संपादकीय

राम रहीम : राजनीति का रसूख

Aditya Chopra

राजनीति का रसूख अगर जानना हो तो रोहतक की सुनारिया जेल में बंद डेरा सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम से बेहतर कोई नहीं जानता होगा। बलात्कार से लेकर हत्या जैसे अपराधों में दोषी करार दिए जाने के बाद भी राम रहीम के पैरोल पर बाहर आने का सिलसिला लगातार जारी है। एक बार फिर राम रहीम की पैरोल की याचिका को शर्तों के साथ मंजूरी दे दी गई है। चुनाव आयोग ने शर्तें लगाई हैं कि पैरोल के दौरान गुरमीत राम रहीम हरियाणा में दाखिल नहीं हो सकेगा। न ही किसी भी तरह के चुनाव प्रचार में शामिल हो सकेगा। राम रहीम ने हरियाणा चुनावों से पहले 20 दिन की पैरोल मांगी थी। आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण राज्य सरकार ने पैरोल का अनुरोध मुख्य चुनाव ​अधिकारी काे भेजा था। मुख्य चुनाव अधिकारी ने दोषी की पैरोल के लिए आक्सिमक और बाध्यकारी परिस्थितियों की जानकारी मांगी थी।
आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है कि राम रहीम को बार-बार पैरोल दी जा रही है। राम रहीम पहली बार साल 2020 में 24 अक्तूबर को एक दिन के लिए पैरोल पर बाहर आया था। इसके बाद 2021 में 21 मई को एक दिन के​ लिए पैरोल पर आया। वहीं पंजाब चुनाव के दौरान 7 फरवरी, 2022 को उसे 21 दिन की पैरोल मिली थी। इसके बाद 2022 में ही 17 जून को 30 दिन के लिए बाहर आया था तब हरियाणा में नगर निगम के चुनाव थे।
आदमपुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव के दौरान राम रहीम 14 अक्तूबर, 2022 को 40 दिन के लिए पैरोल पर बाहर आया था। हरियाणा के पंचायत चुनाव के दौरान साल 2023 में 21 जनवरी को वह पैरोल पर आया था। फिर हरियाणा पंचायत चुनाव में 20 जुलाई को 30 दिन के लिए पैरोल मिली। साल 2023 में राजस्थान चुनाव के दौरान 21 नवंबर को राम रहीम को 21 दिन की पैरोल मिली थी। वहीं लोकसभा चुनाव के दौरान साल 2024 में 20 जनवरी को 50 दिन की पैरोल मिली। हाल ही में 13 अगस्त को राम रहीम को 21 दिन की पैरोल मिली थी।
ऐसे लगता है कि सत्ता को भगवान राम की नहीं रहीम की ​चिंता है। इसलिए बार-बार राजनीति की पिटी हुई लकीर दोहराई जा रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सब कुछ वोट हासिल करने के लिए ही किया जा रहा है। आखिर कौन है जिसके चलते न्याय तंत्र को ही धत्ता दिया जा रहा है। 4 साल में 255 दिन की पैरोल हैरान कर देने वाली है। साफ जाहिर है कि वोटों की लहलहाती फसल को कौन काटने को अतुर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि राम रहीम के लाखों भक्त ऐसे हैं जो उनके एक इशारे पर पुरा चुनाव प्रभावित कर सकते हैं।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी ने प्रदेश का मुख्यमंत्री बदल कर यह उम्मीद बांधी थी कि इसी के सहारे लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में उसकी नैया पार लग जाएगी। नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी को लग रहा था कि पिछड़ों का समीकरण उसे चुनाव में जीत दिला देगा लेकिन चुनाव प्रचार जब आगे बढ़ा तो इन उम्मीदों पर पानी फिरता दिखाई दिया। लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही बराबर 5-5 सीटें मिलीं। वोट प्रतिशत को पहली नजर में देखें तो लग सकता है कि भाजपा को कांग्रेस से कुछ ज्यादा वोट मिले लेकिन सच यह है कि कांग्रेस ने सिर्फ नौ सीटों पर ही चुनाव लड़ा था। कुरुक्षेत्र की सीट पर उसने आम आदमी पार्टी का समर्थन किया था। अगर उन वोटों को भी कांग्रेस के खाते में जोड़ दिया जाए तो प्रतिशत के मामले में कांग्रेस भाजपा से आगे पहुंच जाती है।
डेरा सच्चा सौदा का मुख्यालय हरियाणा के सिरसा जिले में है। यह उनके असर का सबसे बड़ा इलाका भी है। इसके अलावा पंजाब के मालवा इलाके और राजस्थान व पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी उनका प्रभाव बताया जाता है। हम पहले सिरसा को ही लेते हैं। यह धारणा है कि कुछ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा के अनुयाई भाजपा को वोट डाल रहे थे लेकिन जब नतीजे आए तो कांग्रेस की कुमारी शैलजा ने वहां भाजपा उम्मीदवार को दो लाख 68 हजार से भी ज्यादा वोटों से हराया। एक दूसरा उदाहरण पंजाब के शिरोमणि अकाली दल का है। 2017 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल ने गुरमीत राम रहीम से काफी उम्मीद बांधी थी। प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल ने उनसे मुलाकात भी की थी। यही नहीं, बादल के असर में सिखों के धार्मिक नेतृत्व ने भी राम रहीम के खिलाफ दिए गए फैसले को वापस ले लिया था। नतीजा यह हुआ कि अकाली दल आज तक पंजाब की सत्ता में लौट नहीं पाया। हालत यहां तक पहुंच गई है कि सुखबीर सिंह बादल को इसके लिए अकाल तख्त में हाजिर होकर माफी भी मांगनी पड़ी है।
कौन नहीं जानता कि भारत की जेलों में लाखों कैदी ऐसे हैं जिन्हें एक अदद पैरोल भी नहीं मिलती। लाखों कैदी ऐसे हैं जो अपने लिए जमानत तक के लिए प्रबंध नहीं कर पाते और छोटे-मोटे अपराधों में सालों से जेल में बंद हैं जबकि बलात्कारी आैर हत्यारे को बार-बार फरलो दी जा रही है। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट भी इस मामले में आपत्ति जता चुका है। कैदियों को पैरोल देने का मामला राज्य सरकारों का है। राजनीतिक नफा-नुक्सान देखकर राम रहीम पर फुल कृपा की जा रही है। देखना होगा कि इस बार हरियाणा विधानसभा चुनावों में राम रहीम का वोट बैंक क्या रंग दिखाता है।