इस बार 24 अप्रैल को एक ऐसे महान साहित्यकार की 50वीं पुण्य तिथि है जिसके प्रशंसकों में प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी, देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री नेहरू भी थे। तत्कालीन भारतीय जनसंघ के शिखर नेता नानाजी देशमुख भी, समाजवादी आंदोलन के युग पुरुष जयप्रकाश नारायण भी और एक्सप्रैस समूह के संस्थापक रामनाथ गोयनका भी शामिल थे। प्रासंगिक प्रश्न यह है कि क्या ऐसी कद्दावर शख्सियत को 'भारत-रत्न' मिल पाएगा?
इस बार नई दिल्ली का मैदान एक अनूठे समारोह का इतिहास रचने जा रहा है। यह इतिहास किसी सियासी दल की रैली का इतिहास नहीं, बल्कि राजनीति के निरंतर बढ़ते शोरोगुल में भाषा व साहित्य के सकारात्मक दखल से जुड़ा है। आगामी 24 अप्रैल को रामलीला मैदान में हजारों की संख्या में लोग एक स्तर में राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की कृति 'रश्मिरथी' का पाठ करेंगे। शायद विश्व के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है।
अवसर है 'दिनकर' जी की 50वीं पुण्यतिथि का। यहां सामान्य पाठक को यह भी बता देना आवश्यक लगता है कि आपातकाल से पूर्व दिनकर जी की एक ऐतिहासिक कविता 'सिंहासन खाली करो जनता आती है', वस्तुत: जन-जन की आवाज बन गई थी। यह आयोजन 'दिनकर स्मृतिन्यास' की ओर से किया जा रहा है। इस न्यास के संयोजक दिनकर जी के पौत्र श्री ऋत्विक उदयन हैं। ऋत्विक के पिता केदारनाथ सिंह भी हिन्दी कविता के महान हस्ताक्षर थे।
यह वही दिन थे जब लगभग 50 वर्ष पूर्व दिनकर जी ने अपने इस काव्य का तिरुपति मंदिर के परिसर में एक विशेष मंच से पाठ किया था। घटना 50 वर्ष पुरानी है। इस कविता पाठ में तत्कालीन भारतीय जनसंघ के नेता नाना जी देशमुख, एक्सप्रैस समूह के रामनाथ गोयनका व समाजवादी नेता अच्दुत हर्षवर्धन भी मंदिर परिसर में पहुंचते थे।
राष्ट्रकवि दिनकर उन दिनों मानसिक दबाव में थे और उदास-उदास से रहते थे। वह 'कुरुक्षेत्र' और हुंकार वाले दिनकर नहीं थे। यह 'हारे को हरिनाम' वाले दिनकर थे। सांसद तब भी थे, एकाएक अपने एक मित्र सांसद गंगा शरण सिंह से बोले, 'तिरुपति जाने का मन है। साथ चलोगे?' सांसद मित्र ने सहर्ष हामी भर दी, मगर पूछा, 'मन में क्या चल रहा है मेरे प्रिय भाई।'
बोले, एक तो लगता है जेपी ठीक नहीं चल रहे। उनकी इस समय देश को आवश्यकता है। उनके लिए प्रार्थना करेंगे। दूसरे मेरा मन है एक बार तिरुपति में जाकर 'रश्मिरथी' का पाठ करूं। उनके जाने की बात का इंडियन एक्सप्रैस के श्री रामनाथ गोयनका, नाना जी देशमुख और अच्युत पटवर्धन को पता चला। तय हुआ कि सभी लोग एक साथ जाएंगे। वहां दिनकर जी ने तिरुपति बालाजी के समक्ष अपनी सार्वजनिक प्रार्थना में मुखर स्वरों में यही मांगा कि 'तिरुपति भगवान, मेरी आयु में से कुछ वर्ष ले लो, मगर जेपी को लम्बी आयु दो। इस समय देश को उनके नेतृत्व की परम आवश्यकता है।' उसके बाद विशेष रूप से आयोजित मंच से दिनकर जी ने रश्मिरथी का पाठ किया। उस दिन तिरुपति में आयोजकों ने नगर में कई स्थान पर माइक भी लगवा दिए थे ताकि वह ऐतिहासिक काव्यपाठ उनके अन्य प्रशंसक भी सुन सकें।
श्री दिनकर, नेहरू परिवार लोहा लेते रहे। उन्होंने कभी किसी राजनेता की जय-जयकार नहीं की। उनके लिए किसी भी नेता से ज्यादा महत्वपूर्ण देश और देश की संस्कृति रही। उनके अंदर देश प्रेम की भावना नदी में बहने वाले पावन जल की तरह थी। उन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाले सैनिकों के लिए लिखा
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल
दिनकर ने स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक पर अपनी कलम चलाई। एक प्रसंग ऐसा ही है जब संसद की सीढि़यों से उतरते हुए नेहरू लड़खड़ा गए। तब दिनकर ने उनको सहारा दिया। इस पर नेहरू ने कहा -शुक्रिया…, दिनकर तुरंत बोले -'जब-जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा।
दिनकर ने यही तेवर ताउम्र बरकरार रखा। जब देश में आपातकाल लगा और सभी अपनी-अपनी कलम सत्ता के आगे झुका रहे थे, ऐसे वक्त में भी दिनकर ने क्रांतिकारी कविता लिखी
टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे !
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूं आग सखे!
ऐसा ही एक प्रकरण उस वक्त का है जब वह अंग्रेज़ी सरकार की नौकरी कर रहे थे। उस दौरान भी वह ब्रितानिया सरकार के खिलाफ कविता लिखते थे। उनके विरोध के कारण महज चार साल की नौकरी में दिनकर का 22 बार तबादला हुआ। एक बार जब उनको 'हुंकार' काव्य संग्रह के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत ने बुलाया और पूछा कि इसको लिखने से पहले उन्होंने इजाज़त क्यों नहीं ली तो दिनकर ने कहा, मेरा भविष्य इस नौकरी में नहीं, साहित्य में है और इजाज़त लेकर लिखने से बेहतर मैं यह समझूंगा कि मैं लिखना छोड़ दूं।
सत्ता के खिलाफ जो कवि होता है वह समाज के साथ होता। दिनकर भी ऐसे ही थे। वह राष्ट्रकवि भी थे और जनकवि भी थे। उन्होंने ऐसे वक्त में जब देश की जनता परेशान थी और सत्ता की तरफ से सताई गई थी, ऐसे वक्त में जो सुविधाभोगी बने रहे उनको दिनकर ने कविता में फटकार लगाई।
इकबाल, टैगोर, मार्क्स और गांधी सब उनकी लेखनी में मौजूद हैं।
दिनकर को लेकर एक बहस हमेशा चलती रहती है कि उनकी लेखनी इकबाल के करीब है या टैगोर के। मार्क्स से प्रभावित है या गांधी से, लेकिन जिन्होंने उनकी कविता 'रोटी और स्वाधीनता' पढ़ी है, उन्हें मालूम है कि दिनकर की लेखनी में इकबाल भी आते हैं और टैगोर भी। यहां मार्क्स भी हैं और गांधी भी हैं। जाते-जाते उनकी रश्मिरथी की दो अन्य पंक्तियां-
विक्रमी पुरुष लेकिन, सिर पर चलता न छत्र पुरखों का धर,
अपना बल-तेज जगाता है, सम्मान जगत से पाता है।