एक देश-एक चुनाव ऐसा विचार है जो भारत जैसे विविधता भरे देश के मूल ताने-बाने के खिलाफ ही नहीं बल्कि भारतीय संविधान के मूल चरित्र के भी विरुद्ध है। मगर इन सबसे ऊपर यह भारत के उस संघीय ढांचे की सुगठित बनावट के अन्तर्स्वरों के साथ लोकतन्त्र की स्वतन्त्र स्वर लहरी के प्रतिकूल भी है जिसमें प्रत्येक राज्य को अपनी संस्कृति के अनुसार राजनैतिक चेतना जागृत करने के अधिकार संविधान की पृथक राज्य सी के तहत दिये गये हैं। सबसे पहले यह स्पष्ट होना चाहिए कि भारत राज्यों का एेसा संघ (यूनियन आफ इंडिया) है जिसके सदस्य प्रत्येक राज्य को अपनी भौगोलिक व सामाजिक संरचना को देखते हुए अपने लोगों के विकास करने के संवैधानिक अधिकार दिये गये हैं।
इन अधिकारों की पूर्ति केवल राजनैतिक नेतृत्व के माध्यम से ही हो सकती है अतः प्रत्येक राज्य की राजनीति में हम गुणात्मक बदलाव भी देखते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की राजनैतिक परिस्थितियां और चेतना कर्नाटक से पूरी तरह अलग हैं या केरल से पूरी तरह भिन्न हैं। भारतीय राष्ट्रवाद के भीतर विभिन्न उपराष्ट्रीयताएं विद्यमान रहती हैं। जिस प्रकार पंजाब की उपराष्ट्रीयता बिहार से पूरी तरह अलग है मगर इसके बावजूद दोनों राज्य भारतीय संघ का अभिन्न अंग हैं और इनके लोग आपस में एक-दूसरे को सच्चे भारतीय समझते हैं। जाहिर तौर पर सभी अलग-अलग राज्यों की राजनैतिक अपेक्षाएं व जरूरतें अलग-अलग होंगी क्योंकि इन सभी की सामाजिक बुनावट अलग-अलग है और राजनीति भी अलग है। जिस प्रकार हम बिहार में अकाली दल की कल्पना नहीं कर सकते उसी प्रकार पंजाब में राष्ट्रीय जनता दल के लिए कोई जगह नहीं देखते हैं परन्तु जब राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव की बात आती है तो इन्ही राज्यों के लोगों की वरीयताएं बदल जाती हैं।
बेशक किसी-किसी राज्य में स्थानीय क्षेत्रीय दल भी लोगों की वरीयताओं में रहते हैं परन्तु उनका किसी न किसी राष्ट्रीय दल के साथ गठजोड़ रहना भी जरूरी शर्त रहती है। हम एक राष्ट्र-एक चुनाव के विचार को केवल इस डर से स्वीकार नहीं कर सकते कि एेसा करने से क्षेत्रीय दलों का प्रभाव कम होगा। एक साथ चुनाव कराने की वकालत करके हम भारत के विभिन्न राज्यों के मतदाताओं की बुद्धिमत्ता को चुनौती देने का काम भी करेंगे क्योंकि उन्हें संविधान ने अपने राज्यों की समस्याओं का हल क्षेत्रीय स्तर पर सुलझाने का अधिकार दिया है। उनकी क्षेत्रीय समस्याओं को राष्ट्रीय समस्याओं के साथ गड्डमड्ड करके हम राजनैतिक एकरूपता का एेसा विमर्श गढ़ने की चेष्टा करेंगे जिससे अन्त में भारत की विविधीकृत एकता को ही नुकसान पहुंचेगा।
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में इस मसले पर गठित समिति ने जो पूरे देश में एक साथ लोकसभा व विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव कराने का सुझाव दिया है वह पूरी तरह अव्यावहारिक और हवाई लगता है। यह समिति कहती है कि लोकसभा के चुनावों के साथ विधानसभा चुनाव कराने के लिए लोकतन्त्र के उस सिद्धान्त को ताक पर रख देना चाहिए जिसमें जनता पांच साल के लिए अपने नुमाइन्दों को चुन कर भेजती है। इसका सुझाव है कि लोकसभा चुनावों से विधानसभा चुनावों का समय तय करने में यदि बीच में ही किसी राज्य की सरकार गिर जाती है तो पुनः चुनाव तो होंगे मगर वह पांच साल में बची शेष अवधि के लिए होंगे। क्या कोविन्द साहब यह गारंटी दे सकते हैं कि किसी भी राज्य की राजनैतिक परिस्थितियां सदा एक समान रहेंगी। यदि पुनः चुनाव कराने के बाद फिर से सरकार गिर जाती है तो फिर से चुनाव शेष अवधि के लिए होंगे।
