। राहुल ने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की सार्वजनिक अवमानना कर डाली। मनमोहन सिंह को कमजोर करने की क़ीमत गांधी परिवार भी आज तक चुका रहा है, पर मनमोहन सिंह भी चुपचाप यह अपमान सह गए। इससे उनकी प्रतिष्ठा गिरी और साथ ही उनके पद की भी। अगर वह समझते थे कि उनके पास पर्याप्त ताक़त नहीं है तो उनके पास त्यागपत्र देने का विकल्प था। जिस तरह की मज़बूती उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करते वक्त दिखाई थी उसका उन्होंने बहुत कम प्रदर्शन किया।
परिणाम यह हुआ कि जब उन्होंने पद छोड़ा तो सारी दुनिया ने उनकी शराफ़त, उदारता और सूझबूझ के लिए वाहवाही की, केवल उनका अपना देश ख़ामोश रहा। उनकी नाकामियों ने नरेन्द्र मोदी और भाजपा का रास्ता साफ कर दिया। उनकी नीतियों का फ़ायदा आज उठाया जा रहा है, पर हावी उनके समय के घपले हो गए। भीष्म पितामह की तरह उन्होंने आंखें क्यों मूंद रखी थी? उन्होंने कहा है, "मैं नहीं समझता कि मैं कमजोर प्रधानमंत्री था। मैं ईमानदारी से विश्वास रखता हूं कि इतिहास मेरे प्रति मेहरबान होगा…जो राजनीतिक मजबूरियां थी उनके बीच मैंने जो श्रेष्ठ था वह किया…" । इतिहास क्या फ़ैसला करता है यह तो बाद में पता चलेगा, पर डा. मनमोहन सिंह को उनके विवेक, शालीनता और ईमानदारी के लिए ज़रूर जाना जाएगा। पर उनके समय के भ्रष्टाचार और विशेष तौर पर उनके द्वारा बाहरी शक्ति के दखल को स्वीकार करने के लिए इतिहास यह भी कहेगा कि उनके कार्यकाल में प्रधानमंत्री के पद का अवमूल्यन हुआ था।

– चंद्रमोहन