केन्द्र की मोदी सरकार ने संशोधित नागरिकता कानून की अधिसूचना जारी करके तीन देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से भारत आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने की शर्तें बहुत ही सरल बना दी हैं। इन अल्पसंख्यकों में हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी व ईसाई मतावलम्बी शामिल हैं। भारत सरकार के इस फैसले का जहां देश की अधिसंख्य जनता मोटे तौर पर स्वागत कर रही है वहीं मुस्लिम अल्पसंख्यकों के कुछ संगठन इसका इस आधार पर विरोध कर रहे हैं कि इनमें इन देशों में विभिन्न धार्मिक व सामाजिक कारणों से प्रताड़ित किये जाने वाले मुस्लिम नागरिक शामिल नहीं किये गये हैं और यह कानून धार्मिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करता है। हालांकि दिसम्बर 2019 में संसद में पारित इस कानून की वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती 2020 में ही दी जा चुकी है जहां इस पर सुनवाई लम्बित है परन्तु कानून की शर्तों की अधिसूचना के खिलाफ भी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आल इंडिया इत्तेहादे मुसलमीन ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल कर दी है। मगर असल सवाल यह है कि सीएए के नाम से जाने जाने वाले इस कानून का मकसद किसी भारतीय नागरिक की नागरिकता लेने का नहीं बल्कि कभी भारत का ही हिस्सा रहे तीन मुस्लिम देशों में प्रताडि़त अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का है। बेशक एेसे नागरिकों की पहचान धार्मिक आधार पर की गई है मगर इसमें भारतीय मुसलमानों के प्रति किसी प्रकार के भेदभाव की भावना नहीं है अतः भारत के मुस्लिम नागरिकों की शंकाएं निर्मूल हैं।
सवाल यह भी पैदा होता है कि जब 15 अगस्त, 1947 को भारत का बंटवारा हुआ था और लाखों की संख्या में हिन्दू-मुस्लिम नागरिक इधर से उधर गये थे तो तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं ने पाकिस्तान के हिन्दू-सिखों को आश्वासन दिया था कि उन्हें जरा भी परेशान होने की जरूरत नहीं है उनके लिए भारत की नागरिकता के दरवाजे खुले रहेंगे। यह भी एेतिहासिक तथ्य है कि उस समय देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाली पार्टी कांग्रेस ने भारत के बंटवारे की योजना मार्च 1947 में ही स्वीकार की थी और इसके बाद भारत के संयुक्त पंजाब प्रान्त व बंगाल के कुछ इलाकों में भारी रक्तपात हुआ था जिसमें पाकिस्तान के हिस्से में आये पंजाब के इलाके से 20 लाख के लगभग हिन्दू-सिख, जैन व पारसी नागरिकों का भारतीय इलाकों में पलायन हुआ था और इनमें से कम से कम दस लाख धार्मिक हिंसा के चलते मौत के घाट उतार दिये गये थे। इसके जवाब में भारत के पंजाब के इलाकों में भी मुस्लिम नागरिकों की हत्याओं का दौर चला था। बंगाल भी बंटवारे में आधा-आधा बंट गया था मगर इस राज्य में स्वयं महात्मा गांधी साम्प्रदायिक दंगे रुकवाने के गर्ज से चले गये थे और वहां आमरण अनशन पर भी बैठ गये थे जिसकी वजह से यहां हत्या व मार-काट का बाजार गर्म होने से रुक गया था परन्तु इस बंटवारे के बाद पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के अलावा इसके अन्य राज्यों में नाम के ही हिन्दू-सिख बचे थे किन्तु पाकिस्तान के इस्लामी राष्ट्र होने की वजह से यहां बचे-खुचे अल्पसंख्यकों पर भी धार्मिक उत्पीड़न होता रहा जिसकी वजह से दिसम्बर 1950 में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू व पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के बीच दोनों देशों के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने के लिए एक समझौता हुआ जिसे नेहरू-लियाकत पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में लियाकत अली खां ने वादा किया था कि पाकिस्तान के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनके देश में पूरी सुरक्षा दी जायेगी और उनके धार्मिक, सामाजिक व नागरिक अधिकारों को संरक्षण दिया जायेगा परन्तु पाकिस्तान अपने इस वादे पर खरा नहीं उतर सका और इस देश में सत्ता बदल होते रहने की वजह से हिन्दुओं व सिखों समेत अन्य अल्पसंख्यकों पर जौर-जुल्म होता रहा जिसकी वजह से इस समुदाय के लोगों ने भारत की तरफ रुख करना शुरू किया मगर भारत की नागरिकता पाने की शर्तें इतनी कड़ी थीं कि इन्हें पूरा कर पाना सामान्य व्यक्ति के लिए लगभग असंभव था। इसके बावजूद हजारों की संख्या में इन देशों से भारत को पलायन जारी रहा।
शुरू में आजादी के बाद अफगानिस्तान में कोई दिक्कत नहीं थी किन्तु इस देश में 90 के दशक से तालिबानी जेहाद छिड़ने की वजह से वहां बसे पुश्तैनी सिखों को दिक्कतों का सामना करना पड़ा जिसकी वजह से उन्होंने भी भारत का रुख करना शुरू किया। इसी प्रकार 1971 में बांग्लादेश बनने के समय वहां सत्ता पर आये शेख मुजीबुर्रहमान की सरकार ने अपने देश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया परन्तु चार साल बाद ही उनके पूरे परिवार की हत्या किये जाने के बाद सैनिक सत्ता बदल के दौरों के चलते इस देश को भी कुछ कट्टर पंथियों ने धर्मांधता में धकेलना शुरू किया और इसे भी मुस्लिम देश घोषित कर दिया गया। इसके बाद यहां के हिन्दुओं व बौद्धों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और प्रताड़ना का भी शिकार होना पड़ा। पाकिस्तान से तो ईसाई धर्मावलम्बियों के साथ भी प्रताड़ना की खबरें आती रहीं। यहां तक कि यहां की सरकार ने मुस्लिम धर्म के ही एक खास फिरके के लोगों को गैर इस्लामी घोषित कर दिया। अब 31 दिसम्बर 2014 तक जो अल्पसंख्यक इन तीन देशों से भारत में वैध या अवैध तरीके से शरण लिये हुए हैं उन सभी को केवल यह साबित करने पर भारत की नागरिकता मिल जायेगी कि उनके दादा या परदादा भी इन तीन देशों में से किसी एक के नागरिक थे। उन्हें न पासपोर्ट दिखाने की जरूरत है और न वीजा की जरूरत है। दीगर सवाल यह भी है कि एेसे लोगों का भारत के अलावा अन्य किसी देश में ठौर भी नहीं है क्योंकि उनकी जड़ें भारत में ही हैं।