कांग्रेस पार्टी ने हरियाणा का चुनाव हार कर पूरे देश में अपने पक्ष में चल रही हवा की रफ्तार मद्धिम कर दी है। कांग्रेस पार्टी भारत की मिट्टी की सुगंध में रची-बसी एेसी जमीनी पार्टी मानी जाती है जिसमें देश की विविधता समाहित होकर इन्द्र धनुषी रंग बिखेरती है। देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने वाली इस पार्टी की तासीर में सहिष्णुता इस प्रकार घुली हुई है कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले भारतवासी इसमें अपने राजनैतिक बोध का एहसास करते हैं। कांग्रेस की विशिष्टता यही है जिसकी वजह से 1947 से पहले अंग्रेज सरकार इससे खौफ खाती थी। यह निर्रथक नहीं था कि भारत को तोड़ने वालों का सबसे बड़ा एहलकार मुहम्मद अली जिन्ना इसे हिन्दू पार्टी कहता था। अंग्रेजों ने उसकी इसी मानसिकता को बढ़ावा देकर भारत के दो टुकड़े किये और पाकिस्तान का निर्माण कराया। इसके बावजूद स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय मुसलमानों सहित विभिन्न अल्पसंख्यक समाज के लोगों का हिन्दुओं समेत इस पर विश्वास जमा रहा और यह पार्टी भारत पर लम्बे समय तक राज करती रही। इस दौरान कांग्रेस पार्टी में कुछ खामियां भी आयीं ।
स्वतन्त्रता के बाद भारत में जिन भी राजनैतिक दलों का ग्राफ ऊपर गया उस सबकी वजह कांग्रेस की ये खामियां ही रहीं। वरना यदि हम गौर से भारत की राजनीति का वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो पिछली सदी (1900 से लेकर 2000 तक) का भारत का इतिहास वही रहा जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास है। पार्टी की हरियाणा राज्य के विधानसभा चुनावों में हुई हार का विश्लेषण करने से हम जिस नतीजे पर पहुंचते हैं वह यही है कि पार्टी अपनी अन्तर्निहित खामियों को दूर करने में समर्थ नहीं हो पा रही है जबकि इसका नया नेतृत्व श्री राहुल गांधी की छाया में आ चुका है। हरियाणा में चुनाव से पूर्व बेशक कांग्रेस के पक्ष में तेज हवा चल रही थी मगर पार्टी की आन्तरिक गुटबाजी और धड़े बन्दी की वजह से यह जीती हुई बाजी हार गई। इसका दोष मतदाताओं को नहीं दिया जा सकता बल्कि पार्टी के नेताओं को दिया जा सकता है। इन नेताओं ने अपना आपसी हिसाब-किताब पूरा करने के चक्कर में पार्टी की नैया को ही डुबो दिया। इन नेताओं ने कांग्रेस में रहते हुए ही कांग्रेस का बेड़ा डुबाने में अहम भूमिका अदा की जिसका सीधा लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला। हरियाणा ग्रामीण संस्कृति का प्रदेश माना जाता है और कांग्रेस की पकड़ गांवों में मजबूत इसलिए मानी जाती है कि यह बाजारवादी अर्थव्यवस्था के बीच भी लोक कल्याणारी राज की स्थापना की वकालत करती है।
लोक कल्याणकारी राज वही कहलाता है जिसमें समाज के सबसे पिछले पायदान पर खड़े व्यक्ति को शक्ति सम्पन्न बनाने के लिए सभी सरकारी नीतियां होती हैं। इसके पीछे एक सुनिश्चित विचार कार्य करता है जिसे गांधीवादी विचार कहा जाता है। क्योंकि महात्मा गांधी अपने जीवनभर यही उपदेश देते रहे कि लोकतन्त्र में जो सरकार लोगों को मूलभूत आवश्यक जीवन सुविधाएं न उपलब्ध करा सके वह सरकार नहीं बल्कि अराजकतावादियों का जमघट होती है। राहुल गांधी व उनकी बहन प्रियंका गांधी लगातार चुनाव प्रचार के दौरान जनता के सामने यही विमर्श प्रस्तुत करते रहे। इसके बावजूद हरियाणा में कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गई और 90 सदस्यीय विधानभा में इसकी कुल 37 सीटें आयीं और भाजपा को पूर्ण बहुमत 47 सीटों पर मिला।
दरअसल हरियाणा में गांधीवाद की पराजय नहीं हुई है बल्कि कांग्रेस की पराजय हुई है क्योंकि राज्य में चुनाव जीतने वाली भाजपा ने जन कल्याण के नाम पर वोट मांग कर गांधीवाद के ही उस सिद्धान्त को पकड़े रखा जिसमें मतदाता को अपनी छवि दिखाई देती है। जबकि भाजपा को राष्ट्रवादी विचारों की प्रवर्तक पार्टी माना जाता है। भाजपा के राष्ट्रवाद का सिरा हिन्दुत्व से जाकर जुड़ता है और यह पार्टी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की पैरोकार अपने जन्म 1951 से लेकर ही रही है लेकिन हरियाणा में जो हुआ उसे छोड़ कर अब महाराष्ट्र और झारखंड की बात करनी चाहिए जहां अगले महीने चुनाव होने हैं। कांग्रेस पार्टी ने विपक्षी गठबन्धन इंडिया बनाने के लिए बेशक अपने एकल हितों की कुर्बानी दी है। वरना विगत लोकसभा के हुए चुनावों के दौरान भी पूरे देश में हवा का रुख सत्ताधारी पार्टी के ही खिलाफ माना जायेगा क्योंकि इसे अपने बूते पर संसद में बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। जबकि 2014 व 2019 के चुनावों में भाजपा को अपने बल पर ही पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया था। इसके पीछे एकमात्र कारण श्री राहुल गांधी का उभरता नेतृत्व था। जिन्होंने दो बार भारत यात्रा करके लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि सरकार का पहला काम लोगों की मूलभूत समस्या रोजगार का प्रबन्ध करना होना चाहिए। कोई भी देश शेयर बाजार के ऊपर-नीचे होने से तरक्की नहीं करता है बल्कि तरक्की का राज बेरोजगारी दर में छिपा होता है।
राहुल गांधी ने देश के लोगों को एक सार्थक विकल्प देने का प्रयास किया जिसका लाभ कांग्रेस पार्टी को लोकसभा चुनावों में हुआ परन्तु दुखद यह रहा कि स्वयं कांग्रेस पार्टी ही इस विरोध की सघनता का अन्दाजा नहीं लगा पाई। अब महाराष्ट्र व झारखंड में भी कांग्रेस यदि गुटबाजी के फेर में पड़ी रहती है तो यह और भी अधिक दुखद होगा। इन दोनों राज्यों में इंडिया गठबन्धन का भाजपा से सीधा मुकाबला होना है अतः लोकतन्त्र में समर्थ विकल्पों की कमी नहीं होनी चाहिए। ये चुनाव राज्य के मुद्दों पर लड़े जायेंगे अतः भाजपा व कांग्रेस दोनों को ही एक-दूसरे से आगे निकलने की प्रतियोगिता में समाज के सबसे पिछले पायदान पर खड़े व्यक्ति को ही अपना इष्ट मानना चाहिए। लोकतन्त्र का अर्थ तो यही होता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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