इस शख्स ने अपनी मृत्यु से चार दिन पहले ही अपनी श्रद्धांजलि लिख दी थी। वह शख्स बिबेक देबराय अपने समय का शिखर-अर्थशास्त्री रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रमुख आर्थिक सलाहकार होने के साथ-साथ वह अपने समय का सबसे बड़ा अनुवादक भी था। चारों वेद, 18 पुराण और अन्य अनेक महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथों के अंग्रेजी-अनुवाद सम्पन्न करने वाले इस शख्स ने आत्म-श्रद्धांजलि में कुछ विलक्षण अनुभव सांझे किए। लम्बे समय से एक अंग्रेजी दैनिक के लिए स्थायी स्तम्भ लिखने वाले बिबेक देबराय ने इस बार भी 28 अक्तूबर को अपना स्तम्भ लिखा और उसे स्वयं ही एक ‘असामान्य स्तम्भ’ बताते हुए अपने समाचार पत्र को भेज दिया।
लगभग एक माह तक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के ‘सीसीयू’ के एक प्राइवेट कक्ष में ही अपना अंतिम स्तम्भ लिखा और साथ ही अपनी मृत्यु के बाद संभावित श्रद्धांजलियों को भी स्वयं ही लिख डाला। उसने यह भी लिख डाला,‘मेरी जि़ंदगी से बाहर भी एक दुनिया है जो कायम रहेगी। यदि मैं न भी रहा तो क्या फर्क पड़ेगा। श्रद्धांजलियां आएंगी। मेरे निधन को एक अपूरणीय क्षति घोषित किया जाएगा। संभवत: मेरे लिए एक मरणोपरांत ‘पद्मविभूषण’ का सम्मान भी घोषित किया जाए। श्रद्धांजलियों में ‘राजीव गांधी इंस्टीच्यूट में वर्ष 2005 में त्यागपत्र देने का जि़क्र होगा। वर्ष 1980 के दशक में मेरे द्वारा प्रस्तावित वाणिज्यिक-सुधारों, वर्ष 1990 के दशक में सुझाए गए कानून-संशोधन प्रस्तावों, वर्ष 2015 के रेल-सुधारों आदि के लिए मेरी प्रशंसा होगी और मेरे बाद ये सब फाइलों में आ के सरक जाएंगी।’
मुझे याद है कि अर्थशास्त्री मन्मण दास दत्त अपनी एक ‘पुरानी परियोजना अधूरी छोड़ गए थे और कह गए थे, उसे पूरा करने के लिए मैं फिर से जन्म लूंगा। मुझे सिर्फ इतना मलाल है कि मैं 70 वर्ष की उम्र में भी बहुत कुछ दे पाने, लिख पाने में समर्थ हूं और बिना कुछ और दिए चला जाऊंगा। मगर दस वर्ष और जिया भी तो सामाजिक मूल्यों में क्या लम्बा-चौड़ा बदलाव ला पाऊंगा। बहुत से लोग मेरे कार्यों से संतुष्ट भी होंगे और उनकी संख्या भी कम नहीं होगी, जो असंतुष्ट हैं। वे मेरे जाने पर राहत महसूस कर सकते हैं।’ सामाजिक एवं रिश्तों के धरातल पर मैं ज्यादा खोने नहीं जा रही। मेरे बेटे विदेश में बसे हैं। वह शायद न आ पाएं। ज्यादा से ज्यादा वे कुछ धन मां को भेज सकते हैं, ताकि ज़रूरत पर उसका उपयोग हो सके।
वैसे भी एक माह की अस्पताली जि़ंदगी उभाऊ होने लगती है। बेमतलब, बोरियत का एहसास देने वाली। हां, मेरी पत्नी सुपर्णा को अवश्य मेरी कमी शेष जि़ंदगी में महसूस हो सकती है। मुझे ‘ययाति’ का भी ध्यान आ रहा है। क्या अब परकाया-प्रवेश जैसी बातें या ‘प्रयोपवास’ सरीखी बातें याद आ जाएं। मुझे अष्टावक्र की गीता और सलमान रश्दी की वृति ‘नाइफ (चाकू)’ याद आ रही है। अष्टावक्र ने कहा, 'अरे जनक अपने आपको अपनी काया से मुक्त करो।
