संपादकीय

जम्मू-कश्मीर में आतंक का दंश

Aditya Chopra

जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ अभियान के संबंध में दावे चाहे जो भी हों लेकिन वास्तविकता यही है कि वहां आए दिन आतंकवादियों के हमले हो रहे हैं। चुनाव की दहलीज पर खड़े जम्मू-कश्मीर के लोग मतदान का इंतजार कर रहे हैं। पहले चरण में 18 सितम्बर को मतदान होना है। ऐसे समय पर आतंकवादी चुनाव पर असर डालने की फिराक में हैं। 5 अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद कश्मीर में अमन की वापसी और विकास के नए दौर की शुरूआत हुई है लेकिन आतंकवादी संगठनों का दंश देश के सुरक्षा बलों को झेलना पड़ रहा है। सुरक्षा बलों के अधिकारी और जवान शहीद हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनावी रैली से पहले किश्तवाड़ में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में दो जवानों की शहादत ने चिंताएं बढ़ा दी हैं। हालांकि सुरक्षा बलों ने तीन आतंकवादियों को भी मार गिराया है। चार दशकों में डोडा में किसी प्रधानमंत्री की पहली रैली हुई है। डोडा, किश्तवाड़ और रामवन जिलों में 8 विधानसभा क्षेत्रों में पहले चरण का मतदान होगा। इसके साथ ही दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग, पुलवामा, शोपियां और पुलगाम जिलों में भी 16 सीटों पर मतदान होने वाला है। जम्मू-कश्मीर चुनावों में सुरक्षा की चुनौती बनी हुई है। पिछले चार महीनों में लगभग दो दर्जन से भी ज्यादा जवान शहीद हो चुके हैं।
जम्मू क्षेत्र आमतौर पर कई वर्षों से कश्मीर की अपेक्षा ज्यादा शांत रहा है। मगर बीते कुछ समय से इसके कुछ इलाकों में भी आतंकवादी गतिविधियां बढ़ी हैं। लोकसभा चुनावों में जिस तरह से राज्य के लोगों ने उत्साह के साथ मतदान किया उससे विधानसभा चुनावों में भी लोगों के बढ़-चढ़कर भाग लेने की उम्मीद बन रही है। आतकंवादी संगठनों के पाकिस्तान में बैठे आकाओं को यह सब सहन नहीं हो रहा। अगर राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती ​िमलती है आैर लोग अधिक से अधिक वोट डालकर लोकतंत्र में अपनी आस्था व्यक्त करते हैं, सरकार में जनता की भागीदारी बढ़ती है तो इससे आतंकवादी गिरोहों के नापाक इरादों पर पानी फिर जाएगा। यही कारण रहा कि आतंकवादी सुरक्षा बलों या रोजी-रोटी कमाने के लिए बाहर से आए प्रवासी लोगों की हत्याएं करने में लगे हुए हैं। आतंकवादियों ने कभी बिहार के मजदूरों को निशाना बनाया तो कभी उत्तर प्रदेश के श्रमिकों को। 90 के दशक में जम्मू खासकर कठुआ आतंकवादियों का ​ठिकाना हुआ करता था। कश्मीर के सबसे अस्थिरता के दौर में कठुआ पनाहगार बना हुआ था। अब एक बार फिर ऐसा ही दिख रहा है। दरअसल इस जिले की बनावट ऐसी है जहां छिपना-छिपाना आसान है। जंगलों से सटे क्षेत्र में हमले के बाद आतंकवादी गायब हो जाते हैं।
जिले के एक तरफ हिमाचल की सीमा लगती है तो दूसरी तरफ हिमाचल और पंजाब हैं। आतंकवादी गुट लगातार हमले कर क्षेत्र में अस्थिरता और डर पैदा करना चाह रहे हैं ताकि राजनीतिक ढांचे के साथ-साथ आम लोगों की भावनाओं से भी छेड़छाड़ की जा सके। घाटी में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कई आतंकवादी गुट छद्म नामों से सक्रिय हो चुके हैं। टीआरएफ, जम्मू-कश्मीर गजनबी फोर्स, कश्मीर टाइगर्स, जम्मू-कश्मीर रजिडैंट्स फोर्स, पीपल्स एंटी फासिस्ट फ्रंट इन्हीं में से हैं। इन छद्म संगठनों को बड़े आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का संरक्षण प्राप्त है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जम्मू-कश्मीर में माहौल काफी बदला है। आतंकवादी घटनाओं पर काफी हद तक नियंत्रण पा लिया गया है। एक दौर था जब श्रीनगर का लाल चौक एक जनाजागढ़ बन गया था। आतंकवा​िदयों के बड़े-बड़े जनाजे हुआ करते थे। आज लाल चौक में तिरंगे लहरा रहे हैं। घाटी के बाजारों में रौनक है। होटल, हाऊस बोट और रेस्त्रां चलाने वाले भी खुश हैं, क्योंकि भारी संख्या में पर्यटक पहुंच रहे हैं। केन्द्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि साल 2020 से लेकर 2024 तक 6 करोड़ पर्यटक जम्मू-कश्मीर पहुंचे। इस बार के विधानसभा चुनावों में खास बात यह है कि किसी ने भी चुनावों के बहिष्कार का आह्वान नहीं ​िकया। प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के नेता भी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि नेशनल काॅफ्रैंस, पीडीपी, राशिद इंजीनियर की आवामी इत्तेहाद पार्टी अनुच्छेद 370 की वापसी का मुद्दा बना रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर के बारे में हमेशा एक बात कही जाती रही है कि चुनावों में आइना बदल जाता है, चेहरे वही रहते हैं। जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुला के जमाने से नेशनल काॅफ्रैंस और मुफ्ती मोहम्मद सैय्यद के नेतृत्व वाली पीडीपी बारी-बारी से सत्ता सुख भोगते रहे हैं। नेशनल कॉफ्रैंस का नेतृत्व अब फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला कर रहे हैं, जबकि पीडीपी का नेतृत्व महबूबा मुफ्ती कर रही हैं। कौन नहीं जानता कि घाटी में जब-जब आतंकवाद बढ़ा तो फारुख अब्दुल्ला जैसे लोग विदेशों में जाकर बैठ जाते थे। हुर्रियत कॉफ्रैंस के नेताओं ने पाकिस्तान की आईएसआईएस से धन लेकर देश-विदेश में अपनी अथाह सम्पत्ति बनाई लेकिन कश्मीरी आवाम के बच्चों के हाथों में बंदूकें और पत्थर थमा दिए। जम्मू-कश्मीर में अब अलगाववादी विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं बची है लेकिन आतंकवाद कैसे समाप्त हो यह बड़ी चुनौती है। स्थानीय लोगों के बीच आतंकवाद के खिलाफ राय को मजबूत बनाने का काम राजनीतिक दलों को ही करना होगा। उम्मीद है कि जम्मू-कश्मीर के लोग अपना वोट डालकर आतंकवाद को एक बार फिर आइना दिखाएंगे।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com