संपादकीय

पाकिस्तान में अवाम की आवाज

Aditya Chopra

पड़ोसी देश पाकिस्तान में चुनाव के बाद जो तस्वीर उभरी है उसमें जेल में बन्द पूर्व प्रधानमन्त्री इमरान खान की पार्टी पर प्रतिबन्ध लगाये जाने के बावजूद उनके समर्थित निर्दलीय या आजाद उम्मीदवारों की शानदार जीत हुई है। यह इस बात का सबूत है कि पाकिस्तान के आधे-अधूरे लोकतन्त्र में आम आदमी या अवाम अपने हकों को लेने के लिये बेताब है और वह लोकतन्त्र विरोधी ताकतों को करारा सबक सिखाना चाहती है। विगत 8 फरवरी को हुए मतदान में पाकिस्तान के चुनाव आयोग की जो भूमिका इमरान खान की पार्टी 'तहरीक-ए-इंसाफ' को लेकर रही और देश की न्यायपालिका की जो भूमिका इमरान खान को लेकर रही उसकी आलोचना दुनिया की लोकतान्त्रिक ताकतें कर रही हैं परन्तु पाकिस्तान की अवाम ने पूरी अमन पसन्दी के साथ जिस तरह मतदान किया उससे यही साबित होता है कि यह मुल्क फौज की पर्दे के पीछे से की जाने वाली हुक्मरानी के खिलाफ है। मगर जब से पाकिस्तान तामीर हुआ है तभी से जम्हूरियत यहां 'गूलर का फूल' बनी हुई है और खुदा ही जानता है कि कब फौज की टेढ़ी निगाह होते ही सारी लोकतान्त्रिक संस्थाएं बेअख्तियार होकर फौज के आगे घुटने टेक दें।
मगर जहां तक अवाम का सवाल है तो उसने इन चुनावों में इमरान खान की पार्टी के हिमायत याफ्ता प्रत्याशियों को सबसे ज्यादा समर्थन देकर यही सिद्ध करने की कोशिश की है कि वह लोकतान्त्रिक निजाम में रहना पसन्द करती है। मगर यह अवाम की बदकिस्मती है कि पिछले 75 सालों में उसे अभी तक कोई एेसा रहनुमा नहीं मिल पाया जो इस मुल्क को सुख और समृद्धि की तरफ ले जा सके। हाल में हुए चुनावों में राष्ट्रीय एसेम्बली की 265 सीटों पर वोट पड़े थे जिनमें से 100 से अधिक सीटों पर आजाद उम्मीदवार जीते हैं और नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग के 74 व बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के 54 व मुत्तैहदा कौमी पार्टी के 17 तथा शेष अन्य छोटी पार्टियों के विजयी रहे हैं। जाहिर है कि सर्वाधिक संख्या में आजाद उम्मीदवार जीते हैं मगर इनकी कोई पार्टी नहीं है। इसके बाद मियां नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग पार्टी है। नवाज शरीफ खुद को सबसे बड़ी पार्टी का नेता बता रहे हैं और सरकार बनाने के लिए पीपुल्स पार्टी के अलावा अन्य छोटी पार्टियों के नेताओं से भी राब्ता कायम कर रहे हैं।
पाकिस्तान में चुनावों से पहले ही कहा जा रहा था कि अगले प्रधानमन्त्री मियां नवाज शरीफ ही होंगे क्योंकि इससे पहले वह लन्दन में निर्वासित जीवन बिता रहे थे। मगर उन्हें लन्दन से इस्लामाबाद लाने के लिए जिस तरह उन पर चल रहे सारे मुकदमें खत्म किये गये और उनकी सजाएं माफ की गईं उससे यही सन्देश जा रहा था कि पाकिस्तान में लोकतन्त्र का स्वांग भर कर उन्हें मुल्क की जनता पर मसल्लत कर दिया जायेगा, चाहे चुनावों में जनादेश कुछ भी आये। सच पूछा जाये तो पाकिस्तान की अवाम ने इन चुनावों में हर 'जौर-जुल्म' के खिलाफ अपनी