संपादकीय

प्रोटेम स्पीकरः विवाद क्यों ?

Rahul Kumar Rawat

लोकसभा के अस्थायी (प्रोटेम) अध्यक्ष को लेकर जो राजनीति गरमाई है वह संसदीय लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं कही जा सकती। 18वीं नई लोकसभा का सत्र 24 जून से शुरू हो रहा है और इस दिन से पुरानी लोकसभा के अध्यक्ष श्री ओम बिड़ला पूर्व अध्यक्ष हो जायेंगे और सदन की बैठक की अध्यक्षता प्रोटेम स्पीकर या अध्यक्ष करेंगे। संसद की परम्परा है कि अस्थायी अध्यक्ष सबसे वरिष्ठ सांसद होते हैं। इस मामले में उनकी राजनीतिक पार्टी का कोई महत्व नहीं होता। वह विपक्षी पार्टियों में से किसी एक के भी हो सकते हैं और सत्तारूढ़ पार्टी के भी हो सकते हैं। इसे कोई भी राजनैतिक दल नाक का सवाल नहीं बनाता। इसकी वजह यह है कि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति सरकार की सलाह पर केवल तब तक के लिए फौरी तौर पर करते हैं जब तक कि नये अध्यक्ष का विधिवत चुनाव नहीं कर लिया जाता। अध्यक्ष का चुनाव लोकसभा के सदस्य मिलकर ही करते हैं। कांग्रेस पार्टी का दावा है कि सदन की परंपरा के अनुसार उनकी पार्टी के केरल से जीत कर आए सांसद श्री के. सुरेश को यह पद दिया जाना चाहिए था क्योंकि वह आठ बार के सांसद हैं परन्तु सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने ही दल के एक बार कम जीत कर आये सांसद श्री भृतहरि मेहताब को इस पद पर राष्ट्रपति द्वारा चुनवा दिया गया है। के. सुरेश का नाम उनकी सहायता करने वाले मंडल में है। श्री मेहताब प्रख्यात कांग्रेसी नेता ओडिशा के मुख्यमन्त्री रहे स्व. डा. हरे कृष्ण मेहताब के सुपुत्र हैं औऱ लगातार अभी तक एक चुनाव भी नहीं हारे हैं।

मगर श्री सुरेश से वह एक पायदान नीचे हैं। इस मामले में नवनियुक्त संसदीय कार्यमन्त्री श्री किरण रिजीजू का कहना है कि सरकार ने श्री मेहताब के नाम की संस्तुति करके कोई गलती नहीं की है क्योंकि श्री सुरेश बेशक उनसे एक बार ज्यादा सांसद चुने गये हैं मगर उनकी जीत लगातार नहीं हुई है। वह 1998 व 2004 में चुनाव हार गये थे। रिजीजू ने इस बारे में ब्रिटिश संसद की परंपरा का उदाहरण दिया है कि लगातार सर्वाधिक बार जीतने वाले सांसद को ही प्रोटेम स्पीकर बनाया जाना चाहिए। कांग्रेस को इस पर आपत्ति है और उसका कहना है कि मेहताब के मुकाबले श्री सुरेश वरिष्ठ हैं। वैसे सत्ता पक्ष के आठ बार के सांसद श्री वीरेन्द्र कुमार भी हैं मगर वह मोदी सरकार में मन्त्री बनाये जा चुके हैं। सवाल यह उठता है कि प्रोटेम स्पीकर का कार्य क्या होगा जबकि 26 जून का दिन नये अध्यक्ष के चुनाव के लिए नियत हो चुका है। उनका काम केवल यह होता है कि वह नये चुने गये सांसदों को सदन के भीतर संविधान की शपथ दिलायेंगे। प्रोटम स्पीकर को यह शपथ राष्ट्रपति दिलायेंगी। पहले स्वयं सदस्यता की शपथ लेने के बाद प्रोटम स्पीकर अध्यक्ष के आसन पर बैठेंगे और फिर दो दिन के भीतर सभी शेष 542 सांसदों को शपथ दिलायेंगे। इसके बाद उनकी जिम्मेदारी पूरी हो जायेगी क्योंकि 26 जून को नये अध्यक्ष का चुनाव हो जायेगा। अतः इस पद पर किसी प्रकार का विवाद नहीं होना चाहिए था। ऐसा विवाद संसद के इतिहास में पहली बार हो रहा है।

