संपादकीय

पीओके : सच का आइना (6)

Rahul Kumar Rawat

हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में जम्मू-कश्मीर में बढ़ा वोट प्रतिशत यह बताता है कि राज्य के लोगों की भारत के संविधान और लोकतंत्र में आस्था है। अब तो राज्य में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया भी आरम्भ होने वाली है। जम्मू-कश्मीर के लोग विकास को महसूस करने लगे हैं और राज्य शांति की ओर अग्रसर है।
आम चुनाव में 2019 में श्रीनगर में मतदान प्रतिशत 14.4 प्रतिशत था, तो इस बार 38 फीसदी वो​टिंग हुई। यानी इस बार वोटिंग में करीब 16 फीसदी की बढ़ौतरी हुई। 1989-90 में आतंकवाद और अलगाववाद हिंसा के मद्देनजर, 1996 में यह गिरकर 41 प्र​​तिशत हो गया। वहां से यह अनुपात तेजी से घटने लगा, उस वर्ष अफगानिस्तान में आने वाले विदेशी आतंकवादियों की संख्या सबसे कम थी और वहीं से पाकिस्तानी आतंकवादियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी।
दिलचस्प बात यह है कि महत्वपूर्ण बारामूला निर्वाचन क्षेत्र में 20 मई, 2024 को यानी पांचवें चरण में 22 उम्मीदवारों के लिए रिकॉर्ड 59 प्रतिशत मतदान दर्ज किया था, इससे पहले यानी 1994 में बारामूला में करीब 46 फीसदी वोटिंग हुई थी। महिलाएं, जेल में बंद कुछ आतंकवादियों के रिश्तेदार और साथ ही प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में चुनाव में मतदान करने के लिए निकले, जो ​बिना किसी हिंसा के बेहद शांतिपूर्ण तरीके से सम्पन्न हुआ।

युुुवाओं और महिलाओं ने कहा कि हम राजनीतिक प्रक्रिया में होने वाले विकास के लिए वोट करने आए हैं। इससे पहले श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र में कट्टरपंथियों के प्रभाव के कारण बडगाम, पुलवामा और शोपियां जैसे विभिन्न स्थानों पर मतदाताओं ने मतदान में भाग नहीं लिया। ग्रेनेड विस्फोटों से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अपहरण तक, लोगों को वोट देने से रोकने के लिए सभी प्रकार की बाधाएं डाली गईं। ये सभी तरीके खासतौर पर लोकसभा चुनाव के लिए अपनाए गए। विधानसभा चुनाव, पंचायत के साथ-साथ नगर निगम चुनाव स्थानीय मुद्दों और विकास से जुड़े होते हैं। इसलिए मतदाता इन चुनावों को लेकर निराश नहीं हुए। 2008 के बाद से इस इलाके में लगातार पत्थरबाजी हो रही है। भारत के खिलाफ जनमत को उजागर करने के ​लिए अलगाववादी सड़कों पर उतर आए लेकिन बढ़ते पर्यटन, निवेश निधि के प्रवाह, युवाओं की बढ़ती आकांक्षाओं और एक भी 'बंद' नहीं होने की हालिया झलकियों को देखते हुए, एक बड़ा बदलाव प्रतीत होता है। अनुच्छेद 370 हटाने के पांच साल बाद, जम्मू-कश्मीर में एक नया अध्याय शुरू हुआ है।

हालांकि कुछ दिन पहले पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में हुए विरोध प्रदर्शन, वहां के समग्र माहौल में भड़की चिंगारी का संकेत थे। हम जानते हैं कि सम्पूर्ण अरब जगत जिसे 'स्प्रिंग मूवमेंट' के नाम से जाना जाता है, उसकी शुरूआत एक चिंगारी के कारण हुई थी। दिसम्बर 2010 में मोहम्मद बौजिजी के आत्मदाह ने ट्यू​नीशिया की जैस्मान क्रां​ति को जन्म दिया। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में वह क्षेेत्र जो देश को भारी मात्रा में ​बिजली की आपूर्ति करता है, वहां बिजली के बिल और गेहूं की कीमतें अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं। आम आदमी गोलियों की मार झेल रहा था। हालांकि इस क्षेत्र में कई परिवार राष्ट्रीय सीमाओं से विभाजित हैं, लेकिन आज के सोशल मीडिया और संचार सुविधाओं की बदौलत उनके बीच सूचनाओं का लगातार आदान-प्रदान होता रहा है। जम्मू-कश्मीर में चल रहे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव से वहां मौजूद आजादी का अंदाजा मिलता है। पर्यटन, बढ़ता निवेश, बढ़ते अवसरों ने जम्मू-कश्मीर के लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाया है। यह सब जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर के बीच अपरिहार्य टकराव की ओर ले जाता है, जिससे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में तूफान पैदा होने की सम्भावना है। पाकिस्तान सरकार हमेशा से पाक अधिकृत कश्मीर के साथ भेदभाव करती आई है।

सिंध प्रांत के लोग खुद को सिंधु घाटी सभ्यता के वंशज मानते रहे और आरोप लगाते हैं कि पाकिस्तान उन पर जबरन कब्जा किए हुए है। साठ के दशक में गुलाम मुर्तजा सैय्यद ने इस मूवमेंट की शुरुआत की। वे इस बात पर नाराज थे कि उन पर उर्दू भाषा थोपी जा रही थी। साथ ही वे इस पर भी गुस्सा थे कि बंटवारे के बाद काफी सारे भारतीय मुस्लिम भी उनके हिस्से में आ गए थे। ये उन्हें मुजाहिर कहते और सिंध से हटाना चाहते थे। बांग्लादेश के बनने के बाद सिंधु देश की मांग ने जोर पकड़ा लेकिन ये कभी भी बलूचिस्तान की तरह आक्रामक नहीं हो सका। यहां तक कि खुद लोकल सिंधी भी पाकिस्तान के साथ रहने को ही सपोर्ट करते रहे। साल 2020 में सरकार ने एक साथ कई सेपरेटिस्ट मूवमेंट्स चलाने वाली पार्टियों को बैन किया। सिंधु देश लिबरेशन आर्मी और सिंधु देश रिवॉल्यूशनरी आर्मी भी इनमें से एक थे।

गिलगित बाल्टिस्तान में आजादी की मांग को लेकर आंदोलन होते रहे हैं। चरमपंथी संगठनों ने अपने देश का नाम बलवारिस्तान यानी ऊंचाइयों का देश रख लिया है। क्यों​कि यह पूरा इलाका पहाड़ों और वादियों का है। समय-समय पर यहां आंदोलन होते रहे। पाकिस्तान का यह इलाका खूबसूरत होने के बावजूद कोई पर्यटक यहां नहीं आता। पा​किस्तान सरकार की योजनाएं भी यहां पूरी तरह लागू नहीं होती। इसके अलावा पूरे देश में छुटपुट हिस्सों में अलगाववाद लगातार पनप रहा है। देश विभाजन के कुछ समय बाद आए मुस्लिमों को स्वीकारा नहीं जा रहा। इन लोगों को मोहाजिर करार दिया जाता है और इन्हें योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिलता। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान का डर और बढ़ गया है क्योंकि यहां मौजूद पश्तून आबादी अफगानिस्तान का हिस्सा बनने की मांग कर रही है। अगर ऐसा हुआ तो लगभग पूरा खैबर पख्तूनख्वा अलग हो जाएगा। पाकिस्तान के कब टुकड़े-टुकड़े हो जाएं यह भविष्य के गर्भ में है। (समाप्त)

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com