संपादकीय

सोनिया गांधी : समय के साथ चल

Shera Rajput

कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने यह कह कर कि, देश में माहौल हमारे पक्ष में है। अतः पूरे एहतियात के साथ विपक्षी गठबन्धन को अपनी एकता बनाये रखनी चाहिए और जोश में होश भी रखना चाहिए, स्पष्ट कर दिया है कि भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति बदलाव की तरफ जा रही है । श्रीमती सोनिया गांधी एेसी राजनेता हैं जिन्होंने कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने पर पूरी पार्टी को कस कर बांधे रखा। वह कांग्रेस के बहुत बुरे दिनों में इसकी 1997 में अध्यक्ष बनीं। उनके कांग्रेस के सदर रहते पार्टी एकजुट रही। मगर सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने 2004 के चुनाव के बाद पुनः कांग्रेस पार्टी को सत्ता पर बैठाया। हालांकि कांग्रेस की सरकार अपने बूते पर नहीं बनी थी बल्कि यह चुनावों के बाद बने गठबन्धन यूपीए की सरकार थी। इन चुनावों में कांग्रेस को 146 सीटें मिली थीं जो सभी दलों से सर्वाधिक थीं।
सोनिया जी ने चुनावों में भाजपा को 135 सीटें मिलने पर सभी विपक्षी दलों से विचार- विमर्श करने के बाद संयुक्त प्रजातान्त्रिक गठबन्धन (यूपीए) गठित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। मगर कांग्रेस पार्टी को यह गुमान चुनावों में ही हो गया था कि भाजपा व सत्तारूढ़ गठबन्धन पराजित होगा। मगर कांग्रेस ने चुनाव परिणाम घोषित होने से पहले ही यह रणनीति बना ली थी कि यदि गठबन्धन की सरकार की कांग्रेस को रहनुमाई करनी पड़ी तो सोनिया जी प्रधानमन्त्री नहीं बनेंगी। चुनाव परिणाम आने के बाद जब स्थिति स्पष्ट हुई तो कांग्रेस के खास किस्म के नेताओं ने उनसे प्रधानमन्त्री पद स्वीकार करने का आग्रह किया मगर उन्होंने इस पद के लिए डा. मनमोहन सिंह को आगे बढ़ाया।
परिणाम आने से पहले कांग्रेस पार्टी श्री शिवराज पाटील के नाम पर भी विचार कर रही थी। मगर संयोग से शिवराज पाटील चुनाव हार गये थे। अतः चुनावों के बाद डा. मनमोहन सिंह का प्रधानमन्त्री बनना लगभग तय सा हो गया था। मगर डा. मनमोहन सिंह राज्यसभा के सदस्य थे। कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में श्रीमती सोनिया गांधी को चुन लिया गया था। अतः कांग्रेस पार्टी के संविधान में संशोधन किया गया और लिखा गया कि संसदीय दल की नेता प्रधानमन्त्री पद के लिए जिस भी सांसद को चाहें मनोनीत कर सकती हैं। डा. मनमोहन सिंह अल्पसंख्यक सिख समुदाय से आते थे। वह पहले वित्त मन्त्री भी रह चुके थे।
वहीं सोनिया गांधी ने कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में एक राज्यसभा सदस्य स्व. प्रणव मुखर्जी को भी प. बंगाल की जंगीपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए भेजा। प्रणव मुखर्जी की शानदार जीत हुई। इससे पहले श्री मुखर्जी राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी के मुख्य सचेतक थे जबकि डा. मनमोहन सिंह नेता थे अतः श्री मुखर्जी को कांग्रेस के विपक्ष में रहने के बावजूद दूसरे स्थान पर ही रखा गया था।
अतः डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमन्त्री बनने पर उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई और वह रक्षा मन्त्री बनाये गये साथ ही लोकसभा में वह सदन के नेता भी चुने गये। सोनिया गांधी ने यह सन्तुलन बहुत करीने से बनाया और डा. मनमोहन सिंह के सपने अमेरिका-भारत परमाणु समझौते को सिरे तक पहुंचाने के लिए दो वर्ष बाद 2006 में श्री मुखर्जी को विदेश मन्त्री बनाया गया। इस समझौते को मूर्त देने में श्री मुखर्जी की भूमिका डा. मनमोहन सिंह से भी ऊपर हो गई। देश में राम मन्दिर निर्माण की जगह परमाणु करार जन विमर्श में आ गया।
