संपादकीय

नक्सलवाद की अंतिम विदाई की तारीख तय हो गई

Shera Rajput

बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा। उन्होंने माओवादियों से हिंसा छोड़ने, हथियार डालने और आत्मसमर्पण करने की भी अपील की। नक्सली हिंसा के 55 पीड़ितों को संबोधित करते हुए गृह मंत्री ने कहा-हम इस देश से नक्सलवाद और नक्सलवाद के विचार को उखाड़ फेंकेंगे और शांति स्थापित करेंगे। नरेंद्र मोदी सरकार बस्तर के 4 जिलों को छोड़कर पूरे देश में नक्सलवाद को खत्म करने में सफल रही है।
भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग ज़िले के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी। नक्सलबाड़ी गांव के नाम पर ही उग्रपंथी आंदोलन को नक्सलवाद कहा गया। ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों पर किये जा रहे उत्पीड़न पर अंकुश लगाने के लिये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेता सामने आए। इन नेताओं में चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी का नाम प्रमुख है।
कुछ कम्युनिस्टों द्वारा गुरिल्ला युद्ध के ज़रिये राज्य को अस्थिर करने के लिये हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है। इसे ही नक्सलवाद कहा जाता है। भारत में ज़्यादातर नक्सलवाद माओवादी विचारधाराओं पर आधारित है। इसके ज़रिये वे मौजूदा शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहते हैं और लगातार युद्ध के ज़रिये 'जनताना सरकार' लाना चाहते हैं। भारत में जहां वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था वहीं आज का माओवाद चीन से प्रभावित है। ये मौजूदा माओवाद हिंसा और ताकत के बल पर समानांतर सरकार बनाने का पक्षधर है। इसके अलावा अपने उद्देश्य के लिये ये किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं। इसके साथ ही इन दिनों शहरी नक्सलवादी गतिविधियां भी देखने को मिल रही हैं।
दरअसल नक्सलवाद सामाजिक-आर्थिक कारणों से उपजा था। आदिवासी गरीबी और बेरोज़गारी के कारण एक निचले स्तर की जीवनशैली जीने को मज़बूर हैं। आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, खेती की दुर्दशा अभी भी जस की तस बनी हुई है। यकीनन इस तरह की समस्याओं में हमेशा असंतोष के बीज होते हैं जिनमें विद्रोह करने की क्षमता होती है। इन्हीं असंतोषों की वजह से ही नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है।
नक्सलियों का कहना है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिये लड़ रहे हैं जिनकी सरकार ने दशकों से अनदेखी की है। वे ज़मीन के अधिकार एवं संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। माओवाद प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल हैं और यहां जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं लेकिन इन इलाकों की प्राकृतिक संपदा के दोहन में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने कोई कमी नहीं छोड़ी है।
यहां न सड़कें हैं, न पीने के लिये पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं और न ही रोज़गार के अवसर हैं। नक्सलवाद के उभार के आर्थिक कारण भी रहे हैं। नक्सली सरकार के विकास कार्यों के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करते हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों का विकास नहीं होने देते और उन्हें सरकार के खिलाफ भड़काते हैं। वे लोगों से वसूली करते हैं एवं समांतर अदालतें लगाते हैं। प्रशासन तक पहुंच न हो पाने के कारण स्थानीय लोग नक्सलियों के अत्याचार का शिकार होते हैं।
अशिक्षा और विकास कार्यों की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच गठबंधन को मज़बूत बनाया है। सामाजिक विषमता ही वर्ग संघर्ष की जननी है। नक्सलवाद की विकटता को देखते हुए वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसको राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ी चुनौती बताया। उसके बाद गृह मंत्रालय में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिये एक अलग प्रभाग बनाया गया।
सरकार वामपंथी चरमपंथ से प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे, कौशल विकास, शिक्षा, ऊर्जा और डिजिटल कनेक्टिविटी के विस्तार पर काम कर रही है। सरकार वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें बनाने की योजना पर तेज़ी से काम कर रही है और वर्ष 2022 तक 48,877 किमी. सड़कें बनाने का लक्ष्य रखा गया था। वर्ष 2013 में आजीविका योजना के तहत 'रोशनी' नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित ज़िलों में युवाओं को रोज़गार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके। वर्ष 2017 में नक्सल समस्या से निपटने के लिये केंद्र सरकर ने आठ सूत्रीय समाधान नाम से एक कार्ययोजना की शुरुआत की है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए केन्द्र सरकार की ओर से बनाई गई नई पुनर्वास नीति ने इन प्रयासों के बेहतर परिणाम आने की उम्मीद जगाई है। केन्द्र सरकार ने भी इस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारों को हरसंभव मदद प्रदान की है। समन्वय और प्रभावी हो, इसी इरादे से केंद्र सरकार ने नई पुनर्वास नीति लागू करने की ओर कदम बढ़ाया है और नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने के लिए इस कदम को प्रोत्साहन का स्तर बढ़ाने के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि पुनर्वास की पुरानी नीतियों के भी सकारात्मक परिणाम आते रहे हैं। इसी साल करीब 800 माओवादियों ने आत्मसमर्पण भी किया है। आत्मसमर्पण करने वालों में ऐसे नक्सली तक थे जिन पर 20-20 लाख रुपए का इनाम रखा हुआ था। फिर भी यह महसूस किया जा रहा था कि पुनर्वास की दिशा में कुछ और प्रयासों की जरूरत है।
एक तरफ जहां इस समस्या की वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही है वहीं दूसरी ओर इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है। यही कारण है कि जानकारों की नज़रों में नक्सलवाद सियासी दलों का एक 'चुनावी तवा' है जिस पर मौका मिलते ही रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है।
वर्तमान में सर्वाधिक नक्सल प्रभावित 30 ज़िलों में जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं। हिंसा का रास्ता छोड़कर समर्पण करने वाले नक्सलियों के लिये सरकार पुनर्वास की भी व्यवस्था करती है। छत्तीसगढ़ देश का सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्य है, इसलिए पुनर्वास शिविर भी छत्तीसगढ़ में लगाए जाएंगे। पांच जिलों में इसके इंतजाम किए गए हैं। नई नीति के तहत आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को आर्थिक सहायता के तौर पर तुरंत डेढ़ लाख रुपए देने, भूखंड आवंटित करने, होम लोन प्रदान करने जैसे प्रोत्साहन के अन्य प्रावधान भी किए गए हैं। अगर ये नीति जमीन पर लागू हुई तो उम्मीद की जा सकती है कि 2026 तक नक्सलवाद पूरी तरह खत्म होने का लक्ष्य हासिल हो जाएगा।

– रोहित माहेश्वरी