संपादकीय

राम से बड़ा है राम का नाम

Shera Rajput

भारत में अब लोकसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है जिसके दो समानान्तर विमर्श भी हमारे सामने निखर कर आ रहे हैं। एक विमर्श अयोध्या का है जहां भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई है और दूसरा विमर्श राहुल गांधी का है जो आजकल अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकले हुए हैं। पहले अयोध्या के विमर्श में राम के साकार रूप में समूचे भारत को रामराज के एक धर्मसूत्र से बांधने का प्रयास है जबकि दूसरे विमर्श में भारत की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था में न्याय को स्थापित करने करने की लक्ष्य है।
राम राज में न्याय को अन्तर्निहित माना जाता है परन्तु सरकार धार्मिक स्वरूप प्रमुख है जबकि दूसरे विमर्श में धर्म गौण है और केवल दुनियावी व्यवहार ही इसका केन्द्र है। भारतीय जन मानस की दिमागी हालत को देखते हुए दोनों ही विमर्श इसके लिए जरूरी लगते हैं परन्तु राम के विमर्श में भावुक लगाव अधिक है जिससे चुनाव भी प्रभावित हो सकते हैं। जबकि दूसरे विमर्श में तर्क का पुट अधिक है जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की रोजी-रोटी से अधिक है। भारत की जनता धर्म प्राण मानी जाती है अतः धर्म उसके लिए रोटी-रोजी प्राप्त करने और उसका उपभोग करने के दोनों ही उपायों में जन विश्वास का कारण बनता है। इसका कारण अधिसंख्य भारतीय जनता का भाग्यवादी होना भी है जो धर्म का ही एक लक्षण होता है। मगर इसके साथ इसी धर्म प्राण जनता में यह कहावत भी प्रचलित है कि 'भूखे भजन न होय गोपाला- ये ले अपनी कंठी माला।' मगर इसका मतलब पूजा-पाठ से विमुख नहीं है बल्कि यह प्रार्थना है कि जो अपनी पूजा-पाठ चाहेगा वह पेट की भी व्यवस्था करेगा। परन्तु राम को केवल साकार रूप में पूजने वालों का ही यह देश नहीं है बल्कि उसके निराकार या निरंकार स्वरूप को पूजने वालों की संख्या भी भारत में कम नहीं रही है।
दशरथ पुत्र राम का अवतार हिन्दू धर्म की वैष्णव शाखा के दशावतारों में से एक है जबकि ऋग वेद में राम शब्द का अर्थ सर्वत्र श्याम या शान्ति बताया गया है और उपनिषद में राम शब्द का अर्थ आनन्द या हर्ष बताया गया है। कुछ विद्वान अध्येयताओं के अनुसार जिनमें राहुल सांकृत्यायन भी एक हैं मानते हैं कि भारत में राम- राम का अर्थ आनन्द से ही अधिक प्रेरित रहा है। यदि हम वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि भारत में राम- राम कहना दुआ-सलाम का पर्याय पहले से ही क्यों बना। यदि राम का अर्थ आनन्द लिया जाये तो एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को राम- राम कह कर उसके लिए आनन्द की ही कामना करता है जिसमें प्रेम व सौहार्द छिपा हुआ है। यही राम-राम जयराम जी की बना होगा। इसके प्रमाण में सन्त कबीर दास का वह दोहा गिनाया जा सकता है जिसमें राम को प्रेम का पर्याय बताया गया है और सारे ज्ञान का भंडार बताया गया है :-
पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ,
हुआ न पंडित कोय
ढाई आखर प्रेम का पढै़
सो पंडित होय
इसका मतलब यही हुआ कि कबीरदास के समय में भी राम शब्द का प्रयोग लोक व्यवहार का हिस्सा बना हुआ था। कबीर दास का जन्म तुलसी दास से 100 से अधिक वर्ष पूर्व 1308 में हुआ था जबकि तुलसी दास का जन्म 1511 का बताया जाता है। 1518 में कबीर दास की मृत्यु हुई। परन्तु सन्त रविदास का जन्म 1267 और मृत्यु 1335 की बताई जाती है। यहां सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कबीरदास औऱ रैदास ने निरंकार या निराकार राम की उपासना की। इन्हें कुछ विद्वान जैन-बौद्ध साधुओं की श्रमण शृंखला का कवि या भक्त मानते हैं। ये साकार राम की उपासना नहीं करते बल्कि समाजवादी व्यवस्था की वकालत करते हुए हिन्दू-मुस्लिम समाज की वर्जनाओं को सतह पर लाने की बात करते हैं। सन्त रैदास ने अपनी बेगमपुरा महाकाव्य रचना में राजा के राज में समतामूलक समाज की प्रतिस्थापना की है।
इसी प्रकार कबीर ने देश में ऐसी ही व्यवस्था की पैरोकारी की है। मगर भारत में साकार ब्रह्म की पूजा आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म से लोहा लेते हुए स्थापित की थी। हालांकि बौद्ध धर्म का ह्रास दूसरी शताब्दी से ही शुरू हो गया था परन्तु पांचवीं शताब्दी में गुप्त वंश के प्रतापी सम्राट स्कन्द गुप्त ने इसमें कील गाड़ने का काम किया और आज की अयोध्या के उस समय के नाम साकेत को बदल कर अयोध्या रखा और अपनी वंशावली को भगवान रामचन्द्र जी की विरासत से जोड़ने का प्रयास किया। गोस्वामी तुलसी दास ने रैदास के लगभग दो सौ साल बाद श्री रामचरित मानस की रचना की और भगवान राम के चरित्र की लोक मर्यादा के शिखर पुरुष के रूप में स्थापना की और लिखा कि
विप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार
इससे पहले वाल्मीकि रामायण महाकाव्य के रूप में स्थापित थी और धर्म ग्रन्थ की मान्यता इसे बहुत बाद में मिली थी, वास्तव में गोस्वामी तुलसीदास ने ही साकार राम की उपासना को लोकप्रिय बनाया और बनारस से राम लीला मंचन की शुरुआत भी की। अतः राम लीलाओं का प्रचलन भी भारत में पांच सौ साल से अधिक पुराना नहीं है जबकि राम-राम कहना बहुत प्राचीन है।

 – राकेश कपूर