संपादकीय

मणिपुर में शांति की खोज

Aditya Chopra

मणिपुर में इंटरनैट बहाल हुए 24 घंटे भी नहीं हुए थे और राज्य में शांति बहाली के बड़े-बड़े दावे उस समय खोखले सा​बित हुए जब तेंगनौपाल जिले में साइबोल के पास लेटिथू गांव में दो उग्रवादी गुटों में हुई फायरिंग में 13 लोगों की मौत हो गई। इस घटना ने राज्य सरकार की चिंताएं एक बार फिर बढ़ा दी हैं। म्यांमार की सीमा से लगा यह जिला कुकी बहुल है। अभी तक मृतकों की पहचान नहीं हो सकी है। असम राइफल्स का कहना है कि एक विद्रोही समूह ने म्यांमार जा रहे दूसरे समूह के उग्रवादियों पर हमला किया और 13 लोगों को मार डाला। मारे गए लोग स्थानीय नही​ं लगते हैं। मणिपुर में हिंसा दशकों में देखी गई सबसे बुरी हिंसा में से एक है। यह भारत के पूर्वोत्तर में कोई नई घटना नहीं है। जहां कुछ शक्तिशाली लोगों के हितों की पूर्ति के लिए विभिन्न जातीय समुदायों की पहचान को बार-बार हथियार बनाया गया है। देश की आजादी के 75 वर्ष बाद भी एक-दूसरे के इतिहास के बारे में विभिन्न समुदायों के बीच समझ को बढ़ावा देने के​ ​िलए बहुत कम काम किया गया है। मणिपुर जिसे रत्नों की भूमि कहा जाता है। यह राज्य विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले 39 जातीय समुदायों का घर है। जिनमें हिन्दू, ईसाई और इस्लाम के साथ-साथ सनमाही जैसी स्वदेशी धार्मिक परम्पराएं भी शामिल हैं। 1949 में भारत के साथ मणिपुर के ​विलय के विरोध में अलगाववादी आंदोलनों की शुरूआत हुई लेकिन हर बार प्रतिरोध को दबाने के लिए बंदूकों का सहारा ​लिया गया। राज्य में कई मैतेई और कुकी सशस्त्र विद्रोही संगठन सक्रिय हैं। इसी वर्ष 3 मई को हिंसा तब शुरू हुई जब मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को मैतेई समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने को कहा। मैतेई समुदाय मणिपुर में बहुसंख्यक हैं। इस फैसले से कुकी और नगा समुदाय चिंतित हो उठे और हिंसा शुरू हो गई। इस ​िहंसा में अब तक 200 लोग मारे गए और 50 हजार के लगभग लोग बेघर हुए जो अभी भी शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैैं। जातीय विभाजन इतना गहरा हो गया जिसको पाटना मुश्किल हो रहा है। हालात बहुत गम्भीर हैं।
-मणिपुर में जिलों से लेकर सरकारी दफ्तर तक सब कुछ दो समुदायों में बंट चुका है। पहले 16 जिलों में 34 लाख की आबादी में मैतेई-कुकी साथ रहते थे, लेकिन अब कुकी बहुल चुराचांदपुर, तेंगनौपाल, कांगपोकपी, थाइजॉल, चांदेल में कोई भी मैतेई नहीं बचा है। वहीं मैतेई बहुल इंफाल वेस्ट, ईस्ट, विष्णुपुर, थोउबल, काकचिंग, कप्सिन से कुकी चले गए हैं।
-कुकी इलाकों के अस्पतालों को मैतेई डॉक्टर छोड़कर चले गए हैं। इससे यहां इलाज बंद हो गया। अब कुकी डॉक्टर कमान संभाल रहे हैं। सप्लाई नहीं होने से यहां मरहम-पट्टी, दवाओं की भारी कमी है।
-सबसे ज्यादा असर स्कूलों पर हुआ है। 12 हजार 104 स्कूली बच्चों का भविष्य अटक गया है। ये बच्चे 349 राहत कैंपों में रह रहे हैं। सुरक्षाबलों की निगरानी में स्कूल 8 घंटे की जगह 3-5 घंटे ही लग रहे हैं। राज्य में 40 हजार से ज्यादा जवान तैनात हैं।
-हिंसा के बाद से अब तक 6523 एफआईआर दर्ज हुई हैं। इनमें ज्यादातर शून्य एफआईआर हैं। इनमें 5107 मामले आगजनी, 71 हत्याओं के हैं। सीबीआई की 53 अधिकारियों की एक टीम 20 मामले देख रही है।
कुछ दिन पहले राज्य के सबसे पुराने विद्रोही समूह यूएनएलएफ के साथ केन्द्र सरकार ने शांति समझौता किया जो जातीय हिंसा से बर्बाद राज्य के लिए एक स्वागत योग्य कदम है। यह कदम 1980 के दशक के उत्तरार्ध से पूर्वोत्तर में केन्द्र की नीति की निरंतरता में है जो युद्ध को जारी रखने के बजाय उग्रवादी समूहों के साथ बातचीत करके शांति कायम करना है। इस नीति के कारण 1968 में मिजोरम में उग्रवाद को समाप्त करने में सफलता मिली और 1997 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के इसाक स्वू-मुइवा गुट के साथ केंद्र द्वारा हस्ताक्षरित युद्धविराम ने नगालैंड में एक कमजोर शांति सुनिश्चित की। 2015 के रूपरेखा समझौते ने इस शांति को मजबूत किया है, हालांकि उग्रवाद का समापन मायावी बना हुआ है। उल्फा, बोडो और दिमासा समूहों के साथ कई शांति समझौतों ने असम को शांत किया है और केंद्र को क्षेत्र के बड़े हिस्से से सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम वापस लेने में सक्षम बनाया है। मैतेई विद्रोह के कई पहलू हैं : यूएनएलएफ विभाजित है, हालांकि यह अज्ञात है कि किस गुट के पास अधिक मारक क्षमता है। पूर्वोत्तर में उग्रवाद का जटिल इलाका भीड़भाड़ वाला है और गुटीय नेताओं के साथ मिलकर शांति के लिए बातचीत करनी होगी। संयोग से म्यांमार के साथ दिल्ली के बेहतर संबंधों ने कई समूहों को जिनके वहां ठिकाने थे, सशस्त्र संघर्ष छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था।
अब सवाल यह है कि राज्य में शांति किस तरह स्थापित की जाए। राज्य में कई समुदाय शांति और प्रार्थना सभाएं कर रहे हैं। महिला समूह ने कई इलाकों में मदर्स पीस कमेटियों का गठन किया है। जरूरत है कि हर समुदाय से बातचीत की जाए और बातचीत में नागरिक समाज को शामिल कर टूटे हुए दिलों को जोड़ा जाए और अविश्वास की खाई को पाटा जाए। यह काम राज्य सरकार, जनप्रतिनिधि और महिलाएं कर सकती हैं। सुलह एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन सरकार और नागरिक समाज को अतीत को दफनाने और आगे बढ़ने के लिए मनाने की जरूरत है। क्या राज्य सरकार ऐसा कर पाएगी। अगर वोट बैंक की राजनीति की गई तो राज्य को और घातक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com