संपादकीय

मोदी का दक्षिण अभियान !

Aditya Chopra

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी पिछले चार-पांच दिनों से दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों के दौरे पर हैं। लोकसभा चुनावों के लिए चुनाव आयोग ने समय तालिका घोषित कर दी है अतः श्री मोदी इन राज्यों में अपनी पार्टी भाजपा का चुनाव प्रचार कर रहे हैं। यदि देश के राजनैतिक मानचित्र को देखें तो आजादी के बाद से भाजपा अभी भी मूलतः उत्तर भारत व इससे लगते पश्चिमी व पूर्वी भारत के इलाकों की पार्टी ही है। दक्षिण में उसके पांव सिर्फ कर्नाटक राज्य में ही जमे हैं । इसकी वजह यह मानी जाती है कि इस राज्य का बहुत बड़ा हिस्सा मध्यकाल में मराठा साम्राज्य के अधीन आता था जहां इतिहास पुरुष शिवाजी महाराज का दबदबा भी बना था। सांस्कृतिक रूप से भी कर्नाटक के बहुत से इलाके मराठा व कोंकणी क्षेत्र में वृहद महाराष्ट्र से सामंजस्य रखते हैं। फिर भी इस राज्य में पार्टी को जमाने में भाजपा के नेता श्री वाईएस येदियुरप्पा की प्रमुख भूमिका अस्सी के दशक से ही रही। हकीकत यह है कि अभी तक भाजपा के धुर दक्षिणी राज्यों में फैलने के सभी प्रयास निष्फल रहे हैं। हालांकि साठ के दशक से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सांगठनिक स्तर पर काफी सक्रिय रहा है विशेषकर केरल राज्य में परन्तु भाजपा का बहुत कम असर ही इन राज्यों में हुआ है।
बेशक आंध्र प्रदेश से 2014 में तेलंगाना के अलग हो जाने पर इस राज्य में भाजपा को चुनावी सफलता भी आंशिक तौर पर मिली है। 2019 के लोकसभा चुनावों में इस राज्य से इसके चार सांसद चुन कर आ गये थे। मगर केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश में भाजपा को बीच-बीच में नाम मात्र की सफलता ही मिल पाई। यदि गौर से देखा जाये तो श्री मोदी इस बार दक्षिणी राज्यों की राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन लाना चाहते हैं जिसके लिए वह अथक प्रयास करते दिखते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में केरल की राजधानी तिरुवनन्तपुरम से भाजपा प्रत्याशी की हार बहुत ज्यादा वोटों से नहीं हुई थी। तमिलनाडु की कोयम्बटूर सीट जरूर एेसी मानी जाती है जहां पूर्व में भाजपा विजयी होती रही है। इस शहर में उत्तर भारत के लोग काफी बड़ी संख्या में भी रहते हैं। भाजपा नेता डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी भी संसद में इस सीट से चुनाव जीत चुके हैं। परन्तु संगठन के स्तर पर भाजपा 1962 के बाद से इन राज्यों में अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। बल्कि एक समय तो एेसा भी आया था जब स्व. वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्र में बनी एनडीए सरकार के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तमिलनाडु के श्री कृष्णमूर्ति थे। परन्तु इन सब कवायदों का बहुत ज्यादा असर नहीं हो सका था।
हकीकत यह है कि दक्षिण भारत भी जनसंघ या भाजपा के लिए उपजाऊ जमीन हो सकता है, यह सपना सबसे पहले इस पार्टी के मार्गदर्शक नेता माने जाने वाले स्व. पं. दीनदयाल उपाध्याय ने दिया था। स्व. उपाध्याय की जब 1967 में जनसंघ के नेता के रूप में प्रो. बलराज मधोक के अध्यक्ष पद छोड़ने पर ताजपोशी हुई थी तो उन्होंने बहुत दूर की सोचकर अपनी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन केरल के कालीकट शहर में कराया था। परन्तु इसके तुरन्त बाद उनकी मृत्यु हो जाने और भारतीय राजनीति में कांग्रेस की नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी का दबदबा बढ़ जाने से जनसंघ (भाजपा) उत्तर भारत तक के राज्यों में हांशिये पर जाने लगी थी। परन्तु नब्बे के दशक में अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन के राष्ट्रव्यापी बन जाने से भाजपा की हालत सुधरने लगी और 1998 में जब इसकी सरकार नई दिल्ली में काबिज हो गई तो पार्टी ने दक्षिण में पैर पसारने के प्रयास किये और श्री कृष्णमूर्ति को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जिसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। मगर श्री मोदी की शैली सभी पुराने भाजपा के दिग्गजों से अलग मानी जाती है। वह आक्रामक तरीके से दक्षिण भारत को उत्तर के साथ राजनैतिक रूप से समायोजित करने के लिए सांस्कृतिक व धार्मिक समरूपता का सहारा ले रहे हैं।
दरअसल हिन्दू धर्म की पूरे भारत में पुनर्स्थापना में केरल राज्य की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है जहां से आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने चल कर उत्तर व पूर्वी और पश्चिमी भारत को एक सांस्कृतिक धागे में बांधा और चारों दिशाओं में शंकराचार्य मठों की स्थापना की। वर्तमान राजनैतिक वातावरण में मोदी इस सांस्कृतिक समरूपता के छाते के तहत प्रत्येक दक्षिणी राज्य में स्थानीय क्षेत्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टियों से समझौता कर रहे हैं और भाजपा के अभियान को दक्षिण के कलेवर में आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें उन्हें कितनी सफलता मिलेगी यह तो 2024 के चुनाव परिणामों से पता चलेगा परन्तु इतना निश्चित है कि इस रणनीति से भाजपा दक्षिण भारत के हर गांव-कस्बे में जरूर पहुंचेगी। हालांकि भाजपा की यह राह आसान नहीं है परन्तु केन्द्र में अपनी सरकार होने की वजह से उसे इसका लाभ भी मिल सकता है।
भाजपा मानती है कि जो हिन्दुत्व उसकी विचारधारा का केन्द्र बिन्दू है उसके असर में दक्षिण के राज्य भी देर-सबेर आ सकते हैं। हालांकि इन सभी राज्यों की राजनीति वामपंथ की तरफ झुकी हुई मानी जाती है परन्तु आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद जिस तरह आर्थिक नीतियों का प्रभाव राजनीति पर पड़ रहा है उसके चलते भाजपा का विरोध इन राज्यों में सुप्त हुआ है।