2008 में जब लोकसभा का जुलाई महीने में दो दिन का विशेष सत्र इस मुद्दे पर बुलाया गया तो सदन में इसकी कमान श्री मुखर्जी ने संभाली और विपक्ष को निरुत्त्तर कर दिया। जब श्री मुखर्जी समझौते के मुद्दे पर बोल रहे थे तो बीच में उनका गला सूख गया। उनके लिए लाया गया पानी का गिलास स्वयं सोनिया ने श्री मुखर्जी को दिया। इससे उनका व्यावहारिक राजनैतिक चातुर्य झलक गया। अतः जब 2009 में लोकसभा के चुनाव हुए तो भाजपा की तरफ से श्री लालकृष्ण अडवानी को भाजपा ने प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी घोषित किया लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सोनिया ने चुनाव से पहले ही प्रधानमन्त्री पद का दावेदार डा. मनमोहन सिंह को अपनी कांग्रेस मुख्यालय में हुई प्रेस कान्फ्रेंस में घोषित कर दिया था जबकि डा. सिंह से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए नहीं कहा गया था। इन चुनावों में कांग्रेस की 206 सीटें आयी और भाजपा 116 पर ही सिमट गई। सोनिया गांधी पर आऱोप लगता है कि उन्होंने पुत्र प्रेम में राहुल गांधी को आगे बढ़ाया जो कि तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है क्योंकि जब कांग्रेस मुख्यालय में उनसे पूछा गया था कि क्या राहुल गांधी जाहिर तौर पर उत्तराधिकारी (हियर अपरेंट) है तो इसका उत्तर नकारात्मक दिया था। लेकिन सोनिया गांधी जानती थी कि कांग्रेस को एकजुट रखने के लिए गांधी परिवार के किसी सदस्य की उपस्थिति परम आवश्यक है क्योंकि गांधी नाम पूरे देश के कांग्रेसियों को एकजुट रखता है। उनकी यह दूरदृष्टि 2024 के चुनावों में सही साबित हुई और कांग्रेस को पिछली 52 की जगह 99 सीटें मिली।
सोनिया गांधी का मानना रहा है कि भारत वर्ष किसी एक धर्म को प्रश्रय देने से नहीं चल सकता। इसे कस कर जोड़े रखने के लिए गांधीवादी दर्शन ही कारगर हथियार है जिसमें 'ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम' की जरूरत है। बेशक अब राहुल गांधी विपक्ष के नेता बन चुके हैं मगर सोनिया गांधी का लोकसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर 1999 से 2004 तक कार्यकाल एक उदाहरण के रूप में रहता है। विपक्षी नेता के तौर पर सोनिया गांधी ने तत्कालीन वाजपेयी सरकार के सामने राष्ट्रीय मुद्दों पर खासी चुनौती फेंकी हुई थी।
दरअसल सोनिया गांधी की राजनीति कांग्रेस की पुरानी परंपरा के अनुसार ही चलती रही मगर 2014 से राष्ट्रीय राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन आय़ा है। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के इस वर्ष में राष्ट्रीय पटल पर उदय के बाद राजनीति के मानक ही बदल गये। इन मानकों को श्री मोदी ने बहुत होश्यारी के साथ बदला और कांग्रेस को लगातार कठघरे में खड़ा रखा जिसका खुमार 2024 के चुनावों में जाकर उतरा है। मगर राजनीति के इन बदलते तेवरों के बीच सोनिया गांधी सही मौके पर सही बात बोल कर नैपथ्य में ही रहना पसन्द करती हैं। यह भी पता होना चाहिए कि वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे भी उनकी पसन्द हैं जो कि दलित वर्ग से हैं। इससे यह आभास होना चाहिए कि सोनिया गांधी नैपथ्य में रहते हुए भी कांग्रेस की राजनीति इसके मूल सिद्धान्त गांधीवाद की तरफ ले जाना चाहती हैं। अब यह कोई रहस्य नहीं रहा है कि संसद ने 2013 के करीब जो भोजन का अधिकार कानून बनाया था वह सोनिया के इशारे पर ही डा. मनमोहन सिंह के अनमने पन के बावजूद बनाया गया था। दरअसल सोनिया गांधी की राजनीति जमीन सूंघ कर राजनैतिक दिशा तय करने की रही है।
यही वजह है कि राजनीति अब दूसरे चक्र (ओरबिट) में प्रवेश कर गई है। सोनिया का यह कहना कि माहौल हमारे पक्ष में है भविष्य की तरफ इंगति करता है जिसे भाजपा को बहुत गंभीरता से लेना होगा। गौर से देखें तो भारत की राजनीति लोक कल्याणकारी राज कायम कारने की ही है।

 – राकेश कपूर