संपादकीय

लाल आतंक की चुनौती

Aditya Chopra

आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बना नक्सलवाद 1960 के दशक से शुरू होकर अब तक कई पीढ़ियों को नष्ट कर दिया है। भले ही लाल गलियारे को सीमित करने में सरकारों और सुरक्षा बलों ने काफी सफलता हासिल की है और नक्सलवाद सुस्त पड़ता दिखाई दे रहा है लेकिन अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह पूरी तरह से खत्म होने के कगार पर है। पहले कहा जाता था कि भारत में पशुपतिनाथ (नेपाल) से लेकर तिरुपति तक लाल गलियारा स्थापित हो गया है। पिछले कुछ वर्षों से राज्य सरकारों की नीतियों के चलते कई नक्सलवादी आत्मसमर्पण कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं। नक्सलियों के टॉप कमांडर या तो मारे जा चुके हैं या उन्होंने हथियार डाल दिए हैं। जो अब भी हिंसा के रास्ते को छोड़ने को तैयार नहीं हैं उनके खिलाफ सुरक्षा बल ऑपरेशन चला रहे हैं। महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली जिले में 6 घंटे तक चली मुठभेड़ में 12 नक्सलियों को सुरक्षा बलों ने ढेर कर दिया। मुठभेड़ वंडोली गांव में हुई जो छत्तीसगढ़ सीमा के बहुत पास है। मारे गए नक्सलियों में लाखों रुपए के इनामी नक्सली लीडर भी शामिल हैं। इसी बीच छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों द्वारा किए गए आईईडी विस्फोट में 2 जवान शहीद हो गए। नक्सलियों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। इसके बावजूद नक्सली सुरक्षा जवानों को निशाना बनाने से पीछे नहीं हट रहे।
महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में अभी भी नक्सलियों का दबदबा बना हुआ है। नक्सली जब भी कमजाेर पड़ते हैं वो अपने इलाके छोड़कर तितर-बितर हो जाते हैं। फिर वे अपनी शक्ति एकत्रित करते हैं और मौका लगते ही घात लगाकर हमला कर देते हैं। हाल ही में लोकसभा चुनावों के प्रथम चरण के मतदान से पहले छत्तीसगढ़ के कांकेर ​िजले में मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने 29 नक्सलियों को मार गिराया था। छत्तीसगढ़ के वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई के अब तक के इतिहास में यह सबसे बड़ी मुठभेड़ थी। 60 और 70 के दशक में देश की दशा और दिशा तय करने वाले नक्सलवादी आंदोलन के बारे में तीखे तेवरों वाले कवि सुदामा प्रसाद धूमिल ने कहा था ''भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलवाड़ी है'' लेकिन नक्सलवादियों ने धू​िमल के शब्दों को शर्मसार कर दिया। नक्सलवादी आंदोलन आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन का हक दिलाने के लिए शुरू हुआ था लेकिन अब यह आंदोलन पूरी तरह से भटक चुका है।
स्पष्ट है कि उच्च वर्गों के न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को सशस्त्र क्रांति से समाप्त करने निकला नक्सलवाड़ी आंदोलन अपना रास्ता भटक कर खनन माफ़िया और पूंजीवादी कंपनियों से लेवी वसूल कर समानांतर सरकार चलाने के जंगलों में भटक चुका है। उसकी एकमात्र पूंजी अब जनता नहीं बल्कि आतंक और क्रूरता बन गई है। वर्षों बाद निष्क्रियता की मांद से निकले नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने अपने अतीत को गहरे दुख और अवसाद के साथ याद करते हुए 2004 में स्वीकार किया था- "बंदूक लेकर जब हम आतंक फैलाते चलते थे तो हमें भी लोग समर्थन देते थे लेकिन आतंकवाद के रास्ते में भटक जाना हमारे लिए घातक सिद्ध हुआ। आज ये बंदूक के बल पर जनता के साथ होने का दावा कर रहे हैं, कल कोई दूसरा बंदूकवाला भी यही दावा कर सकता है। अगर हथियारबंद गिरोहों के बल पर क्रांति का दावा किया जा रहा है, तो चंदन तस्कर और दूसरे डाकू सबसे बड़े क्रांतिकारी घोषित किए जाने चाहिए। भय और आतंक पर टिका हुआ संगठन ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता। बंदूक के बल पर कुछ लोगों को डरा- धमका कर अपने साथ होने का दावा करना अलग बात है और सच्चाई कुछ और है। अगर जनता उनके साथ है तो फिर वो भू-सुधार जैसे आंदोलन क्यों नहीं करते?"
आज का नक्सलवाद विशुद्ध आतंकवाद का रूप ले चुका है। इनकी छाया में उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार, कमीशनखोर अफसर सब सुरक्षित हैं। यह नक्सलियों की गोली से कभी नहीं मरते। इनकी गोलियों का निशाना बनते हैं तो घनघोर जंगलों और जटिल पहाड़ियों में इनका मुकाबला करने निकले सुरक्षा बलों के जवान। अब सवाल यह है ​िक नक्सलवादियों को आखिर मदद कहां से मिल रही है। कहां से मिलते हैं उन्हें आधुनिक हथियार? इसका अर्थ यही है कि नक्सलवादियों को विदेशी ताकतें मदद कर रही हैं और स्थानीय लोग भी उनके मददगार हैं। 2014 से 24 के 10 साल में नक्सली वारदातों में 72 प्रतिशत कमी आई है। इस दौरान सुरक्षा बलों के 485 जवानों की जान गई और नागरिकों की मौत की संख्या भी 68 प्रतिशत घटकर 1383 हो गई। नरेन्द्र मोदी सरकार ने नक्सलवाद के ​िखलाफ जीरो टॉलरैंस की नीति अपनाई है। नक्सली हिंसा पर नियंत्रण केवल बंदूक के बल पर नहीं हुआ है बल्कि एक बहुआयामी रणनीति के कारण ऐसा हुआ है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की सरकारों ने भी नक्सलवाद की जड़ें उखाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका ​िनभाई है।
हालांकि मोदी की सरकार ने वामपंथी उग्रवादियों को हिंसा छोड़ने और बातचीत के लिए आगे आने का अपनी ओर से प्रस्ताव दिया है। उनके लिए केंद्र ने कई विकास परियोजनाएं शुरू की हैं, जिनमें वामपंथी उग्रवाद से ग्रस्त क्षेत्रों में 17,600 किमी सड़कों को मंजूरी देना शामिल है। केंद्र ने राज्यों को नियमित निगरानी के लिए हेलीकॉप्टर और मानव रहित हवाई वाहन (यूएवी) भी उपलब्ध कराया है। नक्सल हिंसा से प्रभावित राज्यों के अनुरोध पर सीएपीएफ बटालियनों को भी तैनात किया गया है। सुरक्षा इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने के लिए स्पेशल फंड्स दिए गए हैं। इस मद में करीब 971 करोड़ रुपये की परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है। इन परियोजनाओं में 250 किलेबंद पुलिस स्टेशन स्थापित करने का भी काम है।
नक्सलवाद के सफाये के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सही रणनीति से लगातार प्रहार भी जरूरी है। यह भी जरूरी है कि समाजसेवी संस्थाएं और सरकारें आदिवासी क्षेत्रों में जाकर जागरूकता पैदा करें।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com