संपादकीय

राहुल की यात्रा और कमलनाथ

Shera Rajput

राहुल गांधी की न्याय यात्रा को लेकर कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं में शुरू से ही विवाद रहा है क्योंकि कुछ पुराने घाघों का मानना था कि एक ही चीज को बार-बार करने से उसका प्रभाव कम हो जाता है। वहीं दूसरी ओर नवोदित नेताओं की मान्यता थी कि वर्ष 2022 में भारत जोड़ो यात्रा को जो समर्थन दक्षिण से उत्तर तक मिला था वैसा ही पूर्व से पश्चिम की यात्रा को भी मिलना चाहिए। मगर राहुल गांधी की यात्राओं का चुनाव पर कितना असर हो रहा है इसका प्रमाण कुछ नेता पांच राज्यों में हुए पिछले चुनाव परिणामों में देख रहे हैं। पिछली बार राहुल की यात्रा मध्य प्रदेश के 19 विधानसभा चुनाव क्षेत्रों से गुजरी थी मगर चुनावों में इनमें से 16 में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हो गई औऱ तीन में भी उसे जहां सफलता मिली वहां स्थानीय प्रत्याशियों की अपनी मेहनत थी। यह किस्सा मध्य प्रदेश में बहुत आम हो रहा है।
दरअसल मध्य प्रदेश विधानसभा का सत्र शुरू होने पर जब कांग्रेसी विधायक अपने नेता श्री कमलनाथ से मिलने गये तो उन्होंने इसका खुलकर वर्णन किया और इच्छा प्रकट की कि लोकसभा चुनावों को देखते हुए राहुल जी को चुनाव क्षेत्रों में जाकर प्रचार करने पर जोर देना चाहिए था न कि यात्रा करने पर। मगर कांग्रेस के नवोदित नेता इस विचार से सहमत नहीं हैं और वे राहुल जी की यात्रा को गैर राजनैतिक तक बता रहे हैं। यह तर्क पूरी तरह हास्यास्पद लगता है क्योंकि राहुल जी अपनी पूरी यात्रा में राजनैतिक विमर्शों पर ही बातचीत करते हैं और उनका लक्ष्य लोकसभा चुनाव ही रहते हैं।
मध्य प्रदेश के नव निर्वाचित विधायकों की राय में यदि राहुल जी राज्यवार हिसाब से चुनाव सभाओं औऱ रैलियों को सम्बोधित करने में पिछले दो महीने बिताते तो पूरे देश में कांग्रेस के राजनीतिक विमर्श को जनता के बीच जमने में मदद मिलती। विधायकों ने यह 19 व 16 वाली कहानी जब श्री कमलनाथ को बताई तो उन्हें चिन्ता हुई और उन्होंने छिन्दवाड़ा में अपने चुनाव क्षेत्र में जाने का कार्यक्रम बनाया। यह कमलनाथ का प्रभाव ही है कि इस जिले की सातों विधानसभा सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी विजयी हुए। पूरे राज्य में केवल छिन्दवाड़ा ही एेसा जिला है जहां कांग्रेस को यह शानदार सफलता भाजपा की मोदी लहर के बावजूद मिली। मगर जब उनके विधायकों ने यह कहा कि क्षेत्र में विकास कार्य के लिए भाजपा पर ही निर्भर रहना पड़ेगा क्योंकि भाजपा की मोहन यादव सरकार चुन-चुन कर कांग्रेस प्रभावित क्षेत्रों से अलग- थलग रही है। उन्हें कांग्रेसियों में भाजपा में जाने की ललक दिखाई पड़ी और वह चौकन्ने हुए। इस बीच उनके भाजपा में प्रवेश की खबरें उड़ने लगीं। भाजपा भी उनका दोनों हाथ फैला कर स्वागत करती लग रही थी। इस पार्टी को लग रहा था कि कमलनाथ के भाजपा में आने से पूरे मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के इलाके में तो प्रभाव पड़ेगा ही मगर सबसे ज्यादा असर राष्ट्रीय स्तर पर होगा।
कमलनाथ का राष्ट्रीय राजनीति में अपना रूतबा है और विचारों से वह राष्ट्रवादी व सांस्कृतिक परिकल्पना के बहुत निकट माने जाते हैं, कुछ लोग उनकी तुलना एक जमाने में कांग्रेस के नेता डा. रघुबीर से भी करते हैं जो पचास के दशक में नेहरू मन्त्रिमंडल से इस्तीफा देकर जनसंघ में शामिल हो गये थे। कुछ लोग उन्हें कांग्रेस का पुरुषोत्तम दास टंडन मानते हैं जो हिन्दू व हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। मगर उनके भाजपा में जाने की खबरों से कांग्रेसी नेताओं में हड़कम्प मच गया। इसका प्रमुख कारण यह था कि वह गांधी परिवार के सबसे निकट के नेता माने जाते हैं। उनके भाजपा में जाने से इस परिवार का बचा-खुचा रुतबा भी प्रभावित हो सकता था। मगर आश्चर्यजनक रूप से भाजपा ने यह स्वर्ण अवसर अपनी कुछ आशंकाओं के चलते गंवा दिया। यदि कमलनाथ भाजपा में जाते तो न केवल मध्य प्रदेश बल्कि देशभर में भाजपा के पक्ष में तेज हवा बनने में मदद मिलती।