राय दी है और दुनिया को यह पैगाम देने की कोशिश की है कि वह भी अन्य लोकतान्त्रिक देशों की तरह अपने मुल्क का निजाम चलते देखना चाहती है। बेशक इमरान खान भी कोई दूरदर्शी नेता नहीं है और वह भी अपनी हुकूमत के दौरान आम पाकिस्तानी को मजहबी तास्सुब में ही डुबाये रखने की तजवीजें भिड़ाता रहा मगर इस सबके बावजूद अगर मुल्क की अवाम उसके साथ है तो उसका एहतराम होना चाहिए वरना पाकिस्तान को खुद को इस्लामी लोकतन्त्र कह देना छोड़ देना चाहिए। चुनावों में पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग ने एक-दूसरे के खिलाफ जमकर चुनाव लड़ा और एक-दूसरे की नीतियों की जमकर धज्जियां उड़ाईं। पीपुल्स पार्टी का रुख समाजवाद की तरफ है और उसका एजेंडा सरकारीकरण व गरीब-गुरबों की हिमायतपरस्ती माना जाता है। जबकि मियां नवाज शरीफ की पार्टी की नीतियां बाजारवाद और निजीकरण की तरफ झुकी हुई हैं। यदि ये दोनों पार्टियां मिल कर सरकार बनाती हैं तो एेसी सरकार कभी भी पायेदार या स्थिर सरकार नहीं हो सकती।
पीपुल्स पार्टी के टिकट से सिन्ध सूबे से एक हिन्दू उम्मीदवार महेश कुमार भी राष्ट्रीय एसेम्बली में पहुंचा है और वह मुस्लिम बहुल इलाके से जीता है। दोनो पार्टियों के नजरिये और सिद्धान्तों में जमीन आसमान का अन्तर है। यदि ये दोनों पार्टियां सिर्फ हुकूमत बनाने के लिए एक साथ आती हैं तो इसे बेमेल गठबन्धन ही कहा जायेगा। मगर इमरान खान की पार्टी द्वारा समर्थित उम्मीदवारों को पंजाब और खैबर पख्तूनवा सूबों की विधानसभाओं में भी शानदार सफलता मिली है। पंजाब मियां नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग पार्टी का गढ़ समझा जाता है परन्तु इसके 296 सदस्यीय सदन में मुस्लिम लीग को अभी तक 135 व आजाद उम्मीदवारों को 134 सीटें मिल चुकी हैं। पाकिस्तान के दो अन्य राज्यों सिन्ध व बलूचिस्तान में पीपुल्स पार्टी का दबदबा उभर कर आया है। सिन्ध की विधानसभा में तो यह दो-तिहाई बहुमत के करीब है और बलूचिस्तान में सबसे बड़ी पार्टी है। चुनाव नतीजों में देरी को लेकर भी चुनाव आयोग की जमकर आलोचना हो रही है क्योंकि यह नतीजे देर से घोषित कर रहा है। खासकर कराची शहर की 22 सीटों के नतीजों को लेकर शक की अंगुली उठाई जा रही है जहां से मुत्तैहदा कौमी पार्टी की 16 सीटें आई हैं। एेसा शक जाहिर किया जा रहा है कि इन सीटों के नतीजे नवाज शरीफ की सहूलियत के लिए देर से बताये गये हैं जिससे मिलीजुली सरकार की सूरत में उन्हें बहुमत की कमी न आये। चुनावों का छिटपुट घटनाओं को छोड़ कर पूरे अमन तरीके से होना पाकिस्तान के लिए एक उपलब्धि माना जा रहा है। पाकिस्तान में यदि लोकतन्त्र मजबूत होता है तो यह भारतीय उप महाद्वीप के हित में होगा मगर एेसा तभी होगा जब यहां की फौज अपने तानाशही मंसूबों को दरकिनार कर दे और सभी लोकतान्त्रिक संस्थाओं को कानून के मुताबिक काम करने की छूट दे। अवाम ने यह तो बता ही दिया है कि वह जुल्म के आगे झुकने को तैयार नहीं है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com