संपादकीय

एक वो भी दिवाली थी...

दशहरा जाते ही दीपावली के त्यौहार की उमंग मन में किल्लोल लेने लगती थी। आज दीपावली के इस माहौल में हमें अपना बचपन अनायास ही याद आने लगता है।

Vijay Maru

दशहरा जाते ही दीपावली के त्यौहार की उमंग मन में किल्लोल लेने लगती थी। आज दीपावली के इस माहौल में हमें अपना बचपन अनायास ही याद आने लगता है। परिवार के छोटे-बड़े सदस्य घर की सफाई में लग जाते थे। उन दिनों कम ही घरों में काम करने वाले सहायक होते थे। किसी को भी अपने घर में सफाई, रंग-रोगन करने में कोई झिझक नहीं होती थी। कभी-कभी तो पड़ोसी को भी अगर किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती थी तो हम तुरंत आगे बढ़कर उनका काम कर देते थे। गुलजार साहब की लिखी यह कविता याद आती है-

हफ्तों पहले से साफ-सफाई में जुट जाते हैं

चूने के कनस्तर में थोड़ी नील मिलाते हैं

अलमारी खिसका खोयी चीज वापस पाते हैं

दो छत्ती का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं

चलो इस दफा दिवाली घर पे मनाते हैं....

परिवार की वरिष्ठ महिलाएं दिनों पहले से मिठाई और सुस्वाद पकवान बनाने में व्यस्त हो जाती थी। घर पर बनी इन मिठाईयों का स्वाद ही कुछ अलग होता था। मन तो होता था कि ये मिठाई तुरंत खाने को मिल जाएं पर हमें भी पता था कि इसका स्वाद तो लक्ष्मी पूजा के बाद ही चखने को मिलेगा। दीपावली के समय घर पर मिलने-जुलने वालों का भी आवागमन बढ़ जाता था। आज हम गिफ्ट्स खूब वितरित करते हैं, उन दिनों भी ये घर की बनाई मिठाई बांटी जाती थी। आज के नौजवान को यह जान कर आश्चर्य होगा की कुछ ही किस्म की मिठाई होती थी तब और वो दिनोंदिन हम सब मजे से खाते थे। आज तो हर मिठाई विक्रेता अपनी विशेष तरह-तरह की मिठाई का प्रचार हर मीडिया से करता नजर आता है। लोगों की इन दुकानों में भीड़ देख कर यह जानना कठिन नहीं है कि अब बहुत कम घरों में मिठाई बनती हैं।

नए कपड़े भी दीपावली के समय ही सब को मिलते थे। और यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था इस त्यौहार के बेसब्री से इंतजार का, सभी के लिए। उन दिनों रेडीमेड का चलन नहीं था और न ही चलन था ऑनलाइन खरीददारी का। घर में सभी के लिए एक से डिजाइन के कपड़े के थान आ जाते थे और फिर इन्हें सिलवा लिए जाते थे। आज की तरह किस्म किस्म के, प्रत्येक अवसर के लिए विशेष कपड़े नहीं होते थे। उस समय तो केवल तीन ही तरह के कपड़े पर विचार होता था - घर के, स्कूल के व विशेष अवसर के लिए। संयुक्त परिवार होने के कारण एक दूसरे के कपड़े भी खूब पहने जाते थे।

सभी आवास व व्यावसायिक प्रतिष्ठान के बाहर केले के पेड़ व दीपक लगाये जाते थे। इन दीयों में तेल डालने के लिए तो आपस में स्पर्धा होती थी। हमउम्र वालों को याद होगा कि उस समय हम दीपावली के अगले दो-तीन दिन सभी रिश्तेदार व मित्रगण के घरों पर जाते थे। बड़े-बुजुर्ग के पांव छू कर उनसे आशीर्वाद लेते थे और उन घरों के छोटे हमसे आशीर्वाद लेते थे। सभी के यहां खुद के घर में बनी मिठाई खिलाई जाती थी। कुछ घरों में सूखे मेवे भी मिलते थे। खास बात यह होती थी कि हमारे घर पर भी सभी आते थे चाहे हम उनके घर हो आए हैं। कितना अच्छी परंपरा थी जो अब देखने को नहीं मिल रही है। आजकल तो बच्चे जैसे अपनी मित्र मंडली को छोड़कर किसी से मिलना ही नहीं चाहते हैं।

इस समाज ने अपने सभी वरिष्ठ सदस्यों से आग्रह किया है कि वो दीपावली के अगले दिन दो-तीन घरों में परिवार से मिलने जरूर जाएंगे। खुशी की बात है कि लेख लिखने तक ज्यादातर सदस्य अपनी सहमती दे भी चुके हैं। हमारा प्रयास होना चाहिए की इस परंपरा को वापस प्रचलित करें। आपस के मेल जोल बढ़ाने में, मन मुटाव कम करने में ये बातें बहुत मददगार होती हैं।