Position of manifesto in elections : मौजूदा लोकसभा चुनावों का अन्तिम चरण कल शनिवार को समाप्त हो जायेगा। 19 अप्रैल से शुरू होकर 1 जून तक चले ये चुनाव कई मायनों मे असाधारण चुनाव माने जा रहे हैं। सबसे बड़ी विशेषता इन चुनावों की यह मानी जा रही है कि कई दशकों बाद चुनाव गंभीर जनता से जुड़े मुद्दों पर हो रहे हैं। जनमूलक लोकतन्त्र की इन मुद्दों से तसदीक की जा सकती है। ये मुद्दे आम जनता की रोजी-रोटी के सवाल से जुड़े हुए हैं। इनके केन्द्र में आ का मतलब यह होता है कि लोकतन्त्र अपनी जड़ों की तरफ लौट रहा है क्योंकि इस व्यवस्था में समाज का सबसे दबा-कुचला व गरीब व्यक्ति ही केन्द्र में रहता है। मगर सबसे ज्यादा असाधारण चुनाव ये इस मायने मे जा रहे हैं कि 1952 के पहले चुनावों से लेकर संभवतः दूसरी बार किसी राजनैतिक दल का चुनाव घोषणापत्र आम जनता के राजनैतिक विमर्श मे आया है और उसे केन्द्र मे रख कर सत्ताधारी दल औऱ विपक्षी पार्टियों के बीच बहस-मुहाबिसे का माहौर बना है।
1952 के पहले चुनाव पूरे छह महीने तक अक्टूबर 1951 से लेकर मार्च 1952 तक चले थे और इनकी कमान भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के हाथ में थी। इन चुनावों में पं. नेहरू ने कांग्रेस के घोषणापत्र में उल्लिखित 'हिन्दू कोड बिल' को चुनावी मुद्दा बनाया था और पूरे देश के लोगों से इस पर उनका समर्थन मांगा था। लोगों की सहमति मिल जाने के बाद उन्होंने इस विधेयक क विभिन्न प्रावधानों को किश्तों में संसद में लाकर लागू किया था। परन्तु मौजूदा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में जिस तरह मूलभूत आर्थिक मुद्दों व सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों को उठाया है वे ही पूरे चुनाव को शुरू से लेकर आखीर तक आगे धकेलते रहे हैं। यह तब हुआ है जबकि कांग्रेस पार्टी ही भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत करने वाली पार्टी रही है। मगर कांग्रेस के इस चुनाव घोषणापत्र को जन- जन तक पहुंचाने का काम आश्चर्यजनक तरीके से इसकी कट्टर विरोधी पार्टी ने भाजपा के नेताओं ने ही किया। कांग्रेस का इस घोषणापत्र से भारत के नेहरू युग में लौटने का नीतिगत प्रयास तब हुआ है जबकि इस घोषणापत्र के मुख्य रचियता पूर्व वित्त मन्त्री श्री पी. चिन्दम्बरम हैं। चिदम्बरम आर्थिक उदारीकरण के जबर्दस्त पैरोकार माने जाते हैं मगर वित्तमन्त्री रहते उन्होंने 2006 में छोटे किसानों का 76 हजार करोड़ रु. का कर्जा माफ भी किया था। भोजन का अधिकार विधेयक तैयार करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई थी क्योंकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह इस विधेयक के पक्ष में नहीं माने जाते थे।
