संपादकीय

‘पैरोल बाबा’ राम रहीम

Aditya Chopra

क्या कयामत है कि हत्या और बलात्कार जैसे संगीन जुर्मों के अपराधी डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम को सरकारी रहमतों ने 'पैरोल बाबा' बना दिया है। पिछले चार साल के दौरान इस बाबा को नौवीं बार पैरोल पर छोड़ा जा रहा है। कानून की इस 'दरियादिली' को पूरे हिन्दोस्तानी हैरत से देख रहे हैं और कह रहे हैं कि 'या खुदा ऐसी रहमत पाने के लिए बाबा का चोला कितने फख्र का सबब बन सकता है'। बेशक भारत की जनता को धर्म प्राण कहा जाता है मगर वह बखूबी यह भी जानती है कि धर्म के नाम पर पाखंड को कैसे चमकाया जाता है। राम रहीम एक कातिल है जिस पर पत्रकार राम चन्द्र छत्रपति और डेरा मैनेजर रणजीत सिंह की हत्या की साजिश में शामिल होने का अपराध अदालत में साबित हो चुका है। इसके साथ ही वह अपने डेरे की ही एक साध्वी का बलात्कार करने के जुर्म में भी बीस साल की सजा काट रहा है। मगर चार साल पहले उसे सजा सुनाए जाने के बाद जिस तरह बार-बार पैरोल पर जेल से बाहर आने की छूट जेल नियमों के नाम पर ही दी जा रही है उससे आम जनता के दिल में यह शक पैदा होना वाजिब है कि उसे कानून की आड़ लेकर ही वह सुविधा दी जा रही है जिसकी छूट उस जैसा ही अपराध करने वाले दूसरे कैदियों को नहीं मिल पाती।
आखिरकार यह माजरा क्या है? क्या इसके पीछे वोट की राजनीति है? क्योंकि जब भी चुनावी मौसम आता है उससे कुछ समय पहले बाबा को पैरोल से नवाज दिया जाता है और बहाना उसके परिवार में किसी समस्या का लगा दिया जाता है। जेल से बाहर आने पर बाबा संगतों को सम्बोधित करता है जिसमें नामी-गिरामी राजनीतिज्ञ भी शिरकत करते दिखाई पड़ते हैं और उसके दरबार में शीश झुकाते नजर आते हैं। सवाल यह है कि भारत जब कानून से चलने वाला देश है तो कानून बनाने वाले राजनीतिज्ञ क्यों कर कानून का ही मजाक उड़ाते नजर आते हैं? दरअसल वे कानून का नहीं बल्कि इस मुल्क का मजाक उड़ाते हैं और कहते हैं कि कानून को कानून की कलम से ही मार कर वे कानून की धज्जियां सरे राह उड़ायेंगे और उसको फिर धर्म का कलेवर चढ़ायेंगे। इसे हम 'कानून की त्रासदी' ही कहेंगे इसके अलावा और कुछ नहीं कह सकते। वरना क्या वजह है कि एक अपराधी का सम्बोधन सुनने के लिए राजनीतिज्ञों का जमावड़ा भी हो और दूसरी तरफ जेल के दरवाजे भी खुले हों।
भारत गांधी का देश है और गांधी जी का सिद्धान्त था कि हर अपराधी को सुधरने का अवसर मिलना चाहिए मगर उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि अपराधी के अपराध को भी श्रद्धाभाव से देखा जाये। गांधीवाद के अनुसार अपराध को खत्म करने की जरूरत होती है और उससे घृणा करना जरूरी होती है जिससे कोई दूसरा व्यक्ति वैसा अपराध न कर सके। मगर जब अपराधी का महिमामंडन होने लगता है तो कहीं न कहीं अपराध का भी महिमामंडन होने लगता है और उससे समाज में अपराध को सामान्य व्यवहार मानने की चेतना जागृत होने का अन्देशा रहता है जिसकी वजह से अपराध के बढ़ने की संभावनाएं पैदा होती जाती हैं। राम-रहीम को पचास दिन का पैरोल दिया गया है। पैरोल पर वह अपने बागपत आश्रम में निवास करेगा और वहां जाकर वह अपनी कथित धार्मिक गतिविधियां भी करेगा जिससे धर्म के अधर्म बन जाने का खतरा मंडराता रहेगा। धर्म केवल कर्मकांड का नाम नहीं होता बल्कि वह व्यक्ति के हृदय को शुद्ध करने का कार्य भी करता है। यह कार्य वही कर सकता है जिसका आचरण और लोक व्यवहार भी शुद्ध हो।
राम रहीम अपने हरियाणा के सिरसा आश्रम में तो नहीं जा पायेगा मगर उत्तर प्रदेश के बागपत आश्रम में जायेगा। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार है। योगी जी स्वयं साधू हैं मगर शासक के पद पर बैठे हुए हैं। अतः उनकी सरकार को अपने क्षेत्र के अपराधियों को राम रहीम से प्रेरणा पाने की किसी भी घटना को तुरन्त रोकना चाहिए। राम रहीम को अपनी बीमार मां का हाल-चाल जानने के लिए इस बार पैरोल की सुविधा दी गई है। मगर वह तो बागपत आश्रम में विश्राम करेगा। यह स्वयं में ही बताता है कि प्रशासन उसके साथ करुणामय व्यवहार कर रहा है जिसे देख कर एेसे ही अपराधों में जेल में बन्द अन्य कैदी प्रेरणा लेंगे। हमारे सामने सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की बहुत सारी नजीरें हैं जिनमें जघन्य अपराधियों के साथ नरमी बरतने से निषेध रखा गया है। हाल ही में गुजरात के बिलकिस बानो बलात्कार कांड मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने सभी 11 अपराधियों को 21 जनवरी तक आत्मसमर्पण करने का हुक्म दिया है जिससे वे जेल में पुनः चक्की पीस सकें। मगर राम रहीम तो 'पैरोल बाबा' बन चुका है। एेसा लगता है 'पैरोल उसका जन्म सिद्ध अधिकार है'।