संपादकीय

शहीदों का गुणगान होना ही चाहिए

Shera Rajput

पूरा विश्व विशेषकर हमारा धर्म भारती, सभी धर्माम्वबली यह मानते और जानते हैं कि कृतज्ञता मानव का और मानवता का आभूषण है। कृतज्ञता विनम्रतापूर्ण हो तो अत्यंत शोभनीय है। कृतघ्न व्यक्ति सबसे बुरा कहा जाता है। वैसे पशुओं में कृतघ्नता नहीं होती, जो पशु पक्षी घरों में पाले जाते हैं वे अपने स्वामी के लिए प्राण तक दे देते हैं, पर बहुत से मनुष्य ऐसे हैं। अफसोस तो यह कि वे बहुत सी सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं के मुखिया भी हैं, पर वे कृतज्ञता नहीं जानते। यहां मेरा कृतज्ञता से अभिप्राय केवल एक विशेष क्षेत्र का है। हमें जिन देशभक्तों, क्रांतिकारियों, धर्म के लिए सिर कटाने वालों ने अपना देश, धर्म बचाने के लिए बंद बंद कटवाने वालों ने, नन्हें-मुन्ने बेटे को पीठ पर बांधकर बुंदेलों की तलवार चमकाने वालों को हम तभी याद करते हैं जब उनके जन्मदिन या बलिदान दिन पर उनको श्रद्धांजलि देना राजनीति के क्षेत्र में बने रहने के लिए आवश्यक हो जाता है या अगर कोई बड़ा नेता बन गया तो उसे यह रस्म निभानी ही पड़ती है कि उसके क्षेत्र में या देश में शहीदों की चिताओं पर मेले लगाने का आयोजन केवल नाटक रूप में या रस्म निभाने के लिए या मन से ही उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए किया जाता है।
हमें यह तो पढ़ाया गया कि मुगलों ने, विदेशी आक्रांताओं ने हमारे मंदिर गिराए, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया, अपना धर्म नहीं छोड़ा पर भीषण अत्याचार किए, महिलाओं का अपमान हुआ। विदेशी मंडियों में हमारे देश की बेटियां बोली लगाकर थोड़ी सी दीनारों के लिए बेची गईं। बच्चे काटे गए और युवकों को तड़पा-तड़पा कर मारा गया। हमें इतिहास में यह भी पढ़ाया है, अभी आसन्न इतिहास की हृदयवेदक घटना है जब भारत माता के लिए स्वतंत्रता मांगने वालों को काले पानी की जेल में तड़पा-तड़पाकर नारकीय जीवन दिया, फांसी के फंदे पर चढ़ाया। अभी कल की बात है जब अमृतसर के जलियांवाला बाग में हजारों देशभक्तों को विदेशी ब्रिटिया साम्राज्यवादियों ने गोलियों से भून दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने 1857 के क्रांतिवीर सैनिकों के साथ ही नहीं, अपितु उनके परिवारों के साथ भी जो अनाचार, अत्याचार किया पर अफसोस स्वतंत्रता के जश्न मनाते समय और स्वतंत्र भारत में अपने मंदिरों, गुरुद्वारा तथा अन्य सभी धर्म स्थानों में पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने ढंग से अपने धर्म का पालन करते हुए उनको भूल जाते हैं जिनके रक्त से रंजित स्वतंत्रता हमें मिली।
बड़े-बड़े तीर्थयात्रा करने वालों में से बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो अंडेमान आज के पोर्ट ब्लेयर की सैल्यूलर जेल की दीवारों से सुना होगा कि यहां जब हमारे देशभक्तों को कोल्हू का बैल बनाकर चलाया जाता था, जब अनेक वीरों को एक एक कर फांसी देकर समुद्र में फेंक दिया जाता था तब वहां क्या होता था। आश्चर्य यह भी है कि जलियांवाला बाग जाने वाले अनेक पर्यटक और अमृतसर वासी भी उस आवाज को नहीं सुन पाते जो वहां की धरती बार-बार कह रही है। वहां कानों से सुनाई नहीं देता, जब हृदय से जुड़ता है तो बहुत कुछ सुनाई देता है। पूरे देश में 1942 के आंदोलन में जो बलिदान हुए और जो अंग्रेजी अत्याचार हुए उन अत्याचारों को सहकर स्वतंत्रता के लिए जूझने वाले देश के असंख्य बेटे-बेटियां हैं जिनका नाम देश जानता ही नहीं, केवल वही जानते हैं जिनके वे परिजन थे या जिनकी पार्टी के थे। दूर की बात तो छोड़िए अमृतसर में पैदा हुए मदनलाल ढींगरा अमृतसर वासियों को ही याद नहीं कि कैसे उसने लंदन जाकर पैटल विले जेल में फांसी का फंदा चूम लिया, केवल इसलिए कि उसे ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों का अपमान सहन नहीं था। इंग्लैंड की यात्रा करने वाले कितने लोग उस पैटन विले जेल में गए जहां ऊधम सिंह और मदनलाल ढींगरा को फांसी मिली थी। देश और घर से दूर केवल भारत माता की जय कहते हुए फंदे पर झूल गए।
जब हम मंदिर या अपने पूजा स्थान में बैठ कर लोक-परलोक सुधारने के लिए या मानसिक आश्रय पाने के लिए प्रभु की मूर्ति के लिए आगे कीर्तन करते हैं, जप यज्ञ के लिए कई दिन लगे रहते हैं उस समय क्या यह उचित नहीं कि उसी मंदिर में देव स्थान में, पूजा स्थान में हमारे उन शहीदों को भी याद किया जाए जिनके कारण हमें आज जजिया नहीं देना पड़ता। किसी अपने के अंतिम संस्कार के लिए मुसलमान शासकों का हुक्म लेने की आवश्यकता नहीं। जानते हैं न पाकिस्तान में क्या हो रहा है। हिंदू अपनी श्रद्धानुसार अंतिम संस्कार करने के लिए बेबस हैं और हमारी बेटियां वहां अपहरण करके जबरी किसी के भी साथ विवाह या निकाह में बांध दी जाती हैं।
आज राज है अपना, ताज है अपना, सुनो-सुनो जनता राज है अपना, जब हम गाते हैं तो जिन्होंने हमें यह जनता राज दिया, वीर सावरकर की तरह वीर चाफेकर की तरह, लाला लाजपत राय, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त की तरह अपना खून देश और देशवासियों के अर्पण किया। चंद्रशेखर आजाद जो अंतिम श्वास तक आजाद रहकर लड़ते रहे क्या कभी हमने उनकी प्रतिमा के आगे खड़े होकर अपने मंदिर में सिर झुकाया, उनको याद किया? उनकी कुर्बानी की गाथा अपने बच्चों को पढ़ाई? अब तो हालत यह हो गई कि कुछ वर्ष पहले तक स्कूलों के पाठ्यक्रम में शहीदों को पढ़ाया जाता था। स्कूल के कार्यालय में, कक्षाओं में शहीदों के ही चित्र लगते थे लेकिन अब हमें किसी शहीद से कोई लेना देना नहीं। शहीदों की चिताओं पर जो मेले लगते हैं वे नेताओं के भाषण के लिए ही सजाए जाते हैं। यह ठीक है कि भाषण राशन का हृदय से संबंध नहीं रहता।
हर मंदिर में जहां तक संभव हो इन शहीदों का मंदिर भी बनना चाहिए। इनकी प्रतिमाएं और इनकी गौरव गाथा हर दिन मंदिर के श्रद्धालुओं को सुनाई जाए।

– लक्ष्मीकांता चावला