संपादकीय

समाज सेवा में अग्रणी भूमिका निभाएं वरिष्ठजन

एक उम्र आने के पश्चात बहुत से लोगों में यह विचार पल्लवित होते रहते हैं कि वो अब क्या करें, अपना समय कैसे व्यतीत करें? सबके पास वो सुख भी नहीं होता कि वो एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं

Vijay Maru

एक उम्र आने के पश्चात बहुत से लोगों में यह विचार पल्लवित होते रहते हैं कि वो अब क्या करें, अपना समय कैसे व्यतीत करें? सबके पास वो सुख भी नहीं होता कि वो एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं जहां बेटे, बहू, और उनके बच्चे साथ रहते हों। ज्यादातर वरिष्ठजनों ने अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा दिया और ये बच्चे अपनी जीविकोपार्जन करने में व्यस्त हो गए। कई तो माता-पिता से अलग शहर में भी रहने लगे। ऐसे में वरिष्ठजन अपने ज्ञान व अनुभव का भरपूर उपयोग कर सकते हैं समाज के लिए काम करके।

भारतीय परंपरा रही है कि हम केवल अपना नहीं सोचते हैं। हम अगर सक्षम हैं तो जरूरतमंद की सेवा करने में कभी पीछे नहीं रहते हैं। यही संस्कार हमें मिले हैं। हमारे तो लाखों-लाख मंदिरों में भी प्रत्येक दिन आरती के बाद जो जय घोष होता है उसमें एक स्वर में सब बोलते हैं ‘विश्व का कल्याण हो’। वसुधैव कुटुम्बकम की नीति पर हम विश्वास करते हैं। यह एक संस्कृत वाक्यांश है और सनातन धर्म का मूल संस्कार और विचारधारा है, जिसका अर्थ है ‘विश्व एक परिवार है’।

बचपन से हमने यही पाया है कि स्कूल, अस्पताल, रहने के लिए धर्मशाला, गौ पालन, प्याऊ लगवाना, वगैरह समाज की तरफ से उपलब्ध करवाये जाते थे। सौभाग्यवश परोपकारी व्यक्तियों की भी कमी नहीं है समाज में। अनेकानेक स्वयंसेवी संस्थाएं कार्यरत हैं जो जरूरतमंद लोगों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं। बहुत सी ऐसी संस्थाओं में यह देखा गया है कि धन तो पर्याप्त उपलब्ध हो जाता है पर निर्धारित कार्य को सुचारू रूप से क्रियान्वित करने के लिए योग्य व्यक्ति मिलने में कठिनाई आती है। इस मैन पावर की कमी को पढ़े-लिखे, अनुभवी लोग बखूबी पूरा कर सकते हैं।

मेरा परिचय एक 80 वर्ष के व्यक्ति से है, जिन्हें रिटायर हुए कोई बाईस वर्ष हो गए। वो अपने-आपको एक शिक्षा संबंधित संस्थान से जुड़कर बहुत गौरवान्वित महसूस करते हैं। उनके अंदर दूसरों की सेवा करके एक ऐसी ऊर्जा उत्पन्न होती है जो उनके अच्छे स्वास्थ्य का राज है। उनके परिवार वाले व मित्रगण भी इस बात को स्वीकारते हैं कि इनके स्वस्थ रहने में सबसे बड़ा योगदान इनका इस संस्था में सेवा देना है।

एक और परिचित वरिष्ठ व्यक्ति अपना काफी समय एक बड़े मंदिर के संचालन में लगाते हैं। इनके वहां जुड़ने से मंदिर के सभी कार्य सुचारू रूप से चलने लगे और भक्तों का आना भी बढ़ गया। इसी तरह बहुत से लोग गुरुद्वारों में भी किसी न किसी कार्य में अपना योगदान देते हैं।

किसी संस्था से जुड़ना इतना आसान भी नहीं है। जो लोग पहले से ही मैनेजमेंट में लगे हैं वो जल्दी किसी नए व्यक्ति को प्रवेश नहीं करने देते। उनमें अहम की भावना जागृत हो जाती है और कहीं-कहीं तो वित्तीय अनियमितता भी नजर आती हैं। ऐसा नहीं है कि अच्छे संस्थानों की कमी है। अपने विवेक से सही संस्थान को हमें स्वयं को ढूंढना होगा।

अगर आपको अकेले काम करने में ज्यादा अच्छा लगता है तो समाज सेवा करने के और भी ऑप्शन्स हैं। कुछ दिन पहले ही एक मैसेज व्हाट्सएप पर पढ़ा कि एक व्यक्ति ने वर्षों की मेहनत करके पूरा का पूरा एक जंगल ही लगा दिया।

एक बहुत ही सरल सा काम कोई भी कर सकते हैं -वो है गरीब जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाने का। इसके लिए कोई ज्यादा दूर जाने की भी आवश्यकता नहीं। अपने पास ही कई ऐसे गरीब परिवार मिल जाएंगे जो आर्थिक अभाव के कारण अपने बच्चे को स्कूल नहीं भेज सकते हैं। ऐसे बच्चो को पढ़ाने में अपना योगदान दिया जा सकता है। अखबार में छपा एक समाचार याद आ रहा है जिसमें बताया गया कि एक व्यक्ति ने अपने पास ही के एक कन्सट्रकशन साइट पर काम कर रहे मजदूरों के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। सेवा करने की भावना मन में आ जाए तो आगे का रास्ता स्वयं मिल ही जाएगा। यह तो निश्चित ही है कि समाज सेवा से आप अपनी भी सेवा कर रहे हैं। आप हमेशा प्रसन्न व स्वस्थ रहेंगे।