संपादकीय

एक देश -एक चुनाव !

Rahul Kumar Rawat

भारत एक राज्यों का संघ देश है जिसमें राज्यों के संवैधानिक अधिकार स्पष्ट हैं जिनमें इनके चुने हुए सदनों की, जिन्हें विधानसभा कहा जाता है, राजनैतिक स्वायत्तता संविधान के दायरे में निहित है। अतः एक देश एक चुनाव का विषय इतना आसान नहीं है जितना यह ऊपर से देखने में लगता है। भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों की भी परिकल्पना है। इनमें क्षेत्रीय दल राज्य स्तर पर अपने क्षेत्रीय हितों की दृष्टि से काम करते हैं परन्तु वे राष्ट्रीय हितों से भी बंधे रहते हैं। संविधान में राज्यों व केन्द्र के अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा इस प्रकार किया गया है कि राज्यों को अपने क्षेत्र के सर्वांगीण विकास में किसी प्रकार की बाधा न आये। परन्तु इनमें से राज्यों ने अपने वित्तीय अधिकार पहले ही वस्तु व सेवा कर परिषद को सौंप दिये हैं। यदि हम एक देश एक चुनाव पर अमल करते हैं तो जाहिराना तौर पर राज्यों के राजनैतिक विधायी अधिकार परोक्ष रूप से केन्द्र के पास आ जायेंगे जिसकी वजह से इस विचार का देशभर के सभी छोटे-बड़े राजनैतिक दल विरोध करते रहे हैं। केन्द्र ने इस बारे में पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का भी गठन किया था जिसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप रखी है।

इसकी रिपोर्ट एक देश एक चुनाव के पक्ष में मानी जाती है। परन्तु भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में विभिन्न विषयों पर आयोगों व समितियों का गठन होता रहता है परन्तु उसका मतलब यह नहीं होता कि सरकार उन रिपोर्टों को स्वीकार ही करे। कुछ आयोगों की रिपोर्ट को तो सार्वजनिक तक नहीं किया जाता है। अतः बहुत स्पष्ट है कि ऐसे दुरुह विषय पर एक पक्षीय तरीके से नहीं सोचा जा सकता है। दूसरा विषय चुनाव आयोग का है। जो चुनाव आयोग कुछ राज्यों के चुनाव एक साथ तक नहीं करा सकता है उससे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह लोकसभा, विधानसभा व स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ करा देगा। चुनाव लोकतन्त्र की पहली और आखिरी जन परीक्षा होती है। इसकी पारदर्शी प्रक्रिया को हम किसी राजनैतिक सुविधा की दृष्टि से नहीं बांध सकते हैं। फिर राज्यों व केन्द्र के चुनाव अलग-अलग होने से इन चुनावों की प्रतिष्ठा बढ़ती है क्योंकि दोनों चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं।

राज्यों के चुनाव उस राज्य के लोगों के जन अधिकार पहुंचाने के लिए होते हैं। यही वजह है कि केन्द्र की जो भी योजना होती है उसे लागू करने का काम राज्य सरकार ही करती है। राज्य सरकार जनतन्त्र में प्रशासन का पहला चेहरा होती है। वैसे यह बात स्थानीय निकाय प्रशासन के बारे में भी कही जा सकती है परन्तु इसका दायरा केवल नागरिकों की सामुदायिक सुविधाओं तक ही होता है। जहां तक राज्य सरकारों का प्रश्न है तो इनका दायरा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण तक फैला रहता है अतः एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव करा कर हम मतदाताओं के साथ ही कहीं न कहीं न्याय नहीं कर पायेंगे। इस विषय के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इससे चुनावों पर कम खर्च आयेगा और चुनाव आयोग की सिरदर्दी भी कम होगी। हम जानते हैं राज्य विधानसभा व लोकसभा चुनावों की मत तालिका अलग-अलग होती है। राज्यों के चुनावों में प्रत्याशी भी वही व्यक्ति हो सकता है जो उस राज्य का नागरिक हो परन्तु राष्ट्रीय लोकसभा के चुनावों में दक्षिण का मतदाता उत्तर भारत के भी किसी राज्य से चुनाव लड़ सकता है। इस विभाजन में भी राज्यों के चुनावों की महत्ता छिपी हुई है। जहां तक कम चुनाव खर्चे की बात है तो यह केवल खाम ख्याली है।

लोकतन्त्र की ध्वजा ऊंची रखने के लिए और इसकी पारदर्शिता बनाये रखने के लिए इस व्यवस्था में खर्चे की बात करना बेमानी है क्योंकि खुद राजनैतिक दलों ने ही चुनावों को व्यापार में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भारत में भ्रष्टाचार की जड़ ही महंगी होती चुनाव व्यवस्था है क्योंकि जब करोड़ों रुपये खर्च करके कोई विधानसभा या लोकसभा का प्रत्याशी जनप्रतिनि​धि बनेगा तो वह विजयी होने के बाद सबसे पहले अपने भारी खर्च की भरपाई करने की कोशिश करेगा। अतः असल में बात सम्पूर्ण चुनावी व्यवस्था के सुधार की होनी चाहिए। मगर इसकी बात करने पर सभी राजनैतिक दल दीवार की तरफ मुंह करके खड़े हो जाते हैं। भारत की असली विडम्बना यही है। जब भी सरकारी खर्चे से चुनाव कराने की बात होती है तो इस राह को अव्यवहारिक बता दिया जाता है। जबकि जर्मनी जैसे लोकतन्त्र में यह प्रणाली सफलतापूर्वक काम कर रही है।

विगत लोकसभा चुनावों में कुल सरकारी खर्च 6600 करोड़ रुपये आया था जो भारत जैसे विविधता पूर्ण भरे विशाल देश को देखते हुए जायज कहा जा सकता है। इसलिए सवाल खर्च का बिल्कुल नहीं है बल्कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार राज्यों के वैधानिक राजनैतिक अधिकारों का है। यदि किसी विधानसभा में सत्तारूढ़ दल का बहुमत पांच साल पूरे करने से पहले ही समाप्त हो जाता है तो पुनः चुनाव करा कर जनादेश प्राप्त करके नई सरकार बनाने का विधान है। यह उस राज्य का अधिकार है उसे हम लोकसभा के कार्यकाल से कैसे जोड़ सकते हैं और यदि इससे भी ऊपर लोकसभा में ही किसी सरकार का बहुमत पांच साल पूरे होने से पहले ही मसलन तीन साल में समाप्त हो जाता है और कोई वैकल्पिक सरकार नहीं बनती है तो लोकतन्त्र का पहला सिद्धान्त कहता है कि नई सरकार बनाने के लिए लोगों का जनादेश लिया जाना चाहिए। लोग ही तो लोकतन्त्र के मालिक होते हैं। उनके पास यदि राजनैतिक दलों को बार-बार भी जाना पड़ा तो इससे कैसा गुरेज? लोकतन्त्र स्थापित ही तभी होता है जब जनता राजनैतिक दलों को जनादेश देती है। इससे भागना कैसा।