संपादकीय

सनातन और दक्षिण भारत

दक्षिण के राज्य तमिलनाडु के युवा कल्याण मंत्री श्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म के बारे में जो टिप्पणी की है उसको लेकर उत्तर भारत के हिंदू संगठनों में रोष का वातावरण देखा जा रहा है।

Aditya Chopra
दक्षिण के राज्य तमिलनाडु के युवा कल्याण मंत्री श्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म के बारे में जो टिप्पणी की है उसको लेकर उत्तर भारत के हिंदू संगठनों में रोष का वातावरण देखा जा रहा है। श्री उदयनिधि स्टालिन तमिलनाडु की सरकार पर काबिज पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम की युवा इकाई के महासचिव भी हैं। इस पार्टी का इतिहास सामाजिक गैर बराबरी और जातिवाद के विरुद्ध रहा है। दक्षिण में सामाजिक विषमता को खत्म करने के लिए इस पार्टी का इतिहास बहुत ही प्रशंसनीय रहा है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस पार्टी के लोग सनातन धर्म के बारे में अनाप-शनाप टिप्पणियां करें। उदयनिधि को इस बारे में खुलासा करना चाहिए की सनातन धर्म में जो जातिवाद की व्यवस्था है और पंडित को पूजने का जो विधान है वह उसके विरुद्ध है। समाज में हर व्यक्ति सबसे पहले इंसान होता है और उसके बाद उसकी जाति या वर्ण चिन्हित होता है। सनातन धर्म कितना प्राचीन है या कितना पुराना है सवाल यह नहीं है बल्कि सवाल यह है कि इसकी मान्यताएं क्या है? यदि इस धर्म में मनुस्मृति जैसी पुस्तक को मान्यता दी जाती है तो वह उचित नहीं है क्योंकि इसमें मनुष्यों के बीच वर्ण व्यवस्था लागू करते हुए उन्हें जातियों में बांटा गया है और जन्मजात जाति के आधार पर शूद्र और ब्राह्मण के वर्गों में स्थित किया गया है। इसी के आधार पर उनके कार्य व्यवहार और शिक्षा लेने की विधि भी बताई गई है। शूद्र को केवल समाज की सेवा के कार्यों के योग्य ही समझा गया जबकि ब्राह्मण को ज्ञान का भंडार बताया गया। यह आधुनिक समाज में किसी भी तरीके से स्वीकार्य नहीं हो सकता। महात्मा गांधी से लेकर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और दक्षिण के पेरियार ने इसी व्यवस्था का विरोध किया और शूद्र कहे जाने वाले व्यक्तियों को समाज में ब्राह्मण के बराबर स्थान देने की वकालत करते हुए कहा की ज्ञान जब जन्म से शूद्र पैदा हुआ है व्यक्ति पा लेता है तो वह ब्राह्मण कर्म से विभूषित हो जाता है। जन्म से ना कोई ब्राह्मण है ना शूद्र है। जन्म से प्रत्येक व्यक्ति मानव है और मानव धर्म ही सर्वोच्च है। अतः उदय निधि को अपनी व्याख्या में यह स्पष्ट करना चाहिए था।
सामाजिक न्याय का अर्थ किसी धर्म को ऊंचा या नीचा दिखाना नहीं हो सकता बल्कि सभी धर्म के मानवीय गुणों को सतह पर लाना हो सकता है। इसमें राजनीति का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। भारत में 19वीं शताब्दी से जो धार्मिक व सामाजिक सुधार हुए हैं उनका हिंदू धर्म मानने वाले लोगों से विशेष वास्ता रहा है। चाहे उत्तर हो या दक्षिण-पूर्व हो या पश्चिम भारत के हर क्षेत्र में समाज सुधारक और प्रगतिशील विचारक पैदा हुए जिन्होंने हिंदू समाज को आगे बढ़ाने की कोशिश की। चाहे साहू जी महाराज हो या महात्मा फुले अथवा राजा राममोहन राय हो या पेरियार या फिर स्वामी दयानंद सभी ने हिंदू समाज में फैली कुरीतियां और पाखंडवाद के खिलाफ आवाज उठाई तथा समाज को आगे बढ़ाने का कार्य किया। 21वीं सदी में हमें यह सोचना होगा कि हम इसी दिशा में और आगे किस प्रकार बढे़, ना कि पोगा पंथी और पाखंडवाद को बढ़ावा देते हुए पिछली शताब्दियों की ओर मुडे़ं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि धर्म में असमानता या गैर बराबरी आधुनिक समाज स्वीकार नहीं कर सकता और जो धर्म ऐसा करने की हिदायत देता हो उसे हम वैज्ञानिकता से परे कहेंगे।
भारतीयों की वैज्ञानिकता अथवा उनके विज्ञान के ज्ञान पर संदेह करने का कोई कारण नहीं बनता है क्योंकि सनातन धर्म में पहला अवतार जल में मत्स्य अवतार कहा गया है और 1850 के करीब जब डार्विन ने अपनी समाज के विकास की परिकल्पना दी तो कहा कि मनुष्य का विकास सबसे पहले जल में पैदा हुए जंतु से ही हुआ। जब सन् 1200 के करीब भारत पर आक्रमण करने वाले मोहम्मद गौरी के साथ उसका विद्वान दरबारी अलबरूनी आया तो उसने कहा कि भारतीयों के विज्ञान का ज्ञान बहुत ऊंचा है, मगर वह इसके साथ अंधविश्वास को जोड़ देते हैं। इतिहास कुछ सबक लेने के लिए होता है, अतः हिंदू समाज को अपने भीतर भी झांक कर देखना चाहिए और अपनी विशेषताओं का ध्यान रखना चाहिए। बेशक उत्तर भारत के कुछ कट्टरपंथी या हिंदूवादी नेता श्री उदय निधि के बयान में राजनीति देख सकते हैं और इसका संबंध अन्य राजनीतिक दलों से भी स्थापित करने की कोशिश कर सकते हैं मगर हकीकत यह है की सनातन धर्म को पुनः स्थापित करने का काम दक्षिण के ही आदि शंकराचार्य ने आठवीं सदी में किया था। आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव से अभिभूत भारत में सनातन पूजा पद्धति को पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उत्तर या दक्षिण को देखकर राजनीतिज्ञों को अपने विचार एक- दूसरे पर नहीं थोपने चाहिए। हमें खुले दिमाग से और वैज्ञानिक सोच के साथ धार्मिक विषयों की परख करनी चाहिए तभी हम आधुनिक समाज की स्थापना कर सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने यही कार्य किया है।