इससे पिछला संसदीय इतिहास देखा जाये तो प्रोटेम स्पीकर को लेकर सत्ता व विपक्षी खेमा कभी आमने-सामने नजर नहीं आया। जब 2019 में 17वीं लोकसभा का गठन हुआ था तो सबसे वरिष्ठ सांसद भाजपा की श्रीमती मेनका गांधी थीं मगर उन्होंने प्रोटेम स्पीकर बनने से इन्कार कर दिया था। तब श्री वीरेन्द्र कुमार को इस पद पर बैठाया गया था हालांकि श्री सुरेश भी श्री वीरेन्द्र की तरह श्रीमती गांधी से एक बार कम के सांसद थे। उससे पहले 2014 में कांग्रेस के नेता श्री कमलनाथ को इस पद पर उनकी वरिष्ठता की वजह से बैठाया गया था। संसद की कार्यवाही का आगाज यदि सर्वत्र सौहार्दपूर्ण माहौल में होता तो बहुत उत्तम होता और सरकार को यह न सुनना पड़ता कि श्री सुरेश को इसलिए प्रोटेम स्पीकर नहीं बनाया गया क्योंकि वह दलित समुदाय से आते हैं। इसके लिए संसदीय कार्यमन्त्री यदि विपक्षी नेताओं से सलाह- मशविरा कर लेते तो इसमें उनका बड़प्पन ही झलकता क्योंकि प्रोटेम स्पीकर का पद कोई ऐसा पद नहीं है जिस पर अकारण ही मनमुटाव पैदा किया जाये। संसद सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सहयोग से ही चलती है वरना इसमें किये गये फैसले एक पक्षीय माने जाते हैं जैसा कि भारतीय दंड संहिता कानूनों को पिछली लोकसभा में पारित करते हुए कहा गया था। दंड संहिता से सम्बन्धित तीन विधेयकों को तब पारित किया गया था जब सदन से विपक्ष के 146 सांसदों को निलम्बित कर दिया गया था। हकीकत यह है कि पिछली लोकसभा के अनुभव बहुत कड़वे कहे जा सकते हैं। ऐसा ही माहौल राज्यसभा में भी था। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया के अनुसार लोकतन्त्र लोकलज्जा से चलता है। जिसके अनुसार सत्तारूढ़ दल को सर्वदा लोकलाज का ध्यान रखना चाहिए और विपक्ष को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति जागृत करनी चाहिए।

दूसरी तरफ विपक्ष को भी केवल विरोध के लिए विरोध नहीं करना चाहिए। मगर हम देखते आ रहे हैं कि संसद में गतिरोध का पैदा होना सामान्य घटना हो चुकी है। नई लोकसभा में सभी पक्ष के सांसदों का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वे जनता की आवाज को बुलन्द करने के लिए छोटे-छोटे विवादों काे बड़ा न होने दें। मुख्य रूप से यह कार्य संसदीय मन्त्री का ही होता है कि वह विपक्ष के साथ तालमेल करके संसद की कार्यवाही को निर्बाध गति से चलने योग्य बनायें। वैसे यह भी सत्य है कि लोकतन्त्र में संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है क्योंकि विपक्ष सरकार को जन भावनाओं से अवगत कराने का पुनीत कार्य करता है और सरकार को सचेत करता है कि उसकी नीतियों और निर्णयों का आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसीलिए संसद में किसी भी प्रस्ताव या संकल्प अथवा विधेयक पर बहस कराने की प्रथा है। ये परंपराएं और नियम ही हमारे लोकतन्त्र को सदैव लोकोन्मुखी रखते हैं। अतः संसद जब चालू हो तो पूरे देश को लगना चाहिए कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि अपने-अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हैं।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com