एक समय था जब ब्रिटेन ने भारत को गुलामी की जंजीरों में कैद करके रखा था मगर उस समय भी पंजाब पर कब्जा करने में उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था और महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद ही पंजाब को अपने कब्जे में ले पाए थे। देश की आजादी के बाद भारतीय मूल के पंजाबीयों ने विदेशों का रुख किया और आज हालात ऐसे बन चुके हैं कि विदेशों में पंजाबियों ने अपने दम पर पंजाबी और खासकर सिख समुदाय के लोग उच्च पदों पर रहने के साथ साथ वहां की सरकारों में भी भागीदार बनकर देश को गौरवांवित कर रहे हैं।
हाल ही में ब्रिटेन में हुए चुनावों में 11 पंजाबी जीतकर आए जिसके चलते समूचे पंजाबियों का सिर गर्व से उंचा हुआ है। हालांकि ब्रिटेन की सरकार में किसी पंजाबी को शामिल ना किये जाने से समाज कुछ हद तक आहत भी हुआ है। मगर जो भी हो ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने सिखों को नुमाईदगी तो दी है इससे भारतीय राजनीतिक पार्टियों को भी सीख लेनी चाहिए और पंजाब से बाहर भी सिख बहुमूल्य क्षेत्रों में सिख चेहरों पर भरोसा जताते हुए उन्हें आगे आकर जनता की सेवा करने का मौका देना चाहिए।
पंथक सोच को तिलांजलि देता अकाली दल
शिरोमणि अकाली दल का गठन 1920 में पंथक हितों पर पहरा देने हेतु किया गया और तब से लेकर आज तक अकाली दल ने देश ही नहीं विदेशों में भी अगर सिखों का कोई मसला बना तो उस पर डटकर पहरा दिया और मसलों का समाधान करवाया गया। इसी के चलते कई बार अकाली नेताओं की देश की सरकार से तकरार की स्थिति भी बनीं और अंत में सरकारों को आखिरकार झुकने के लिए मजबूर होना पड़ा। एमरजेंसी के समय भी अकाली नेताओं ने सबसे पहले इसके विरोध में आवाज उठाई और कई महीनों तक जेलों में बंद रहकर मोर्चा लगाए रखा। अगर फ्रांस में सिखों की पगड़ी पर पाबंदी लगी तो फ्रांसिसी सरकार को पाबंदी हटाने के लिए मजबूर किया। मगर धीरे-धीरे अकाली नेताओं की सोच में बदलाव आता गया।
अकाली दल की कमान एक ऐसे परिवार के हाथों में आ गई जिसने अकाली दल के साथ अपना नाम जोड़कर उसे पंथक पार्टी के बजाए अपनी पारिवारिक पार्टी बनाकर रख दिया। स्वयं को पंथक कहलाने वाली अकाली सरकार के समय ही अगर देखा जाए तो पंथ का सबसे अधिक नुकसान हुआ। डेरावादियों के वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए उन्हें डेरों के विस्तार की खुली छूट दी गई। ईसाई मिशनरियों ने भी सबसे ज्यादा पैर अकाली सरकार के समय ही पसारे। धीरे-धीरे गैर सिखों को पंथक पार्टी में सदस्यता केवल राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु दी गई जिसका परिणाम यह निकला कि आज पंथ प्रस्त लोग अकाली दल से दूरी बना बैठे। इससे भी बेहद दुख की बात की शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी पर अकाली दल का कब्जा होने के चलते प्रचार की हमेशा कमी देखने को मिली। अगर कमेटी के प्रचारकों ने पंजाब के गांवों में जाकर अपनी जिम्मेवारी निभाई होती तो आज पंजाब में युवा पीढ़ी पतितपुना और नशे की चपेट में ना आई होती।
पंथक सोच से दूर जाना अकाली दल को भारी पड़ा, इसी के चलते अकाली दल की 2017 से लगातार हार हो रही है। इस बार खडूर साहिब और फरीदकोट में दो पंथक चेहरे चुनाव मैदान में आजाद उम्मीदवार के तौर पर खड़े हुए, अगर अकाली दल उनके खिलाफ उम्मीदवार ना उतारता तो शायद अकाली दल को अन्य सीटों पर भी पंथक वोट मिल जाते मगर अकाली दल ने बाकायदा दोनों सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर पंथक उम्मीदवारों को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ी, परिणाम सबके सामने है। अकाली दल आज पंजाब में पूरी तरह से हाशिये पर आ चुका है। उधर दिल्ली में अकाली दल से अलग होकर शिरोमिण अकाली दल दिल्ली स्टेट बनाने वाले हरमीत सिंह कालका, जगदीप सिंह काहलो जिन पर भाजपा के समर्थन से दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी चलाने के आरोप निरन्तर लगते रहते हैं, उनके द्वारा फरीदकोट से सांसद सरबजीत सिंह और अमृतपाल सिंह के पिता का सम्मान करके साबित कर दिया कि दिल्ली के अकाली नेताओं की सोच आज भी पंथक है। उनका यह भी मानना है कि केन्द्र की सरकार से बेहतर सम्बन्ध होने के चलते पंथक मुद्दों का समाधान भी करवाया जा सकता है। वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है पंजाब के अकाली नेताओं से उलट चलते हुए दिल्ली के अकाली नेताओं ने हमेशा केन्द्र की सरकारों से सम्बन्ध बेहतर बनाकर रखे हैं।
अकाली दल में बगावत
शिरोमणि अकाली दल बादल में आज बगावत देखी जा रही है, एक गुट ऐसा निकल कर आया है जो सुखबीर सिंह बादल के इस्तीफे की मांग को जोर शोर से उठाता दिख रहा है तो दूसरा मानता है कि सुखबीर सिंह बादल ही पार्टी को बेहतर तरीके से चला सकते हैं। हालांकि बगावत में वही लोग आवाज उठा रहे हैं जिन्होंने चुनाव से पूर्व भी पार्टी हाई कमान पर भाजपा से गठबंधन के लिए दबाव बनाया था यां फिर अपने निजी स्वार्थ के लिए पार्टी को अलविदा कहकर चले गये थे। सुखबीर सिंह बादल के समर्थन में जो नेता हैं उनमें से कुछ एक उनके ऐसे चापलूस सलाहकार हैं जिन्होंने विरोधियों से अन्दर खाते हाथ मिलाकर पार्टी को हमेशा नुकसान पहुंचाया।
मगर आज भी सुखबीर सिंह बादल का उनकी सलाह से से चलना भी बगावत का मुख्य कारण बना है। शिरोमणी अकाली दल दिल्ली इकाई के अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना की मानें तो सुखबीर सिंह बादल के अलावा पार्टी में ऐसा कोई और चेहरा नहीं है जो पार्टी की कमान संभाल सके मगर जो गल्तियां पिछले समय में हुई हैं उन्हें दूर कर सुधार करना अति आवश्यक है। पार्टी पुरानी पंथक नीतियों को अपनाकर अगर संगत को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाती है कि अकाली दल गल्तियों से सबक सीख चुका है और भविष्य में पंथक हितों पर पहरा देने में सक्षम है तो हो सकता है कि आने वाले समय में फिर से अकाली दल अपनी पंथक पहचान बनाने में कामयाब हो जाए, वरना उसका अस्तित्व पूरी तरह से खतरे में है।