संपादकीय

दलितों में कैसी क्रीमी लेयर ?

Aditya Chopra

अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण में 'क्रीमी लेयर' के सवाल पर पूरे देश में जो जन आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है उसके राजनैतिक परिणाम बहुत गंभीर हो सकते हैं। बेशक यह आन्दोलन अभी उत्तर-पश्चिम भारत में ही उग्र दिख रहा हों क्योंकि विगत 21 अगस्त को इस मुद्दे पर जो भारत बन्द रखा गया उसका असर ज्यादातर इसी क्षेत्र में दिखाई पड़ा मगर इसकी ज्वाला दक्षिण भारत को भी कब अपनी जद में ले लेगी इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। जातिगत मामलों में दक्षिण भारत भी बहुत संजीदा माना जाता है क्योंकि पूरे देश में सामाजिक न्याय की आवाज सबसे पहले इसी क्षेत्र से गूंजी थी।
जहां तक अनुसूचित जाति व जनजाति वर्गों में क्रीमी लेयर ढूंढने का सवाल है तो यह सवाल ही खुद में बेमानी है क्योंकि इन वर्गों को आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक आधार पर दिया गया है जिसकी जड़ें स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में 1932 के 'पूना पैक्ट' से जाकर जुड़ती हैं जो कि महात्मा गांधी व डा. भीमराव अम्बेडकर के बीच हुआ था। यह पूना समझौता तब हुआ था जब बाबा साहेब अम्बेडकर इस बात पर राजी हो गये थे कि अनुसूचित जातियां हिन्दू समाज में फैली वर्ण व्यवस्था जैसी बीमारी की ही उपज हैं जिन्हें शूद्र कहा जाता है और हिन्दू समाज इन्हें अस्पृश्य समझ कर हजारों वर्षों से इनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार करता आ रहा है। अतः उनका मानना था कि अनुसूचित या दलित वर्ग हिन्दू समाज का अंग नहीं है अतः इसके लिए पृथक चुनाव मंडल (इलैक्ट्रोरल कालेज) वैसे ही होना चाहिए जैसा कि उस समय मुसलमानों व सिखों के लिए अंग्रेजों ने किया हुआ था। मगर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस अवधारणा के खिलाफ थे और दलितों को हिन्दू समाज का ही अभिन्न अंग मानते थे मगर यह स्वीकार करते थे कि समाज में इनके साथ सदियों से घनघोर अन्याय होता रहा है। इसके साथ ही गांधी जी ने शूद्रों के साथ भेदभाव खत्म करने के लिए 1931 से ही आन्दोलन छेड़ रखा था जिसे अस्पृश्यता निवारण अभियान कहा गया।
गांधी जी ने अनुसूचित या दलित जातियों के लोगों को हरिजन नाम दिया और इन्हें अन्य हिन्दू वर्णों के लोगों के समान ही माना और बराबर का दर्जा दिये जाने का जन आन्दोलन छेड़ा। 1932 में दलितों व हिन्दू समाज के मुद्दे पर गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गये। तब जाकर डा. अम्बेडकर उनसे सहमत हुए। गांधी जी ने अपना अनशन तोड़ते हुए डा. अम्बेडकर को वचन दिया कि स्वतन्त्र भारत में हरिजनों को संवैधानिक आधार पर आरक्षण दिया जायेगा मगर उन्हें हिन्दू समाज का अंग स्वीकार न करना भारी गलती होगी। इसे ही पूना पैक्ट कहा जाता है। बाद में जब देश आजाद हुआ तो संविधान निर्माता डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा की आम सहमति से आजाद भारत में अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया और अनुसूचित जातियों व जनजातियों को उनकी जनसंख्या के अनुसार राजनीति (लोकसभा व विधानसभाओं) से लेकर नौकरियों में आरक्षण दिया। इस आरक्षण का आधार आर्थिक कहीं से भी नहीं था और विशुद्ध रूप से सामाजिक था। अतः आजादी के 76 साल बाद इसमें आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर को ढूंढना उस एेतिहासिक सच को झुठलाना है जो कि आज भी भारतीय समाज की सच्चाई बनी हुई है क्योंकि आज भी दलितों के साथ हिन्दुओं की कथित ऊंची जातियों के लोग निकृष्ठतम व्यवहार तक करने से नहीं चूकते। 21वीं सदी के भारत में आज भी किसी दलित दूल्हे को अपनी बारात घोड़ी पर चढ़कर ले जाने पर दंगा-फसाद हो जाता है और ठाकुरों जैसी मूंछें रखने पर कत्ल तक हो जाता है। यह समस्या किसी भी दृष्टिकोण से आर्थिक है ही नहीं जो क्रीमी लेयर की बात हो रही है। आये दिन हम दलित कन्याओं के साथ बलात्कार की घटनाओं के समाचार पढ़ते रहते हैं। मगर यह मामला केवल दलितों तक सीमित नहीं है। इनके साथ पिछड़े वर्ग के लोग भी बावस्ता हैं क्योंकि हिन्दू वर्ण व्यवस्था ने उन्हें सदियों से शिक्षा से वंचित रखा है और सवर्ण समाज ने उन्हें भी शूद्रों के बराबर ही माना है। अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों में यदि उपजातिगत आधार पर वर्गीकरण करके कुछ जातियों को आरक्षण का लाभार्थी बताया जा रहा है तो सामाजिक दृष्टि से वह भी अन्याय है क्योंकि किसी दलित के करोड़पति बन जाने के बावजूद हिन्दू समाज के अन्य वर्णों के लोग उसके साथ भेदभाव करना नहीं भूलते हैं। सवाल समाज में समरसता का बिल्कुल नहीं है बल्कि बराबरी का है क्योंकि भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को यही अधिकार देता है।
भारत के पिछले पांच हजार साल के इतिहास में संविधान पहली पुस्तक है जो आदमी-आदमी के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करती है। इसीलिए भारतीय संविधान का सिद्धान्त मानवतावाद कहा जाता है। यह नागरिकों में उनके धर्म या क्षेत्र अथवा लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता और कहता है कि भारत की भौगोलिक धरती के जिस भाग में भी जिस किसी भी धर्म या संस्कृति का कोई व्यक्ति रहता है वह भारत का सम्मानित नागरिक है और उसके अधिकार एक समान हैं। बेशक क्षेत्रगत विशिष्ट परिस्थितियों व सांस्कृतिक संरक्षणार्थ कुछ इलाके को लोगों के लिए विशेष रियायतें भी अनुच्छेद 371 में संविधान देता है मगर नागरिकता के आधार पर किसी से किसी प्रकार का पक्षपात नहीं करता है। सवाल यह है कि अनुसूचित वर्ग के लोगों में क्रीमी लेयर ढूंढने का आधार केवल आर्थिक ही हो सकता है जबकि आरक्षण सामाजिक आधार पर देने की संविधान में व्यवस्था की गई है। भारत की 21वीं सदी की वर्तमान पीढ़ी इतनी बेसब्र नहीं हो सकती कि वह हजारों साल से किये जा रहे अन्याय के चन्द दशकों में ही समाप्त होने की अपेक्षा करने लगे क्योंकि दलितों के साथ वर्तमान में सामाजिक अन्याय होते वह अपनी आंखों से देख रही है। जो लोग मानते हैं कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए वे भारत की जातिगत व्यवस्था को पुख्ता ही रखना चाहते हैं क्योंकि सामाजिक अन्याय को मिटाये ​िबना आर्थिक अन्याय को नहीं मिटाया जा सकता।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com