इसी संदर्भ में लगभग 5 खराब रुपए की सम्पत्ति के मालिक राकेश झुनझुनवाला (बिग बुल/स्टॉक ट्रेडर) के निधन से पहले के अंतिम शब्द, ‘मैं व्यापार जगत में सफलता के शिखर पर पहुंच चुका हूं। मेरा जीवन दूसरों की नजर में एक उपलब्धि है जिसका मैं उपयोग करता हूं।’ इस समय अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए और अपनी पूरी जिंदगी को याद करते हुए मुझे एहसास होता होता है कि मुझे जो पहचान और पैसे पर गर्व था, वह मृत्यु से पहले झूठा और बेकार हो गया है। आप अपनी कार चलाने या पैसे कमाने के लिए किसी को किराए पर ले सकते हैं लेकिन आप किसी को पीडि़त होने और मरने के लिए किराए पर नहीं ले सकते। खोई हुई भौतिक वस्तुएं मिल सकती हैं लेकिन एक चीज है जो खो जाने पर कभी नहीं मिलती- और वह है ‘जीवन’।
हम जीवन के किसी भी चरण में हों, समय के साथ हमें उस दिन का सामना करना होगा जब दिल बंद हो जाएगा। अपने परिवार, जीवन साथी और दोस्तों से प्यार करें... उनके साथ अच्छा व्यवहार करें, उनके साथ धोखा न करें, बेईमानी या विश्वासघात कभी न करें।
जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं और समझदार बनते हैं, हमें धीरे-धीरे एहसास होता है कि 300, 3000 या 2.4 लाख की कीमत की घड़ी पहनने से सब कुछ एक ही समय को दर्शाता है। हमारे पास 100 का पर्स हो या 500 का- अंदर सब कुछ समान होता है। चाहे हम पांच लाख की कार चलाएं या 50 लाख की कार चलाएं, रास्ता और दूरी एक ही है और हम उसी मंजिल पर पहुंचते हैं। हम जिस घर में रहते हैं, चाहे वह 300 वर्ग फीट का हो या 3000 वर्ग फीट का अकेलापन हर जगह समान है। इसलिए मैं आशा करता हूं कि आपको एहसास होगा, आपके पास दोस्त भाई और बहनें हैं जिनके साथ आप बातें करते हैं, हंसते हैं, गाते हैं, सुख-दुख की बातें करते हैं -यही सच्ची खुशी है।
जीवन क्या है? जीवन को बेहतर समझने के लिए तीन स्थान हैं ः
अस्पताल
जेल
श्मशान
अस्पताल में आप समझेंगे कि स्वास्थ्य से अच्छा कुछ नहीं है। जेल में आप देखेंगे कि आजादी कितनी अमूल्य है। और श्मशान में आपको अहसास होगा कि जीवन कुछ भी नहीं।
आज हम जिस जमीन पर चल रहे हैं, कल वह हमारी नहीं होगी। भावार्थ इतना सा है प्रियजनो- ‘उनकी राख से अटी पड़ी हैं श्मशान की दीवारें जो कहा करते थे दुनिया तो चलती ही हम से है।’ जीवन जितना भी बचा है, उसे जी लो ठाठ से, बस एक मुट्ठी भर रह जाओगे जब पहुंचोगे घाट पे।’
इसी संदर्भ में चलते-चलते विजयपत िसंघानिया को भी याद कर लें। कभी अम्बानी से भी अधिक समृद्ध थे। कभी अपने प्राइवेट ‘डी विमान में उड़ा करते थे। मुम्बई के पॉश इलाके में अपने विशाल भव्य बंगले में रहते थे। एक अंग्रेजी अखबार ‘इंडिपेंडेंट’ भी चलाते थे। उनकी विमान-उड़ान क्षमता के आधार पर उन्हें भारतीय वायुसेना में ‘एयर कोमोडोर’ के मानस रैंक से भी नवाज़ा गया था। भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था। अब वही शख्स एक किराए के घर में रहता है। न अपना आवास है न ही कोई निजी कार। क्या हुआ, यह एक लम्बी दास्तान है। इसका जि़क्र फिर कभी फिलहाल इतना ही कि यही शख्स ‘रेमण्ड’ सरीखे ‘ब्रांड’ का मालिक भी था।