संपादकीय

ये पब्लिक है सब जानती है !

Shera Rajput

भारत का लोकतन्त्र पूरी दुनिया में सबसे बड़ा इस वजह से माना जाता है क्योंकि इसका प्रत्येक नागरिक राजनैतिक रूप से 'स्वयंभू' होता है। भारत के नागरिकों को यह रूतबा बहुत लम्बे संघर्ष के बाद प्राप्त हुआ। इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए आजादी के लिए संघर्ष करने वाली हमारी पुरानी पीढि़यों ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। यह रुतबा आजादी मिलने पर प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट के अधिकार के रूप में प्राप्त हुआ। इस वोट की कीमत में कोई अन्तर नहीं रखा गया और झोंपड़ी में रहने वाले एक मजदूर की राजनैतिक हैसियत को महलों में रहने वाले किसी राजा या महाराजा के बराबर कर दिया गया।
वस्तुतः यह एक अहिंसक क्रान्ति थी जिसकी गूंज पूरी दुनिया में हुई। इस क्रान्ति के महानायक महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने 1934 में ही घोषणा कर दी थी कि स्वतन्त्र होने पर भारत संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपनायेगा जिसमें बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट का अधिकार दिया जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति के वोट की कीमत बराबर होगी चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान अथवा अन्य किसी धर्म को मानने वाला या स्त्री हो या पुरुष अथवा अमीर हो या गरीब। झोंपड़ी में रहने वाले और सड़क पर सफाई करने वाले से लेकर हवाई जहाज में उड़ने वाले या फैक्टरी या किसी मिल मालिक के वोट की कीमत एक समान होगी। जब महात्मा गांधी यह बात कह रहे थे तो आधी दुनिया साम्राज्यवाद के साये में जी रही थी जिसमें शासक देश अपने अधीन देशों की प्रजा के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते थे। पूरे अफ्रीकी महाद्वीप की जनता अंग्रेजों या समजातीय लोगों द्वारा शासित थी और भारत भी इनकी गुलामी में जी रहा था।
महात्मा गांधी की इस उद्घोषणा ने पूरी दुनिया में भारी हलचल पैदा कर दी और स्वयं ब्रिटिश हुकूमत में इस पर कोहराम मच गया। इस मुद्दे पर ब्रिटेन की संसद तक में कोहराम मचा और इसके हाऊस आफ लार्ड में लम्बी-लम्बी गंभीर बहसें हुईं। कुछ अंग्रेज विद्वानों ने कहा कि भारत ने अंधे कुएं में छलांग लगाने का निश्चय कर लिया है और कुछ ने कहा कि भारत के इस निर्णय से पूरी दुनिया के दबे-कुचले देशों के लोगों के बीच आशा की किरण फूटेगी और उन्हें स्वतन्त्र होने की प्रेरणा देगी। एेसा मत प्रकट करने वाले विद्वान ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सदस्य थे। गुलाम भारत में अंग्रेजों ने अपनी प्रिवी कौंसिल में भारत से प्रतिनिधी चुनने के लिए मुश्किल से दो प्रतिशत लोगों को ही वोट का अधिकार दिया था जिनमें मतदाताओं के नाम पर बड़े-बड़े रईसजादे व ऊंची तालीम याफ्ता लोग थे। इसमें भी 1909 में उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों में सीधा बंटवारा करने की गरज से मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था कर दी थी। बाद में 1919 में एेसी ही व्यवस्था सिखों के लिए भी की गई।
भारतीय मतदाताओं को धार्मिक पहचान देने का काम सबसे पहले अंग्रेजों ने ही किया और बाद में इसी की बुनियाद पर उन्होंने 1947 में भारत के दो टुकड़े कर दिये। महात्मा गांधी के सामने सबसे बड़ा सवाल भारत की एकता और अखंडता व धार्मिक सहिष्णुता का था। उन्होंने यह कार्य बहुत सावधानी व चातुर्य के साथ प्रत्येक नागरिक को एक समान राजनैतिक अधिकार देने की उद्घोषणा के साथ किया। उन्होंने प्रत्येक नागरिक के हाथ में इस अधिकार को देने के साथ ही इस मुल्क की बादशाहत इसकी जनता के हाथ में सौंप दी। आजादी के समय संविधान में इसी सिद्धान्त को अपनाया गया और भारत राष्ट्र की इमारत खड़ी की गई। स्वतन्त्रता के बाद जब 1952 में पहले चुनाव हुए तो संविधान के अनुसार चुनाव आयोग जैसी स्वतन्त्र व निष्पक्ष संस्था खड़ी करके इसकी छत्रछाया में पहली बार लोगों को अपने मताधिकार का प्रयोग करने का अवसर मिला जिसके लिए प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने अथक प्रयत्न किये।
