उत्तराखंड के दंगाग्रस्त हल्द्वानी में अब स्थिति सामान्य होती दिखाई दे रही है। हल्द्वानी के हुए दंगे में 6 लोगों की मौत हुई और सैकड़ों लोग जख्मी हुए जिनमें भारी संख्या में पुलिस वाले शामिल थे। उत्तराखंड देश के उन राज्यों में शामिल है जहां हिंसा और दंगों की संख्या काफी कम रही है। 2014 के बाद से एक भी व्यक्ति की मौत साम्प्रदायिक दंगों में नहीं हुई है। एनसीआरबी के आंकड़ों पर नजर डालें तो राज्य में वर्ष 2022 में कुल 915 दंगे दर्ज किए गए जिनमें से मात्र एक दंगा साम्प्रदायिक दंगा था लेकिन 2024 के दूसरे महीने में हल्द्वानी की हिंसा ने पर्यटन के नक्शे पर चमकने वाले खूबसूरत पहाड़ी शहर के दामन पर दाग जरूर लगा दिया है। हल्द्वानी के वनभूलपुरा इलाके में सरकारी जमीन पर कब्जा कर मजार और मदरसा बना लिया गया था। मामला अदालतों तक भी पहुंचा। अदालत के फैसले के अनुरूप नगर निगम के कर्मचारी पुलिस बल के साथ उसे हटाने पहुंचे तो बवाल शुरू हो गया। शहर में कर्फ्यू तक लगाना पड़ा। जिस तरह से हिंसा भड़की उससे स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा भड़की नहीं बल्कि भड़काई गई। यहां दंगा करने के लिए पहले से ही पूरी तैयारी की गई थी। जिहादियों ने जिस तरह पुलिसकर्मियों को निशाना बनाया उसकी कलई खुल चुकी है। जिहादी भीड़ ने पूरी साजिश के साथ वारदात को अंजाम दिया। हिंसा की पूरी प्लानिंग रची गई थी। उपद्रवी प्रशासन और पुलिस की टीम को जला देना चाहते थे। हल्द्वानी में हिंसा की बड़ी तैयारी थी। कांग्रेस की सरकारों में मुस्लिम तुष्टिकरण और पीएफआई जैसे आतंकी संगठनों ने साजिश के तहत बीते कुछ सालों में रोहिंग्या मुसलमानों को उत्तराखंड के मैदान से लेकर पहाड़ तक तेजी से फैलाया है। इससे न सिर्फ सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न हो रहा है बल्कि ये देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए भी खतरा हैं। देवभूमि उत्तराखंड के कई शहरों में कुछ साल पहले मुस्लिम आबादी जहां हजारों में होती थी वहीं अब यह लाखों में पहुंच चुकी है। 2012 के बाद इनकी लगातार बढ़ती संख्या सुरक्षा के साथ ही सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से भी गंभीर संकट उत्पन्न कर रही है।
लोगों ने अपने घरों की छतों पर पत्थर जमा कर रखे थे। भीड़ के हाथों में पैट्रोल से भरी बोतलें थीं। जिनमें आग लगाकर पुलिसकर्मियों पर फैंका गया। थाने और थाने के बाहर खड़े वाहनों को आग लगा दी गई। यद्यपि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए तुरन्त एक्शन लिया लेकिन अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई करने से पहले प्रशासन ने स्थिति का आंकलन करने में चूक कर दी। अब जांच में कई परतें खुलकर सामने आ रही हैं। पिछले वर्ष जनवरी में भी हल्द्वानी के ही एक इलाके में रेलवे की जमीन पर कब्जा कर बसाई गई एक बस्ती को हटाने का अभियान चलाया गया था तब भी जमकर बवाल मचा था। अतिक्रमण हटाने के विरोध में लोग सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गए थे तब शीर्ष अदालत ने इस मामले को मानवीय करार देते हुए बेदखली पर रोक लगा दी थी। हल्द्वानी में कई जगह ऐसी हैं जिन पर लोगाें ने कब्जा किया हुआ है। स्थानीय लोगों का कहना है कि हल्द्वानी ही नहीं रामपुर, नजीबाबाद,बिजनौर और अन्य शहरों में बाहरी लोगों ने सरकारी जमीनों पर कब्जे किए हुए हैं। स्थानीय लोगों को कहना है कि भूमाफिया ने 500 रुपए के स्टाम्प पेपर पर लोगों को सरकारी जमीन बेच दी है। अवैध कब्जे और बस्तियां कोई रातोंरात नहीं उग आई। जाहिर है यह सब भूमाफिया और प्रशासन से सांठगांठ के बिना सम्भव नहीं होता। सवाल यह है कि जब सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा होता है तब क्यों नहीं यह सब जागते हैं। बस्तियां बसने के बाद लोग राशनकार्ड, आधार कार्ड और अन्य कागजात बनवा लेते हैं। जब बस्तियां बस जाती हैं तो सरकारें बिजली-पानी जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध कराती हैं। जब इन बस्तियों को उजाड़ा जाता है तब विरोध होना स्वाभाविक है। देखना यह भी है कि देवभूमि में किसी भी तरह से सांस्कृतिक खतरा उत्पन्न नहीं होना चाहिए। हल्द्वानी की हिंसा के तार रामपुर और कुछ अन्य शहरों से भी जुड़ रहे हैं। पुष्कर सिंह धामी सरकार दंगों के दोषियों को गिरफ्तार कर रही है।
पुलिस ने हिंसा के मास्टरमाइंड अब्दुल मलिक को दिल्ली से गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त की है। हल्द्वानी में मदरसा तो एक बहाना नजर आता है। मकसद हिंसा फैलाना ही नजर आ रहा है। देवभूमि में हिंसा से उत्तेजित न होकर शांति स्थापना के लिए प्रयास करने होंगे और पुलिस और प्रशासन को भी ऐसे कदम उठाने होंगे ताकि बाहरी लोग सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे कर बस्तियां न बसा सकें। धर्मस्थल किसी का भी हो, अवैध रूप से बने अतिक्रमण को कानूनी रूप से हटाया जाना चाहिए लेकिन हिंसा न हो।