लोकतन्त्र में किसी भी सरकार का पहला चेहरा उसके कर्मचारी ही होते हैं और उनकी सुख-सुविधा व सुरक्षा का ध्यान रखना सरकार का प्राथमिक दायित्व होता है। भारत की प्रशासनिक प्रणाली बेशक राजनैतिक दलों के आवरण में रहती है मगर शासन संविधान का ही होता है। अतः सरकारी कर्मचारी भी संविधान के नौकर ही होते हैं और इनकी निष्ठा किसी राजनैतिक दल के प्रति न होकर संविधान के प्रति होती है। भारत में चुनावों के बाद राजनैतिक दलों की सरकारें बदलती रहती हैं मगर सरकारी कर्मचारी वही रहते हैं और वे अपना काम पूरी निष्ठा व लगन के साथ सरकार के संवैधानिक आदेश मान कर करते रहते हैं। सरकार का कौन सा आदेश संवैधानिक है अथवा असंवैधानिक है यह देखने का काम सर्वोच्च न्यायालय का होता है। भारत की प्रशासनिक व्यवस्था की बुनियाद इसके पहले गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल गांधीवाद के समदृष्टि सिद्धान्त पर रखकर गये हैं जिसमे हर सरकारी कर्मचारी का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह देश के हर नागरिक के साथ समदृष्टि के साथ न्याय करे और अपना छोटे सा छोटा फैसला करने में भी उसके जाति-धर्म को बीच में न लाये। इसके साथ ही शासन या सत्ता का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वह हर छोटे से लेकर बड़े कर्मचारी के प्रति न्यायपूर्ण दृष्टि अपनाये और कर्मचारी को केवल संविधान के अनुसार ही फैसला करने की छूट दे।
भारत चूंकि एक लोक कल्याणकारी राष्ट्र है अतः इसके सरकारी कर्मचारी भी इसके घेरे में आते हैं क्योंकि वे सरकारी नौकर होने से पहले भारत के सम्मानित नागरिक होते हैं। बहुत मूल प्रश्न यह उठ रहा था कि जो सरकारी कर्मचारी अपना पूरा जीवन देश की सेवा में लगा देता है उसके रिटायर होने के बाद उसके बुढ़ापे की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी सरकार को क्यों नहीं देनी चाहिए? इसकी पुख्ता व्यवस्था भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने देश की प्रशासनिक व्यवस्था में की थी और रिटायर होने के बाद पक्की पेंशन पाने की गारंटी दी थी। परन्तु 1991 से जब से देश में आर्थिक उदारीकरण का बुखार चढ़ा तो सरकारी कम्पनियों को ही नहीं बल्कि कर्मचारियों को भी बोझ समझा जाने लगा और कहा जाने लगा कि ये कर्मचारी निकम्मे होते हैं जो सरकारी कम्पनियों को घाटे में चलाते हैं और सरकार पर अपनी पेंशन का बोझा चढ़ाते रहते हैं। परन्तु इस देश की यह हकीकत है कि जब भी जनहित की बात होगी तो हमें नेहरू और गांधी की नीतियों पर लौट कर आना पड़ेगा। इसकी वजह गांधी की यही उक्ति रहेगी कि 'सरकार को अपना हर निर्णय करने से पहले यह अच्छी तरह सोच लेना होगा कि उसका असर समाज के सबसे अन्तिम गरीब आदमी पर क्या होगा'। मगर बाजारवाद की धुन में यह भुला बैठे कि अपनी पूरी जवानी सरकारी सेवा में खपाने वाले कर्मचारियों को यदि बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलती तो उनकी सामाजिक सुरक्षा पर भी बुरा असर पड़ेगा और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में टूटती भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली में बूढ़ा आदमी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जायेगा। अतः पेंशन स्कीम का आयाम केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक भी है जो कि बहुत गंभीर है। पक्की पेंशन पाना सरकारी कर्मचारियों का वाजिब हक था जिसके लिए वे पिछले कई दशकों से तब से ही मांग उठा रहे थे जब से वाजपेयी सरकार के दौरान नई पेंशन स्कीम लागू हुई थी। इस पेंशन स्कीम में रिटायर कर्मचारियों को हजार-हजार और दो-दो हजार की पेंशन मिल रही थी। अतः विपक्षी दल पुरानी पेंशन स्कीम योजना लागू करने की मांग पुरजोर तरीके से उठा रहे थे। केन्द्र की एनडीए सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में एक वर्ष पहले तत्कालीन वित्त सचिव श्री टी.वी. सोमनाथन की अध्यक्षता में एक चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन पेंशन मुद्दे पर विचार करने के लिए किया था। उसकी सिफारिशों पर ही अब एनडीए सरकार ने एकीकृत पेंशन स्कीम की घोषणा की है जिसके तहत किसी केन्द्रीय कर्मचारी को उसके सेवाकाल के अन्तिम वर्ष में मिली तनख्वाह का औसत निकाल कर उतनी धनराशि प्रतिमाह पेंशन के रूप में दी जायेगी और उस पर महंगाई भत्ता भी दिया जायेगा। मगर किसी भी कर्मचारी का सेवाकल कम से कम 25 वर्ष होने पर ही यह सुविधा दी जायेगी। जिस कर्मचारी का सेवाकाल दस वर्ष होगा उसे प्रतिमाह दस हजार रुपए की पेंशन दी जायेगी। इससे कम के सेवाकाल के कर्मचारी को भी आर्थिक मदद एक मुश्त रूप में दी जायेगी। यह सब सुविधा एनडीए की सरकार ने अपना गठबन्धन धर्म निभाते हुए प्रदान की है और विपक्ष की आवाज को भी अनसुना नहीं किया है। इससे कम से 22 लाख केन्द्रीय कर्मचारियों को लाभ होगा।