संपादकीय

चुनावी बांड पर यह हंगामा !

Shera Rajput

आखिरकार यह बिना किसी बात के बहुत ज्यादा हंगामे का मामला निकला। चुनावी बांड के बारे में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर किए गए खुलासे से ऐसा कुछ भी पता नहीं चला, जिससे राजनीति में पैसे की भूमिका से परिचित किसी भी व्यक्ति को आश्चर्य हो। पैसा राजनीति की जान है। अकेले भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में। (वर्तमान में सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी एक अश्वेत सांसद के खिलाफ नस्लवादी टिप्पणी को लेकर संकट का सामना कर रही है, जिसने 2019 में पार्टी को दस मिलियन दिए थे)।
कांग्रेस पार्टी ने खुद को आश्वस्त कर लिया था कि चुनावी बांड के खुलासे से भाजपा बैकफुट पर आ जाएगी, जिससे अडानी कॉरपोरेट घराने और पार्टी के बीच सांठगांठ का खुलासा हो जाएगा। लेकिन चुनाव आयोग के माध्यम से एसबीआई द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी अडानी और सत्तारूढ़ दल के बीच संबंध स्थापित करने के लिए रत्ती भर भी सबूत नहीं देती है। वास्तव में, खुलासे से पता चलता है कि सामूहिक रूप से विपक्षी दलों को चुनावी बांड के माध्यम से लगभग आधा धन प्राप्त हुआ। कुल खरीदे गए बांड का लगभग आधा हिस्सा भाजपा को मिला तो बाकी गैर-भाजपा दलों को मिला। इनमें से, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 1,609 करोड़ रुपये मिले, जबकि 1,421.9 करोड़ रुपये के साथ कांग्रेस पार्टी तीसरी सबसे बड़ी प्राप्तकर्ता थी।
अप्रैल 2019 से जनवरी 2024 तक बांड के माध्यम से विभिन्न पार्टियों को कुल मिलाकर 12,155 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। 6060.5 करोड़ रुपए के साथ भाजपा सबसे बड़ी प्राप्तकर्ता थी। चूंकि भाजपा केंद्र समेत कई राज्यों में सत्ता में है, ऐसे में उसके सबसे बड़ी प्राप्तकर्ता होने के तौर पर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह अपने आप में एक राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सकता, क्योंकि गणतंत्र की शुरुआत से ही सत्तारूढ़ दल अधिकतम राजनीतिक चंदा प्राप्त करता आया है। जब यही भाजपा सत्ता से बाहर थी तो उसे सत्ता में रही कांग्रेस को मिले धन के मुकाबले बहुत ही कम मिला था। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के उत्पीड़न के डर से कारोबारी भाजपा को दान देने से डरते थे। 60 और 70 के दशक की शुरुआत में, सीआर राजगोपालचरी ने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की थी, जिसने लाइसेंस-कोटा-परमिट राज का कड़ा विरोध किया था और एक उदार आर्थिक नीति की मांग की थी। इसके बाद कई कॉरपोरेट घरानों ने इसे दान दिया। स्वतंत्र पार्टी की फंडिंग से इंदिरा गांधी इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने राजनीतिक दलों को कारपोरेट चंदा देने पर प्रतिबंध लगा दिया।
सच तो यह है कि राजनीति और पैसा एक-दूसरे से जुड़े हुए अविभाज्य जुड़वां बच्चे हैं। कोई भी पार्टी बड़ी रकम के बिना चुनावी राजनीति में टिके रहने की उम्मीद नहीं कर सकती। यहां तक ​​कि एक पार्टी ने काले रंग में एक पैसा न लेने की कसम खाकर, दानदाताओं के नाम अपनी वेबसाइट पर डालने का वादा ​िकया था और अब यही पार्टी मौज कर रही है और चंदा इकट्ठा कर रही है। पहले के वर्षों में चुनाव की पूर्व संध्या पर कई नेता लोग बड़ी-बड़ी कम्पनियों को धमकी देकर चंदा इकट्ठा करती रही हैं।
इस प्रकार इन व्यवसायों के मालिक सामूहिक रूप से सत्तारूढ़ दल के लिए एक 'थाली' पेशकस करते थे, ताकि अपने व्यवसाय पर मंडरा रहे खतरे से बच सकें। इस बीच, राजनीतिक दलों को फंड देने के और भी तरीके हैं। उदाहरण के लिए, कथित तौर पर चुनावों में विभिन्न पार्टियों के लिए कुछ विमान तैयार कर रखे थे ताकि उनका सारा खर्च अपने ऊपर ले लें और समय आने पर अपने धंधे में उसकी वसूली भी की जाएगी। अधिकांश समय, व्यावसायिक घराने राजनेताओं के लिए मार्ग-विशिष्ट खुली हवाई यात्रा टिकट खरीदते हैं। कुछ अन्य लोग पार्टी की प्रचार सामग्री और उसके विज्ञापन अभियान की छपाई के लिए भुगतान करते हैं। मतदाता इतने संशयवादी हो गए हैं कि राजनीतिक दलों को कौन फंड करता है, यह उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश भारतीयों ने भ्रष्टाचार को अपनी जीवन शैली के रूप में आत्मसात कर लिया है। जब एक सब्जी या फल विक्रेता अपना व्यापार करने के लिए कांस्टेबल को 'हफ्ता' देता है तो उसे व्यक्तिगत रूप से सार्वजनिक जीवन लगता है कि 'पैसा बोलता है'।
जब मतदाता चुनाव के समय साड़ी, स्टील के बर्तन, शराब की बोतलें, यहां तक ​​कि करेंसी नोट जैसी मुफ्त चीजें स्वीकार करते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि राजनेताओं को कहीं से पैसा मिला है। यह उनके लिए उस लूट में हिस्सा लेने का मौका है जो राजनेता पांच साल तक करते हैं। दरअसल, आपत्ति यह है कि चुनावी बांड योजना को रद्द करके सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर राजनीतिक चंदे को अंडर ग्राउंड कर दिया है।

– वीरेंद्र कपूर