महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष श्री राहुल नार्वेकर ने श्री उद्धव ठाकरे की मूल शिवसेना से अलग हुए मुख्यमन्त्री एकनाथ शिन्दे के शिवसेना गुट को असली शिवसेना पार्टी चुनाव आयोग की तरह ही घोषित कर दिया है। उन्होंने लगभग डेढ़ साल बाद शिन्दे गुट के विद्रोही विधायकों की विधानसभा सदस्यता निलम्बित किये जाने के मुद्दे पर दायर याचिका का फैसला किया और शिन्दे गुट को असली शिवसेना करार दिया। बेशक शिन्दे राज्य के मुख्यमन्त्री विगत वर्ष जून महीने में तभी बने जब तत्कालीन मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे ने अपनी पार्टी शिवसेना के लगभग 40 विधायकों के विद्रोह करने के बाद बिना विधानसभा में बहुमत का फैसला हुए ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसे श्री ठाकरे की राजनैतिक भूल कहा जाये या विधानसभा के नियमों को कायदे से न समझ पाने की कम अक्ली, इसका विश्लेषण आने वाले समय में होता रहेगा मगर इतना निश्चित है कि उनकी पार्टी अब मूल शिवसेना होते हुए भी शिवसेना नहीं रह गई है। इसे निश्चित रूप से राजनैतिक विडम्बना कहा जायेगा क्योंकि उद्धव ठाकरे उन स्व. बाला साहेब ठाकरे के सुपुत्र हैं जिन्होंने इस पार्टी का गठन 1966 में मुम्बई में किया था। बाल ठाकरे जीवन पर्यन्त अपनी पार्टी के प्रमुख रहे और उनकी मृत्यु के बाद इसकी कमान उद्धव जी के हाथ में आ गई।
विगत 2019 के चुनावों में राज्य में हालांकि भाजपा के सबसे ज्यादा विधायक जीते थे परन्तु इसकी चुनाव सहयोगी रही शिवसेना ने अपनी मुख्यमन्त्री पद की मांग पूरी न होने पर भाजपा से सम्बन्ध विच्छेद करके कांग्रेस व श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का दामन थाम कर महाविकास अघाड़ी नाम से तीन दलों का गठबन्धन बनाया था और विधानसभा में पूर्ण बहुमत के आधार पर साझा सरकार श्री उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में गठित की थी। यह स्थिति भाजपा से इसलिए बर्दाश्त नहीं हो रही थी क्योंकि चुनावी मैदान में भाजपा व शिवसेना संयुक्त मोर्चा बना कर मैदान उतरे थे और इनके मोर्चे को पूर्ण बहुमत भी प्राप्त हुआ था।
कायदे से आम जनता ने इस मोर्चे के पक्ष में ही जनादेश दिया था परन्तु श्री ठाकरे ने जनता से किये इस वादे को तोड़ डाला और उन पार्टियों के गले में अपनी बाहें डाल दीं जिनके खिलाफ उन्होंने चुनाव लड़ा था। इस वादा खिलाफी का बदला लेने में शिवसेना के ही नेता एकनाथ शिन्दे भाजपा का औजार बने और उन्होंने शिवसेना को ही तोड़कर मुख्यमन्त्री पद भाजपा के समर्थन से ग्रहण किया। कायदे से देखें तो यह राजनीति में शह और मात के खेल से ज्यादा कुछ नहीं है परन्तु भारतीय लोकतन्त्र केवल नियम कायदों से ही चलता है अतः शिन्दे द्वारा किये गये विद्रोह का प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंचा और संसदीय नियमों के अनुसार विद्रोही विधायकों की सदस्यता मुअत्तली का मामला विधानसभा अध्यक्ष की 'संसदीय अदालत' में भी गया परन्तु दोनों ही स्थानों पर बाजी शिन्दे के पक्ष में रही। साथ ही चुनाव आयोग के सामने भी मामला गया और वहां से तो खुल्लमखुल्ला फैसला शिन्दे के पक्ष में हुआ।
अब सवाल उठता है कि क्या ठाकरे गुट को निराश होकर बैठ जाना चाहिए। जो लोग राजनीति में रहते हैं वे ही कहते हैं कि सियासत में तब तक आस रहती है जब तक कि सारे विकल्पों से ही निराशा हाथ नहीं लगती अतः ठाकरे गुट फिर से विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जायेगा लेकिन 100 दिन बाद अब लोकसभा चुनाव होने हैं और इसके लगभग पांच महीने बाद ही महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव भी होंगे। इसका मतलब यह हुआ कि शिवसेना का मामला पुनः लोकतन्त्र की सबसे बड़ी अदालत अर्थात जनता की अदालत में जायेगा। इस अदालत में कोई कानूनी दांव-पेंच नहीं चलेंगे बल्कि केवल जनता की सहृदयता से काम चलेगा। जनता जिस शिवसेना को असली मानेगी उसके प्रत्याशियों को पहले लोकसभा चुनावों में विजयी बनायेगी और इसमें जो भी निर्णय जनता की अदालत से आयेगा उसका असर पांच महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिलेगा। बेशक यह फैसला सबसे बड़ा फैसला होगा जो सीधे जनता द्वारा ही दिया जायेगा। तब तक शिन्दे सरकार को कोई खतरा किसी तरफ से नहीं रहेगा। यदि श्री नार्वेकर शिन्दे के साथ पहली खेप में गये 15 विधायकों की सदस्यता दल-बदल कानून के तहत रद्द कर देते तो शिन्दे सरकार तभी गिर जाती परन्तु उन्होंने एेसा न करके राज्य के राजनीतिक क्षेत्र में ऐसा बलबला पैदा कर दिया जिसका लाभ दोनों ही पक्ष उठाने का प्रय़ास करेंगे। चुनाव आयोग व अध्यक्ष के सामने शिकस्त खाये श्री उद्धव ठाकरे जनता की अदालत में एक उत्पीड़ित या सत्ता द्वारा सताये गये पक्ष के रूप में स्वयं को खड़ा करेंगे जबकि शिन्दे गुट के लोग कानूनी रूप से विजयी पक्ष के रूप में होंगे। यह पीड़ित व उत्पीड़क की राजनीति महाराष्ट्र में क्या गुल खिलायेगी, यह जरूर देखने वाली बात होगी। इस लड़ाई में किस पक्ष को विजय मिलेगी इसका फैसला तो जनता ही करेगी।