संपादकीय

पंजाब में राज्यपाल की भूमिका

Aditya Chopra

भारत में राज्यपाल की संस्था को लेकर शुरू से ही विवाद रहा है। इसकी वजह संविधान में राज्यों के स्पष्ट अधिकारों की व्याख्या और राज्यपाल की संवैधानिक हैसियत के बीच के खाली स्थान को भरने को लेकर है। हाल ही में पिछले दिनों इस सम्बन्ध में दायर मुकदमों का फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो आदेश दिये वे अति महत्वपूर्ण हैं। तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि और मुख्यमन्त्री एम.के. स्टालिन के बीच चला विवाद जब सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था। देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह हुक्म दिया था कि राज्यपाल सम्बन्धित राज्य विधानसभा में पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक के लिए अपने पास नहीं रख सकते हैं। इस मुकदमे के साथ ही पंजाब के राज्यपाल श्री बनवारी लाल पुरोहित की एेसी ही भूमिका को लेकर पंजाब सरकार भी सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। संविधान के हिसाब से राज्यपाल किसी विधेयक से असहमत होने पर उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।
पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने एेसा ही किया। उन्होंने पंजाब विधानसभा द्वारा पारित तीन विधेयकों पर अपनी मुहर लगाने की बजाय उन्हें राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज दिया। राज्यपाल ने जो तीन विधेयक राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के कार्यालय भेजे वे पंजाब विश्वविद्यालय कानून ( संशोधन) विधेयक 2023, सिख गुरूद्वारा ( संशोधन) विधेयक तथा पंजाब पुलिस (संशोधन) विधेयक थे। श्री पुरोहित ने विगत दिसम्बर महीने में ये तीनों विधेयक राज्यपाल के पास भेजे थे जबकि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश विगत 10 नवम्बर 2023 को आया था। इनमें से पंजाब विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक को राष्ट्रपति ने वापस राजभवन लौटा दिया है। अर्थात राष्ट्रपति ने भी अपनी सहमति इस विधेयक को नहीं दी है। इस विधेयक में प्रावधान है कि राज्यपाल राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (चांसलर) नहीं बन सकते। जाहिर है कि राष्ट्रपति ने भी विधेयक को अपनी मंजूरी नहीं दी। इसके साथ ही दो अन्य विधेयक भी उनके पास लम्बित पड़े हुए हैं। संवैधानिक व्यवस्था यह है कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को वापस राज्य सरकार को लौटा देते हैं तो विधानसभा उस पर पुनर्विचार करके पुनः सदन में पारित कर सकती है और तब राज्यपाल को वह विधेयक स्वीकार करना पड़ेगा। मगर श्री पुरोहित ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया और उन्होंने भी इसे अपनी मंजूरी नहीं दी।
पंजाब में विपक्षी आम आदमी पार्टी की सरकार है। अब राज्य सरकार एेसे विकल्प ढूंढ रही है जिससे विधेयक कानून बन सके। विधानसभा द्वारा पारित कोई भी विधेयक तभी कानून बनता है जब राज्यपाल उसे मंजूरी दे देते हैं। यहां सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राज्यपाल की हैसियत क्या होती है? राज्यपाल की मुख्य भूमिका किसी भी प्रदेश में संविधान का पालन देखने की होती है। वह राज्य में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि होते हैं। राष्ट्रपति संविधान के संरक्षक होते हैं। अतः स्पष्ट है कि राज्यपाल यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्यों की सरकार केवल संविधान का पालन करते हुए ही चलें। राज्यपाल का पद चुना हुआ नहीं होता। उनका कार्यकाल तभी तक रह सकता है जब तक कि राष्ट्रपति उनसे प्रसन्न हैं। राष्ट्रपति के खफा होते ही उनकी नियुक्ति रद्द की जा सकती है। किसी भी राज्य में किसी भी राजनैतिक दल की सरकार हो सकती है मगर उसे शासन संविधान का ही देना होता है। राज्य सरकार लोगों द्वारा चुनी गई होती है अतः विधानसभा में बहुमत के आधार पर पारित विधेयकों को जनता की इच्छा ही माना जायेगा।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि संविधान का पालन करते हुए पारित विधेयकों को रोकना क्या लोकतन्त्र में उचित है? परन्तु यह समस्या केवल पंजाब में ही नहीं है बल्कि विपक्षी पार्टियों द्वारा शासित लगभग सभी राज्यों में है। केरल, तमिलनाडु और प. बंगाल में पिछले दो साल से एेसे ही मामले राज्यपालों के साथ चल रहे हैं। इन राज्यों की विधानसभाओं ने भी एेसे ही विधेयक पारित किये हुए हैं जिन्हें राज्यपालों की मंजूरी नहीं मिल रही है। इन राज्यों की राज्य सरकारें भी चाहती हैं कि राज्यपाल पदेन चांसलर न रहें और उनके पास राज्य संचालित विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त करने का अधिकार न रहे। मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी सुनवाई के लिए लम्बित पड़ा हुआ है। विपक्ष द्वारा शासित राज्य सरकारों का मानना है कि राज्यपाल पदेन चांसलर होने की वजह से विश्वविद्यालयों में एक खास विचारधारा के कुलपति नियुक्त कर देते हैं जो कि उन्हें मान्य नहीं है। इनकी राय में विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाया जा सकता है। इस विचार से किसी को परहेज नहीं हो सकता है क्योंकि विश्वविद्यालयों का मुख्य कार्य अपने विद्यार्थियों में तर्क बुद्धि व वैज्ञानिक सोच पैदा करने का होता है। इस सम्बन्ध में हमें सरकारिया आयोग की रिपोर्ट का पुनः अध्ययन करना चाहिए जिसमें कहा गया है कि राज्यपाल और मुख्यमन्त्रियों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए किसी भी राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति मुख्यमन्त्री के साथ विचार-विमर्श करके ही की जानी चाहिए जिससे दोनों के बीच कभी विवाद पैदा न हो सके। हमारे संविधान में राज्यों के अधिकारों की अलग से पूरी सूची है और केन्द्र के अधिकारों की अलग से। हमारे पुरखे बहुत दूरदर्शिता के साथ यह व्यवस्था करके गये हैं।
भारत के संघीय ढांचे की पवित्रता के लिए जरूरी है कि राज्यपाल लोगों द्वारा चुनी गई सरकार के संवैधानिक कार्यों में टांग न अड़ायें और खुद को किसी भी प्रकार के विवाद से दूर रखें। मगर पिछले कुछ सालों से हम उल्टी गंगा बहते देख रहे हैं। लोकतन्त्र में इस प्रकार का गतिरोध का पैदा होना लोगों में विषाद का कारण बन जाता है। इससे राज्यपाल व मुख्यमन्त्री दोनों को ही बचना चाहिए। पंजाब सरकार के अन्य दो विधेयकों को भी राष्ट्रपति के पास भेजकर श्री पुरोहित ने सिद्ध किया है कि वह पंजाब के गुरूद्वारों को गुरुवाणी के सीधे प्रसारण का अधिकार भी नहीं देना चाहते हैं। जहां तक पंजाब पुलिस विधेयक का सवाल है तो इसमें प्रावधान किया गया है कि पंजाब पुलिस के महानिदेशक की नियुक्ति के लिए स्वतन्त्र चयन मंडल का गठन हो।