पहले चुनाव अक्टूबर 1951 से मार्च 1952 तक चले। इस दौरान पं. नेहरू ने पूरे भारत में एक सौ से अधिक जनसभाएं करके लोगों से अधिक से अधिक संख्या में मतदान करने की अपील की और यह समझाने की कोशिश की कि वोट देना उनका पवित्र अधिकार है क्योंकि इसके जरिये वे अपनी मनपसन्द की सरकार ही नहीं बना सकते बल्कि खुद हुकूमत में भागीदारी कर सकते हैं। इन चुनावों में 60 प्रतिशत के आसपास मतदान हुआ। पं. नेहरू इन चुनावों में लोगों से यह कहना नहीं भूले कि अब वे किसी राजा या नवाब की रियाया नहीं बल्कि खुद इस मुल्क के बादशाह हैं और अपने एक वोट का इस्तेमाल करके खुद अपनी किस्मत लिख सकते हैं फिर चाहे वे वोट किसी भी राजनैतिक दल को दें। भारत के पहले ही चुनावों में विभिन्न विपक्षी दलों को 40 प्रतिशत से अधिक वोट मिले।
अतः 1952 के चुनावों से ही यह स्थापित हो गया कि भारत में सत्तारूढ़ दल के पास सारी सरकारी मशीनरी होने के बावजूद सारी ताकत जनता के पास ही होती है। यह अवधारणा किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं पं. जवाहर लाल नेहरू ने ही जमाई। इससे भारत में लोकतन्त्र पुख्ता हुआ और असहमति व विचार भिन्नता इसका अन्तरंग भाग बना। तब से लेकर आज तक भारत के लोकतन्त्र की बुनियाद का यह परम सिद्धान्त हमें चुनावों में विभिन्न राजनैतिक दलों की गतिविधियों में नजर आता है और इसी के अनुरूप संसद से लेकर विधानसभाओं की संरचना होती है। इसके मूल में हम जो लोक किंवदन्ति पाते हैं वह यह है कि 'पब्लिक सब जानती है'। लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष के पास सारी सरकारी अमला होने के बावजूद जनता स्वतन्त्र पक्ष रहती है। हकीकत में लोकतन्त्र को चलाने वाली यही होती है क्योंकि उसके ही वोट से सत्ता पक्ष और विपक्ष का निर्माण होता है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह भी होती है कि विपक्ष के पास सिवाय जनता के कोई दूसरी ताकत नहीं होती।
भारत के पहले चुनावों से लेकर अब तक यही सिद्ध होता रहा है। यदि एेसा न होता तो हम केन्द्र में विभिन्न राजनैतिक दलों की सरकारों को अदलते-बदलते न देखते। इसकी जड़ में यही फार्मूला काम करता है कि 'ये पब्लिक है सब जानती है'। चुनावों में यह सत्ता पक्ष का रुआब ढीला करके उसे विपक्ष में भी बैठा सकती है और पुनः उसे सत्ता से भी नवाज सकती है। हर पांच साल बाद यह सत्ता पर बैठी सरकार का उसके किये गये काम के अनुसार मूल्यांकन करती है। प्रत्येक मतदाता का अपना मूल्यांकन फार्मूला होता है और प्रत्येक राजनैतिक दल का अपना पैमाना। मगर जब मतदाता पब्लिक के सामूहिक गठबन्धन में जुड़ता है तो वह मनमाफिक नतीजे देता है। इसकी वजह एक ही होती है कि पब्लिक सत्ता पक्ष व विपक्ष के सारी राजनैतिक पैंतरेबाजी का शिकार खुद ही बनती है।
अतः विपक्ष और सत्ता पक्ष उसे लेकर कभी भी आश्वस्त नहीं हो सकते। इसकी सबसे बड़ी वजह यही होती है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष के सभी प्रयोग उसी पर होते हैं। चुनाव इन्हीं प्रयोगों के प्रतिफल होते हैं। राजनैतिक नेता केवल इन प्रयोगों के व्याख्याकार होते हैं मगर जनता इन्हें महसूस करती है। सत्ता पक्ष के पास सब कुछ होता है और विपक्ष के पास केवल जनता का आसरा होता है। लोकतन्त्र का मुख्य केन्द्र यही होता है जिसकी मालिक जनता होती है। इसी कारण यह किंवदन्ति उभरी है कि ये पब्लिक है सब जानती है। गांधी बाबा यही अस्त्र तो हमें देकर गये हैं।

– राकेश कपूर