चिदम्बरम ने घोषणापत्र तैयार करते हुए संभवतः सबसे ज्यादा ध्यान बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौरान बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी और सामाजिक असन्तोष का रखा और फिर इसी के असार पांच न्याय व 25 गारंटी का मर्श गढ़ा। मगर इनका जमीनी असर इतना व्यापक तौर पर होगा इसकी उम्मीद शायद स्वयं कांग्रेस पार्टी को भी नहीं थी। यह चिदम्बरम की तेज दिमागी ही कही जा सकती है कि उन्होंने चुन- चुन कर वे सवाल उठाये जिनका सीधा सम्बन्ध इस देश के उन बहुसंख्यक व बहुधर्मी लोगों के जीवन से था जो आर्थिक उदारीकरण की व्यवस्था में स्वयं को हाशिये पर जाते हुए देख रहे थे। चिदम्बरम बेशक आर्थिक उदारीकरण पक्षधर हों मगर वह मूल रूप से कांग्रेसी है और इस पार्टी की जमीनी ताकत से वाकिफ हैं अतः उन्होंने घोषणापत्र में भारत के संविधान की प्रसंगिकता को लाते हुए गांधीवाद के अनुरूप लोक कल्याणकारी राज की परिकल्पना को पेश करने की कोशिश अपने उदार आर्थिक विचारों के बीच से ही की और यह जताने प्रयास किया कि किसी भी अर्थव्यवस्था में गांधी व नेहरू का लोककल्याणकारी विचार हाशिये पर नहीं डाला जा सकता।
बाजारवादी भारत की परिकल्पना तभी की जा सकती है कि जबकि इश देश के सामान्य आदमी की क्रय क्षमता को बाजार की शक्तियों के समानान्तर लाकर खड़ा किये जाये अतः प्रत्येक गरीब घर की महिला के खाते में एक लाख रूप वार्षिक की मदद और प्रत्येक बेरोजगार शिक्षित युवक को प्रशिक्षु योजना के तहत एक साल के लिए इतनी ही मदद देकर रोजी और रोटी के दोनों प्रश्नों का सरलीकरण किया जा सकता है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उठाव लाया जा सकता है केवल श्री चिदम्बरम के दिमाग की उपज है। राजनीति किस प्रकार अर्थशास्त्र के पीछे चलती है यह भी इस घोषणापत्र से सिद्ध करने की कोशिश जिसकी वजह से कांग्रेस की विरोधी पार्टियों का ध्यान इस चुनाव घोषणापत्र की तरफ इस तरह गया कि वे अपना घोषणापत्र ही भूल गईं। ये इन चुनावों की सबसे बड़ी विचित्रता कही जायेगी।
चुनाव घोषणापत्रों को भारत में अक्सर बौद्धिक कसरत माना जाता रहा है और यह समझा जाता रहा है कि राजनैतिक दलों द्वारा इनका प्रकाशन मात्र एक चुनावी औपचारिकता होती है मगर इन चुनावों ने यह सिद्ध किया कि किस प्रकार एक बौद्धिक प्रपत्र को जन विमर्श में लाया जा सकता है बशर्ते उसमें जनता में वैचारिक जोश भरने की क्षमता हो। यह भी कहा जा रहा है कि श्री चिदम्बरम ने यह घोषणापत्र श्री राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान लोगों से मिले विचारों को देख कर तैयार किया। यदि एेसा है तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि लोकतन्त्र में जो भी सरकार बनती है वह लोगों की सरकार ही होती है और लोग ही अपने एक वोट की ताकत से उसे बनाते हैं। मगर देखना यह होता है कि घोषणापत्र के रूप में जो भी दस्तावेज आता है उसमें जनता बोलती हुई दिखाई पड़ती है अथवा नहीं और देश की तत्कालीन परिस्थितियों से उसका कितना गहरा सम्बन्ध है।
लोकतन्त्र में लोकमूलक राजनीति तभी की जा सकती है जबकि राजनीतिज्ञ लोकधुन पर नाचते दिखाई दें। जनता से जुड़ने का मतलब यही होता है बेशक आर्थिक उदारीकरण का गा एक समय में नरसिम्हाराव के जमाने में लालकिले तक से गाया जाता रहा है मगर इसके प्रतिफलों को हमें समग्रता में देखा होगा और यह तय करपना होगा इसे लागू करने वाले लोगों की नीतियां कितनी लोकरंजक व लोक कल्याणकारी रही हैं। चुनावों का घोषणापत्र के इर्द-गिर्द लड़ा जाना भविष्य की राजनीति के लिए कई प्रकार के शुभ संकेत लेकर आता है।