हाल ही में एक खबर बड़ी तेजी से वायरल हुई कि मध्य प्रदेश के शाजापुर में एक आईएएस अधिकारी किशोर कान्याल ने ट्रक एसोसिएशन के साथ बैठक में एक ट्रक ड्राइवर को कह दिया कि तुम्हारी औकात क्या है? मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने कान्याल को तत्काल कलेक्टर पद से हटा दिया। मीडिया ने जब संबंधित ड्राइवर से उसकी टिप्पणी पूछी तो उसने कहा- 'सवाल यही तो है कि हमारी औकात क्या है?' इस घटना के साथ ही मुझे लोकमत महाराष्ट्रीयन ऑफ द इयर अवार्ड का मंच याद आ गया जब प्रख्यात फिल्म कलाकार नाना पाटेकर ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से सवाल पूछा था कि हम मतदाताओं की कोई कीमत है क्या?
इसी सप्ताह हम गणतंत्र दिवस की 74वीं वर्षगांठ मनाएंगे और गणतंत्र के 75वें वर्ष अमृतकाल में प्रवेश कर जाएंगे। ऐसे में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि इस देश में आम आदमी की हैसियत वाकई क्या है? इस सवाल पर चर्चा करने से पहले एक बात की चर्चा कर दूं कि दुनिया को गणतंत्र का तोहफा भारत ने ही दिया था। कोई ढाई हजार साल पहले वैशाली के लिच्छवि राजाओं ने गणतांत्रिक व्यवस्था कायम की थी। संयुक्त राष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिच्छवि गणराज्य की चर्चा भी की थी लेकिन अभी हम इतिहास नहीं मौजूदा दौर की चर्चा कर रहे हैं।
सैद्धांतिक तौर पर देखें तो हम मतदाता सर्वशक्तिमान हैं, हम जिसे चाहें सत्ता के शिखर पर पहुंचा दें और जिसे चाहें सत्ता से उखाड़ फैंकें। जब हम नाराज होते हैं तो ऐसा करते भी हैं, हमारी शक्ति में हमें कोई संदेह भी नहीं है लेकिन सवाल तो दो चुनावों के बीच के उन पांच वर्षों के दौरान का है जब सरकार अपनी मर्जी से चल रही होती है। उस दौरान इस तंत्र में आम आदमी की कीमत क्या है? और कान्याल के शब्दों में 'औकात क्या है?' मुझे अपने देश के तंत्र को त्रिआयामी यानी थ्री डायमेंशनल तरीके से देखने का मौका मिला है।
मैं आम मतदाता के साथ राजनेता भी हूं और पत्रकार भी हूं इसलिए जानकारियों तक मेरी पहुंच बहुत गहराई तक हो जाती है। मैं सत्ता को परखने के साथ तंत्र को भी परखता हूं और गण यानी आम आदमी की भूमिका का भी विश्लेषण करता हूं। सबसे पहले बात करते हैं उस गण की जो वोट देते वक्त सबसे पहले यह देखता है कि उम्मीदवार किस जाति, किस धर्म और किस प्रदेश का है? धर्म, जाति और प्रदेश जब देश से बड़ा हो जाए तो यह गंभीर चिंता की बात है। कई मतदाता तात्कालिक लाभ वाले प्रलोभनों में भी पड़ जाते हैं, ऐसा मतदाता इस बात की परवाह नहीं करता कि किसके जीतने से देश का या राज्य का कितना भला होगा? इसका नतीजा है कि लोकतंत्र के मंदिर में कई बार खंडित मूर्तियां भी स्थापित हो जाती हैं। ऐसी मूर्तियां तंत्र में बड़ी चालाकी से घुसती हैं और उसे अपने अनुकूल बना लेती हैं। तब गण गौण हो जाता है। तंत्र दूर हो जाता है।
निश्चित रूप से सरकार की सारी योजनाओं का लक्ष्य यही होता है कि आम आदमी की जिंदगी सुलभ हो लेकिन जब तंत्र में विसंगतियां आ जाती हैं तो उसका खामियाजा गण को ही भुगतना पड़ता है। मैं दो उदाहरण आपके सामने रखता हूं। इस संबंध में मैंने पहले भी लिखा है लेकिन एक बार फिर जिक्र कर रहा हूं क्योंकि ये घटनाएं तंत्र की विफलता को परिभाषित करती हैं। सरकार करोड़ों लोगों को मुफ्त में अनाज दे रही है लेकिन झारखंड में यदि कोई महिला केवल इसलिए भूख से मर जाती है कि उसके पास राशन कार्ड नहीं है इसलिए उसे मुफ्त में अनाज नहीं मिल सकता तो इसे आप क्या कहेंगे। जिस अधिकारी के पास यह मामला सबसे पहले पहुंचा होगा, उसने यदि संवेदनशीलता का परिचय दिया होता तो वैभव की दिशा में बढ़ रहे देश में वो दर्दनाक मौत न हुई होती।
दूसरी घटना भी आपको याद ही होगी कि सरकारी अस्पताल में एंबुलेंस रहते हुए भी एक व्यक्ति को वो नहीं दी गई और वह व्यक्ति पत्नी की लाश को कंधे पर ढोकर गांव ले जाने पर मजबूर हुआ। महाराष्ट्र के मेलघाट में कुपोषण और बीमारियों से हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत हो जाती है, देश में न जाने ऐसे कितने आदिवासी क्षेत्र हैं और वहां न जाने क्या होता होगा। ऐसी और भी घटनाएं हैं।
सवाल यह है कि सरपंच से लेकर जिला परिषद अध्यक्ष, नगराध्यक्ष, मेयर, विधायक, सांसद या मंत्री शक्तिसंपन्न स्थान पर होने के बावजूद यदि अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा पाते हैं तो उनके खिलाफ हमारा गण सामुदायिक रूप से आवाज उठाने की हिम्मत क्यों नहीं करता है? ये ताकत उसमें क्यों नहीं है? यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि तंत्र को सुचारू बनाए रखने में सरकार से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका गण की होती है। यदि आपके गांव के मेडिकल सेंटर पर डॉक्टर नहीं आता तो क्या विरोध में आपको खड़ा नहीं होना चाहिए? यदि आपके शहर में ट्रैफिक का बुरा हाल है तो खुद ट्रैफिक नियमों का पालन करने और दूसरों को विवश करने के लिए क्या आपको भी प्रयास नहीं करना चाहिए? लेकिन आप सोचते हैं कि कौन पचड़े में पड़े? जैसा चल रहा है चलने दो, अपन तो सुकून से हैं न। सुकून की यही सोच तंत्र को धीरे-धीरे ध्वस्त कर देती है, मुझे माखनलाल चतुर्वेदी की कुछ अमर पंक्तियां याद आ रही है…
हाय, राष्ट्र-मंदिर में जाकर
तुमने पत्थर का प्रभु खोजा!
लगे मांगने जाकर रक्षा और स्वर्ण-रूपे का बोझा?
मैं यह चला पत्थरों पर चढ़
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा
फूंक जला दें सोना-चांदी
तभी क्रांति का सुमन खिलेगा…