महाराष्ट्र की राजनीति में इस समय तूफान मचा हुआ है। वैचारिक एवं सैद्धांतिक राजनीति का कोई महत्व नहीं रह गया। सत्ता लोलुप नेता अपना-अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भीतरघात और जोड़-तोड़ करने में लगे हैं। रात ही रात में निष्ठाएं बदल रही हैं और दलबदल का जबरदस्त खेल जारी है। महाराष्ट्र में मराठा दिग्गज शरद पवार की पार्टी राकांपा का हाल भी शिवसेना जैसा हो गया है। कांग्रेस के नेता मिलिंद देवड़ा, बाबा सिद्धीकी और पूर्व मुुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कांग्रेस छोड़ चुके हैं और भाजपा का दामन थाम अशोक चव्हाण तो राज्यसभा की सीट भी पक्की कर चुके हैं। शरद पवार जिन्होंने अपने भतीजे अजित पवार को सियासत का क, ख, ग सिखाया, वही उनकी पार्टी को हाईजैक करके ले जा चुके हैं। इससे पहले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को हाईजैक कर चुके हैं। महाराष्ट्र विधानसभा में अजित पवार गुट को उस समय बड़ी राहत मिली जब विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ने उनके गुट को ही असली राकांपा मान लिया। शरद पवार गुट की ओर से अजित पवार समेत सभी 9 विधायकों को अयोग्य ठहराने की मांग की गई थी। महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष ने इस मामले में चुनाव आयोग के फैसले का ही अनुसरण किया है।
चुनाव आयोग ने इससे पहले एकनाथ शिंदे गुट जो उद्धव ठाकरे की शिवसेना से टूटकर अलग हुआ था, को असली शिवसेना माना और उसे ही पार्टी का चुनाव चिन्ह दे दिया। ठीक इसी तर्ज पर चुनाव आयोग ने अजित पवार गुट को असली राकांपा माना और पार्टी का चुनाव चिन्ह अजित पवार गुट को अलाट कर दिया। चाचा की पार्टी का चुनाव चिन्ह घड़ी अब अजित पवार के पास जा चुका है। महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर राहुल नार्वेकर ने कहा कि पार्टी संविधान के अनुसार एनसीपी वर्किंग कमेटी सर्वोच्च संस्था है। इसमें 16 स्थायी सदस्य हैं, लेकिन पार्टी का संविधान स्थायी सदस्यों को इजाजत नहीं देता। हमें नेतृत्व संरचना, पार्टी संविधान और विधायकी की ताकत को देखकर तय करना होगा कि पार्टी किसकी है। पार्टी संविधान और नेतृत्व संरचना में कोई स्पष्टता नहीं है। संविधान में लिखा है कि महत्वपूर्ण निर्णय अध्यक्ष लेंगे। अध्यक्ष कौन यह मैं तय नहीं कर सकता, विधायकों की संख्या बल यह तय करने का अधिकार रखती है। 41 विधायक अजित पवार गुट के समर्थन में हैं, ऐसे में असली एनसीपी अजित पवार गुट ही है।
विधानसभा स्पीकर राहुल नार्वेकर ने कहा कि विधायकों ने पार्टी के विरोध में कुछ नहीं किया। शरद पवार के दिल से नहीं चलना मतलब यह नहीं की विधायकों के कृत्य कदम पार्टी विरोधी हैं। पार्टी के अंदर की नाराजगी का मतलब यह नहीं की विधान मंडल की नाराजगी है। पार्टी में मतभेद होता है लेकिन विधायकों ने पार्टी नहीं छोड़ी। पार्टी का मतभेद मतलब यह नहीं की कानूनी उल्लंघन हुआ है। एनसीपी विधायकों की अयोग्यता पर फैसला पढ़ते हुए विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ने कहा कि फैसले के लिए मुझे उस आधार को लेना होगा जो शिवसेना के विधायकों की अयोग्यता पर फैसला सुनाते वक्त लिया गया था। दरअसल पार्टी के संविधान में लिखा है कि महत्वपूर्ण निर्णय अध्यक्ष लेंगे। दोनों गुटों का दावा है कि हमारे पास बहुमत है, जबकि 29 जून तक शरद पवार के अध्यक्ष पद पर कोई चैलेंज नहीं था। 30 जून को दो लोगों ने दावा कर दिया। दोनों का मानना है कि अध्यक्ष पद का चुनाव संविधान के हिसाब से नहीं हुआ। दोनों समूहों द्वारा अयोग्यता याचिकाएं भी दायर की गई हैं।
लोकतंत्र में बहुमत से ही फैसला होता है। चुनाव आयोग और विधानसभा अध्यक्ष ने इसी फार्मूले को अाधार बनाया। लोकतंत्र में पहले से ही स्थापित परम्पराओं और उदाहरणों का महत्व होता है। पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं जब कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के गुटों ने खुद को असली पार्टी होने का दावा किया और चुनाव आयोग ने उन पार्टियों का चुनाव चिन्ह जब्त करके उन्हें नया नाम और नए चुनाव चिन्ह आवंटित किए, लेकिन अब चुनाव आयोग ने संगठन की व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि बहुमत के आधार पर ही फैसला सुना दिया। चुनाव आयोग के फैसले पर सवाल तो खड़े हो ही रहे हैं। क्या इस तरह के फैसले थोक में दलबदल को प्रोत्साहित नहीं करते? क्या जनप्रतिनिधि घोड़ों की तरह नहीं बिक रहे? महाराष्ट्र में जोड़-तोड़ से सरकारें बनाने का सिलसिला तो 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही शुरू हो गया था। जब शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हुए। इसके बाद 12 नवम्बर को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था लेकिन 23 नवम्बर को महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी ने सुबह-सुबह देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। हालांकि यह सरकार भी दो दिन में ही गिर गई थी, क्योंकि चाचा शरद पवार ने उस समय भतीजे अजित पवार को 24 घंटे में ही तारे दिखा दिए थे। राजनीति में नेताओं की महत्वकांक्षा बहुत मायने रखती है क्योंकि हर कोई एक-दूसरे को धक्का देकर आगे निकल जाने की कोशिश करता है। लोकतंत्र की कोई लाख दुहाई दे, इस धक्का-मुक्की में कौन किसकी सुनता है। शरद पवार गुट अब इस पूरे मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। शिवसेना भी सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट उठ रहे सवालों का हल तो तलाशेगा ही देखना है क्या नई नजीर स्थापित होती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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