वह आर्थिक मोर्चे पर भाजपा के लिए बहुत ज्यादा कारगर सिद्ध होते क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के दौर में गरीबों को मदद पहुंचाने की उनकी परिकल्पना बहुत असरदार मानी जाती है। वह आधुनिकतम टैक्नोलॉजी के साथ बदलते समय की तस्वीर को ढालने में भी सिद्धहस्त माने जाते हैं। राज मार्गों पर टोल टैक्स देने की प्रथा को टैक्नोलॉजी से जोड़कर 'फास्ट टैग' शुरू करने की व्यवस्था उन्हीं के सड़क-परिवहन मन्त्री रहते शुरू हुई थी। वह प्रधानमन्त्री मोदी की विकास दृष्टि के कई मायनों में बहुत करीब माने जाते हैं। मगर भाजपा में कुछ एेसे लोगों ने उन्हें सिख दंगों में संलिप्त बताने का प्रयास किया जिनकी पृष्ठभूमि भाजपा की जगह अन्य दलों की है। ये चन्द कनिष्ठ नेता इस मामले में ब्लैकमेल करने की नीतियों पर चलते हैं।
सिख दंगों की जांच के लिए भाजपा की वाजपेयी सरकार के दौरान श्री लाल कृष्ण अडवानी के गृहमन्त्री रहते 'नानावती आयोग' गठित किया गया था। इस आयोग ने श्री कमलनाथ को क्लीन चिट देते हुए कहा था कि उनकी किसी भी प्रकार की कोई भूमिका सिख दंगों में नहीं पाई गई। इसके बावजूद कुछ छुटभैय्ये नेता उनके विरुद्ध दुष्प्रचार करते रहते हैं। कमलनाथ इस बारे में यही कहते हैं कि सारे तथ्य जनता के सामने हैं व इस बारे में सत्य सबके समक्ष है। कुछ लोग स्वयं को न्यायपालिका से भी ऊपर मानते हैं। मगर कमलनाथ के गढ़ छिन्दवाड़ा में अभी तक कम से कम डेढ़ हजार कांग्रेसी कार्यकर्ता भाजपा में प्रवेश कर चुके हैं। यह सब उनके भाजपा में जाने की अफवाहों के समानान्तर ही तब हुआ जब मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री मोहन यादव स्वयं छिन्दवाड़ा में डेरा डाल कर पड़े रहे थे। ​छिन्दवाड़ा से कमलनाथ के सुपुत्र नकुलनाथ कांग्रेस के टिकट पर सांसद हैं। उनके भी भाजपा में जाने की खबरें थीं। भाजपा इस इलाके में अपना असर दिखाने की कोशिश में है मगर कमलनाथ के वरदहस्त के बिना यह संभव दिखाई नहीं देता है।
राहुल गांधी व कांग्रेस आलाकमान इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। छिन्दवाड़ा के लोग ही एक बारगी कमलनाथ पर जोर डाल रहे थे कि यदि वह उनके क्षेत्र का विकास चाहते हैं तो उन्हें भाजपा में जाना चाहिए। मगर भाजपा के प्रादेशिक नेताओं में कमलनाथ के कद को देखते हुए हड़कम्प मच गया। वे सोचने लगे कि यदि कमलनाथ भाजपा में आते हैं तो उनकी पगड़ी ही कहीं ढीली न हो जाये क्योंकि विचारों से कमलनाथ राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व की मानववादी सोच के इतने करीब हैं कि उन्होंने मुख्यमन्त्री रहते सबसे ज्यादा जोर गौशालाएं बनवाने पर ही दिया था। कांग्रेस भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहती है क्योंकि उनकी यही सोच उन्हें कांग्रेस का हिन्दुत्ववादी चेहरा भी बनाती है। राहुल गांधी अपनी न्याय यात्रा में जो मुद्दे उठा रहे हैं उनसे उनके चारों तरफ घेरा डाले कांग्रेस के नवोदित नेताओं की सोच नजर आती है जबकि कमलनाथ जैसे नेता यह मानते हैं कि भारत की राजनीति इस देश की सांस्कृतिक आत्मा के चारों तरफ रहने से सभी हिन्दू- मुसलमानों में भाईचारे का भाव जगाया जा सकता है।

– राकेश कपूर