जिन्ना और लियाकत अली ने फैसला किया कि 'आपरेशन कश्मीर' नामक एक ऐसा अभियान शुरू किया जाए जिसके तहत पहले महाराजा हरि सिंह से 'यथास्थिति समझौते' की समाप्ति का ऐलान हो तथा साथ ही हमला भी कर दिया जाए। पहले तो आपरेशन बड़ा गुपचुप रहा और अन्दर ही अन्दर तैयारी चलती रही, परन्तु बाद में कराची से प्रकाशित होने वाले अखबार 'डान' ने सबसे पहले पाकिस्तान के मेजर खुर्शीद अनवर (सेवानिवृत्त) का एक इंटरव्यू छापा जिसमें यह दावा किया गया था कि जल्द ही कश्मीर पाकिस्तान का एक हिस्सा हो जाएगा। चारों तरफ हलचल मची हुई थी। कबायलियों के भेष में पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया। मुजफ्फराबाद, भिम्बर, अलीबेग, नौशेरा, बारामूल, सब तरफ तांडव मच गया। ये लोग जेहाद कर रहे थे। यह पाकिस्तान का जेहाद था। ये पाकिस्तान बनने की खुशी मना रहे थे। ये जिन्ना के लाडले सैनिक थे। ये लियाकत अली के लख्ते जिगर थे। इन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि हिन्द की फौज से जरूर टक्कर होगी, अतः उससे पहले जश्न मना लिया जाए।
10 साल से लेकर 60 वर्ष तक उम्र की किसी औरत तक को इन वहशियों ने नहीं छोड़ा। यहां तक कि अस्पतालों में इलाज करवा रही औरतें भी महफूज न रहीं। 95 हजार हिन्दू कश्मीर घाटी में कत्ल कर दिए गए। महाराजा ने भारत से विलय का निर्णय ले लिया। उधर विलय हुआ, इधर 27 अक्तूबर को भारत की सेना श्रीनगर पहुंच गई। पाकिस्तानी फौज मुजफ्फराबाद से श्रीनगर की ओर बढ़ रही थी। श्रीनगर में ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह फौज की कमान में थे। उन्होंने श्रीनगर से 115 किलोमीटर की दूरी पर द्रोमेल नामक स्थान पर मुकाबला करने का निर्णय लिया। कुछ ऐसी स्थिति बनी कि ब्रिगेडियर सिंह को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने उड़ी में दुश्मन से लोहा लिया और बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हताहत हुए, पर निर्णायक युद्ध 'शाल्टंग' में हुआ। ऐसी सुदृढ़ व्यूह रचना की कि एक बार जो पाकिस्तानी सैनिक आगे आए, फिर वापस नहीं गए। शाल्टंग पाकिस्तानियों का कब्रिस्तान बन गया।
संक्षेप में यहां सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि 10 दिनों में अर्थात् 7 नवम्बर, 1947 तक सारी कश्मीर घाटी को भारत की सेना ने आतंकवादियों से, जो कबायलियों के भेष में आक्रमण कर रहे थे, मुक्त करा लिया। इसके बाद शेष क्षेत्रों की मुक्ति का अभियान छेड़ा जाना था। शेष क्षेत्रों पर आक्रमण क्यों नहीं किया जा सका, इसमें शेख अब्दुल्ला की क्या भूमिका थी। उनकी कुटिलता किस कदर िवद्रूप हो गई, नेहरू जी ने क्या भूमिका अदा की। ब्रिगेडियर परांजपे वहां क्यों मजबूर हो गए, एजैंट जनरल न्यायमूर्ति कुंवर दलीप सिंह ने वहां जाकर क्या देखा? इन सब विषयों पर मैं पहले भी लिख चुका हूं। अतः अच्छा यही होगा कि उन विषयों को छोड़कर आगे बढ़ें और उस मुकाम पर आएं जब आक्रमण के बदले सारा मामला ही संयुक्त राष्ट्र पहुंच गया। यह राष्ट्र की बहुत बड़ी त्रासदी थी। यह ऐसी भूल थी जो जानबूझ कर की गई। यह ऐसी भूल थी जो अक्षम्य है। भारत के लोग मूलतः बड़े भावुक हैं। जिससे प्यार करते हैं, उससे किसी न किसी तरह का रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। किसी को पिता बना लेंगे, किसी कोे चाचा बना लेंगे, किसी को ताऊ बना लेंगे, किसी को भाई बना लेंगे। रिश्तों की बड़ी मर्यादा होती है और राजनीति में अक्सर ऐसी मर्यादा रह नहीं पाती।
पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी 'पी.ओ.के.' की बात कायदे आजम से ही शुरू की जाए। आज आप पी.ओ.के. हो आएं, आपको खुद पता चल जाएगा, कायदे आजम की उनकी नजर में क्या इज्जत है? आज पाक अधिकृत कश्मीर का आम नागरिक आपको वहां चीखता-चिल्लाता मिलेगा-''कौन है जिन्ना? कहां है जिन्ना? उसी नामुराद ने सारा खेल बिगाड़ दिया। सारी उम्र 'टू-नेशंस थ्यूरी' कह के चीखता रहा। बार-बार हमें वरगलाता रहा। हम अलग, हमारा आइना अलग, हमारी सोच अलग, हमारा अदब अलग, हमारी जुबान अलग, महारे रहनुमा अलग, हमें अलग मुल्क चाहिए। क्या मिल गया उसे इस मुल्क में ? वह खुद आखिरी वक्त तक इसी डर से गुजारता रहा कि लोग गोिलयां न चला दें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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