संपादकीय

चीन के साथ सैनिक शान्ति

भारत-चीन के सैनिक कमांडरों के बीच पिछले दिनों पूर्वी लद्दाख सीमा पर पीछे हटने के लिए जो समझौता हुआ था

Aditya Chopra

भारत-चीन के सैनिक कमांडरों के बीच पिछले दिनों पूर्वी लद्दाख सीमा पर पीछे हटने के लिए जो समझौता हुआ था उसका प्रतिफल अब दिखने लगा है और दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने की स्थिति से बाहर आने के लिए कारगर कदम उठाने लगी हैं। इस मामले में चीनी फौजों को पीछे जाने की सख्त जरूरत थी क्योंकि जून 2020 में उसकी फौजें इस सीमा पर भारतीय इलाकों में घुस आयी थीं। अब देपसांग और डेमचोक के इलाके में पूर्ववत स्थिति कायम करने के प्रयास शुरू हो गये हैं और चीनी सेनाओं ने पीछे हटना शुरू कर दिया है। चीन के मिजाज और रवैये को देखते हुए इस घटना क्रम को शुभ कहा जायेगा क्योंकि चीन के बारे में भारतीय सीमा क्षेत्र में अतिक्रमण करने की अवधारणा इससे अलग रही है। बेशक चीन के कब्जे में भारत का अक्साई चिन का इलाका अभी भी है और अक्साई चिन के साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर का काराकोरम घाटी का पांच हजार वर्ग कि.मी. का इलाका इसे 1963 में पाकिस्तान ने सौगात में दे दिया था। यह इलाका भारत के लद्दाख क्षेत्र का ही भाग माना जाता है। पूरा अक्साई चिन इसने 1962 में भारत पर आक्रमण करके हड़पा था।

पिछले दिनों ही रूस के कजाक शहर में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मुलाकात हुई थी। यह मुलाकात सौहार्दपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुई जबकि इससे पहले ही सैनिक कमांडरों के बीच फौजें पीछे हटाने को लेकर समझौता हो चुका था। हालांकि चीन ने समझौते के कई दिनों बाद यह स्वीकार किया कि वह देपसंाग पठार व डेमचोक इलाके से सेना पीछे हटा रहा है और भारतीय फौजें भी पीछे हट रही हैं जिससे सीमा पर शान्तिपूर्ण माहौल बन सके परन्तु चीन के बारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता क्योंकि 90 के दशक में स्व. नरसिम्हाराव की सरकार के जमाने में चीन के साथ सीमा पर शान्ति बनाये रखने हेतु कई समझौते हुए थे। चीन ने इन समझौतों के विरुद्ध जाकर ही जून 2020 में पूर्वी लद्दाख के क्षेत्र में अतिक्रमण किया था।

दरअसल चीन की मंशा इस क्षेत्र से गुजर रही वास्तविक नियन्त्रण रेखा की स्थिति में फेरबदल करना लगता था इसी वजह से उसने पूर्वी लद्दाख के क्षेत्र में अपनी फौजों की स्थिति में परिवर्तन किया था और भारत के अरुणाचल प्रदेश तक में अतिक्रमण की कई घटनाएं की थीं। भारत ने इसका उसी समय विरोध भी किया था। चीन एेसा बार-बार इसलिए करता है क्योंकि भारत के साथ उसकी सीमाओं का निर्धारण 1914 के बाद से नहीं हो पाया है। इसकी वजह यह है कि चीन भारत-तिब्बत व अपने बीच खिंची सीमा रेखा ‘मैकमोहन रेखा’ को नहीं मानता है। इसका कारण मैं कई बार पहले भी लिख चुका हूं। मूल वजह यही है कि चीन ने तिब्बत को कभी स्वतन्त्र देश नहीं माना और हमेशा अपना इलाका कहा। आजाद होने के बाद भारत भी तिब्बत को एक स्वतन्त्र देश ही मानता था जिसके भारत के साथ एेतिहासिक व सांस्कृतिक सम्बन्ध बहुत मजबूत थे और दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी के ताल्लुकात थे परन्तु चीन ने 1949 में आजाद होते ही तिब्बत को हड़पने का उपक्रम शुरू कर दिया। इस बारे में भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार पटेल का तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को लिखा वह खुला पत्र बहुत प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने चेताया था कि चीन की नीयत पर यकीन नहीं किया जा सकता। पं. नेहरू ने भी इसका संज्ञान लेते हुए ही तब तिब्बत से सटे भारतीय इलाकों में प्रशासन को बहुत चुस्त-दुरुस्त कर दिया था। मगर इसके बावजूद चीन ने अकारण ही भारत पर 1962 में हमला बोला और इसकी फौजें असम के तेजपुर तक आ गई थीं। बाद में अन्तर्राष्ट्रीय दबाव पड़ने पर चीन ने अपनी फौजें पीछे हटाईं मगर भारत का अक्साई चिन इलाका दबा ही लिया। अतः चीन के साथ भारत के सम्बन्धों की समीक्षा करते हुए पुराने इतिहास को संज्ञान में लेना ही होगा। देपसांग व डेमचोक में जिस तरह दोनों देशों की सेनाएं आमने- सामने थीं उससे कभी भी कोई झड़प जैसी स्थिति बन सकती थी। इस तरफ इशारा भारत के विदेश मन्त्री एस. जयशंकर ने ही किया है इसलिए चीन के साथ कूटनीति द्वारा सम्बन्धों को मधुर रखना और सैनिक मोर्चे पर शान्ति रखना एक चुनौती भरा काम है। चीन इस समय विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर चुका है और भारत से इसकी छह तरफ से सीमाएं जल-थल में मिलती हैं। अतः इसे इसकी हदों में रखने के लिए भारत को बहुत ही सावधानी की जरूरत है।