एक देश-एक चुनाव की परिकल्पना कोई नई नहीं है। इस बारे में पिछले पांच दशक से चर्चा होती रही है और संविधान आयोग तक इस पर विचार करके अपने हाथ खड़े कर चुका है। दीगर सवाल यह है कि यदि लोकसभा चुनाव समय पर होने के बाद ही कोई सरकार अविश्वास प्रस्ताव या अन्य कारणों से गिर जाती है तो संसद की शेष अवधि के लिए फिर से चुनाव कराये जायेंगे। सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि कितने राजनैतिक दल एक साथ चुनाव कराये जाने के पक्ष में हैं और कितने इसके विरोध में हैं बल्कि असली सवाल यह है कि राज्यों की जनता क्या सोचती है क्योंकि आजादी मिलने पर इसके लोगों को जो एक वोट का सबसे बड़ा संवैधानिक अधिकार गांधी बाबा और डा. अम्बेडकर देकर गये हैं उसका क्या हश्र होगा? लोकतन्त्र में अपनी इच्छा की सरकार पांच साल तक गठित करने का हक इसकी मार्फत भारत के लोगों को मिला हुआ है और वह स्थानीय स्तर से लेकर प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर पर अपने मनपसन्द प्रतिनिधियों को हर स्तर की समस्याओं को सामने रख कर चुनती है।
संविधान निर्माता बहुत सोच- समझ कर ही अलग-अलग चरणों में एेसा करने का उसे अधिकार देकर गये हैं। एक साथ चुनाव करा कर हम मतदाता के इस अधिकार को ही कहीं न कहीं सीमित करने का प्रयास करेंगे। बेशक 1967 तक पूरे देश में पूर्व स्थापित प्रणाली के तहत ही राज्यों व लोकसभा के चुनाव एक साथ ही करते थे परन्तु इसके बाद भारत के भिन्न-भिन्न राज्यों के लोगों की अपेक्षाओं ने उमंग भरनी शुरू की और उन्हें लगा कि राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दल उनके विकास में प्रभावकारी भूमिका निभा सकते हैं तो इसमें गलत क्या है। कोई भी क्षेत्रीय दल भारतीय संविधान की मर्यादाओं के भीतर रह कर ही राष्ट्र की किसी भी दल की सरकार के सामने अपनी समस्याएं रख सकता है। यह कहना कि एक साथ चुनाव कराने पर खर्चा कम होगा पूरी तरह गैर तार्किक और लोकतन्त्र विरोधी है।
बड़े-बड़े राष्ट्रीय दल भी क्षेत्रीय दल के रूप में पनप कर ही ऊंचे स्तर पर पहुंचते हैं। लोकतन्त्र में चुनावों से डरने के बारे में सोचना भी गैर प्रजातान्त्रिक होता है क्योंकि जनता की अदालत ही सबसे बड़ी अदालत होती है। इस प्रणाली की असली मालिक सरकार नहीं बल्कि जनता होती है अतः उसके हुजूर में बार-बार जाने से कैसे गुरेज हो सकता है। चुनाव तो लोकतन्त्र की आत्मा होते हैं और इसे जीवन्त बनाये रखने के लिए हमें खर्चे की परवाह न करते हुए एक वोट के पवित्र अधिकार की परवाह करनी चाहिए। सबसे बड़ी चिन्ता की बात चुनावों का लगातार खर्चीला होना है। इसे कम करने के उपाय जब तक हम नहीं करेंगे तब तक लोकतन्त्र को लोकमूलक नहीं बना सकेंगे।
इस सन्दर्भ में हमें थोड़ा पीछे लौटकर अपना इतिहास टटोलना चाहिए। जब 1974 में केन्द्र में सत्तारूढ़ श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ देश के लगभग सभी विपक्षी दल स्वर्गीय जय प्रकाश के नेतृत्व में आन्दोलन कर रहे थे तो इसे सम्पूर्ण क्रान्ति का नाम दिया गया था। इस आंदोलन की प्रमुख मांगों में चुनाव सुधार भी था साथ ही चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी था। तब यह नारा बहुत तेजी से उछाला जाता था कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल तक इन्तजार नहीं किया करती हैं। यह उक्ति डा. राम मनोहर लोहिया की थी जिसे आन्दोलनकारी बड़ी जिम्मेदारी के साथ दोहराया करते थे। इस आन्दोलन में जनसंघ भी शामिल थी। 1977 में इंदिरा गांधी की सत्ता पलटने के बाद सभी विपक्षी नेताओं ने इस नारे को भुला दिया और चुनाव सुधारों के लिए एक शकधर आय़ोग का गठन कर दिया। इसकी रिपोर्ट भी बट्टे खाते में डाल दी गई। एक देश एक चुनाव के पक्ष में रामनाथ कोविन्द समिति ने जो सिफारिशें की हैं वे भारत की विविधीकृत राजनीति से कितना मेल खाती हैं और संविधान की कसौटी पर कितना खरा उतरती हैं, यह देखने वाली बात होगी।