संपादकीय

शेख हसीना और भारत

Aditya Chopra

भारत-बंगलादेश सम्बन्धों की समीक्षा हम दो घनिष्ठ मित्र देशों के समकक्ष रखकर ही कर सकते हैं जिसमें साझा तथ्य यह है कि 1947 से पहले बंगलादेश भारत का ही हिस्सा था और इस वर्ष पाकिस्तान बन जाने पर यह देश पूर्वी पाकिस्तान कहलाया जाने लगा था। परन्तु इस पूर्वी पाकिस्तान की संस्कृति पश्चिमी पाकिस्तान से कोई मेल नहीं खाती थी जिसकी वजह से 1971 में यह पाकिस्तान से अलग हो गया और बंगलादेश कहलाया जाने लगा। इस देश के अलग होने के पीछे मुख्य कारण इसकी संस्कृति ही थी जिसे पश्चिमी पाकिस्तान के शासक हिन्दू संस्कृति के करीब मानते थे। भारत का 1947 में बंटवारा बीसवीं सदी की एेसी विकट त्रासदी थी जिसमें एक देश से दूसरे देश में आबादियों की अदला-बदली मजहब के आधार पर हुई थी। इस अदला-बदली में कम से कम दस लाख लोगों का कत्ल हुआ था और करोड़ों लोग बेघर-बार हो गये थे। हालांकि पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब मोर्चे पर ही रक्तपात सर्वाधिक हुआ था जहां सेना और पुलिस भारी तादाद में तैनात थी मगर पूर्व के बंगाल मोर्चे पर रक्तपात को महात्मा गांधी ने किसी तरह बचा लिया था। उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के बीच शान्ति व सौहार्द स्थापित करने के लिए न केवल विभिन्न स्थानों की यात्रा की बल्कि आमरण अनशन भी किया जिसके आगे बंगाल के सभी हिन्दू-मुस्लिम नेताओं को नतमस्तक होना पड़ा और शान्ति व सौहार्द के लिए अनुकूल वातावरण बनाना पड़ा। परिणामस्वरूप बंटवारे के समय इस पूर्वी पाकिस्तान में 23 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या थी। जबकि पश्चिमी पाकिस्तान में केवल तीन प्रतिशत से कुछ अधिक हिन्दू व सिख जनसंख्या ही बची थी। अतः पूर्वी पाकिस्तान कई मायनों में पश्चिमी पाकिस्तान से शुरू से ही अलग था। अतः 1971 में जब यह स्व. शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में नया धर्मनिरपेक्ष बंगलादेश बना तो इसने अपनी बंगला संस्कृति के छाते के नीचे सभी हिन्दू-मुसलमानों को एक समान अधिकार दिये परन्तु केवल चार साल बाद ही बंगलादेश के राष्ट्रपिता कहलाये जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की सपरिवार (केवल दो पुत्रियों को छोड़कर) हत्या कर दी गई और सैनिक सत्ता पलट को अंजाम दे दिया गया। इसके बाद नब्बे के दशक तक बंगलादेश में सैनिक शासन ही अलटता-पलटता रहा और इस बीच इसे इस्लामी देश भी घोषित कर दिया गया। परन्तु इसी दशक में बंगलादेश में लोकतन्त्र की वापसी हुई और पहले चुनावों में पिछड़ने के बाद शेख मुजीबुर्रहमान की सुपुत्री शेख हसीना वाजेद ने अपने पिता की क्रान्तिकारी पार्टी अवामी लीग को पुनर्जीवित करके सत्ता प्राप्त की। अपने शासन के दौरान उन्होंने बंगलादेश के संविधान में परिवर्तन किया और इस्लाम को राजधर्म घोषित करते हुए सभी हिन्दू, बौद्ध व ईसाई अल्पसंख्यकों को एक समान अधिकार दिये। मगर विगत 5 अगस्त को शेख हसीना के लम्बे 15 साल के शासन को जन आक्रोश के चलते अपदस्थ कर दिया गया और आरोप लगाया गया कि वह लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों को अपनी तानाशाही की नीतियों से कुचल रही थीं। उनके प्रधानमन्त्री रहते 2023 में बंगलादेश में जो आम चुनाव हुए उन्हें पश्चिमी जगत ने इकतरफा चुनाव माना क्योंकि इन चुनावों का बंगलादेश की विपक्षी पार्टियों ने बहिष्कार कर दिया था। उनके शासन के खिलाफ सरकारी नौकरियों में बंगलादेश मुक्ति संग्राम के शहीदों के बच्चों को आरक्षण देने के खिलाफ जनान्दोलन होने लगे जिन्होंने बाद में विक्राल रूप ले लिया। इस आन्दोलन को दबाने में नागरिक प्रशासन के विफल होने पर इस देश की सेना ने हस्तक्षेप किया और विगत 5 अगस्त को सत्ता अपने हाथ में लेने से पहले शेख हसीना से प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा ले लिया। इसी दिन शेख हसीना भारत चली आयीं जहां उन्हें बाकायदा मोदी सरकार ने शरण दी। इसके बाद बंगलादेश में सेना ने एक अन्तरिम नागरिक सरकार का गठन किया जिसके मुखिया नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस हैं। वैसे यूनुस खुद बंगलादेश में काफी विवादास्पद रहे हैं और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी हसीना सरकार के दौरान लगे हैं। वह अर्थशास्त्री माने जाते हैं। उनका अब यह कहना है कि भारत में रहते हुए शेख हसीना को किसी प्रकार का राजनैतिक वक्तव्य नहीं देना चाहिए। इससे दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों पर विपरीत असर पड़ सकता है।
दूसरी तरफ बंगलादेश में शेख हसीना पर कई प्रकार के फौजदारी मुकदमे दायर कर दिये गये हैं। इसके साथ ही मोहम्मद यूनुस कह रहे हैं कि शेख हसीना के भारत से प्रत्यर्पण की मांग भी बंगलादेश कर सकता है। प्रश्न यह है कि शेख हसीना बंगलादेश की बीस वर्ष तक प्रधानमन्त्री रह चुकी हैं और इस देश के निर्माता शेख मुजीबुर्रहमान की उस विरासत को आगे ले जाने वाली हैं जिसके साथ भारत ने कभी कदमताल की थी और मानवीय आधार पर बंगलादेश को पाकिस्तान के खूनी पंजे मुक्त से कराया था। अतः उन्हें भारत यथोचित सम्मान दे रहा है जबकि निश्चित रूप से भारत की विदेशनीति किसी दूसरे देश के अन्दरूनी मामलों में दखल देने की नहीं रही है। एेसा भारत ने तब भी किया था जब 2008 में नेपाल में राजशाही के खिलाफ बगावत हुई थी। परन्तु 1959 में भारत ने तिब्बत के धर्म गुरू व राजनैतिक मुखिया दलाई लामा को शरण भी दी थी। क्योंकि चीन ने तिब्बत को तब सैनिक ताकत के बूते पर जबरन हड़प लिया था। बेशक बंगलादेश की घटनाओं की तुलना तिब्बत से नहीं की जा सकती है मगर शेख हसीना के लोकतान्त्रिक इतिहास को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि विगत 5 अगस्त को बंगलादेश में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार का ही तखता पलट सेना की मार्फत किया गया था हालांकि इसका स्वरूप दूसरा था।