संपादकीय

दवाएं खुद बीमार हों तो मरीजों का क्या होगा?

Shera Rajput

दवाएं बीमारी के वक्त शरीर को स्वस्थ बनाने के साथ गंभीर स्थिति में जीवन रक्षक होती हैं। स्वास्थ्य के लिए वरदान समझी जाने वाली यही दवाएं यदि मुनाफाखोरी का जरिया बन जाएं तो सेहत की दुश्मन बन जाती हैं। सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन यानी सीडीएससीओ की ताजा मासिक रिपोर्ट में जिन गुणवत्ता रहित दवाओं का उल्लेख किया है उनमें कई दवाओं की क्वालिटी खराब है तो वहीं दूसरी ओर बहुत सी दवाएं नकली भी बिक रही हैं। जिन्हें बड़ी कंपनियों के नाम से बेचा जा रहा है। इससे उन मरीजों की सुरक्षा संबंधी चिंताएं बढ़ जाएंगी जो इन दवाओं का इस्तेमाल कर रहे थे।
लोगों द्वारा आमतौर पर ली जाने वाली पेरासिटामोल भी जांच में फेल पायी गई। आम धारणा रही है कि गाहे-बगाहे होने वाले बुखार-दर्द आदि में इस दवा का लेना फायदेमंद होता है। निश्चय ही केंद्रीय औषधि नियामक की गुणवत्ता रहित दवाओं की सूची में इसके शामिल होने से लोगों के इस विश्वास को ठेस पहुंचेगी। इस सूची में पेरासिटामोल के अलावा हाइपरटेंशन, डायबिटीज, कैल्शियम सप्लीमेंट्स, विटामिन-डी3 सप्लीमेंट्स, विटामिन बी कॉम्प्लेक्स, विटामिन-सी, एंटी-एसिड, एंटी फंगल, सांस की बीमारी रोकने वाली दवाएं भी शामिल हैं। इसमें दौरे व एंग्जाइटी का उपचार करने वाली दवाएं भी शामिल हैं। ये दवाएं बड़ी कंपनियों द्वारा भी उत्पादित हैं।
बताते हैं कि फेल होने वाली दवाओं में पेट में इंफेक्शन रोकने वाली एक चर्चित दवा भी शामिल है। यद्यपि सीडीएससीओ ने 53 दवाओं की गुणवत्ता की जांच की थी लेकिन 48 दवाओं की सूची ही अंतिम रूप से जारी की गई। वजह यह बताई जा रही है कि सूची में शामिल पांच दवाइयां बनाने वाली कंपनियों के दावे के मुताबिक ये दवाइयां उनकी कंपनी की नहीं हैं वरन् बाजार में उनके उत्पाद के नाम से नकली दवाइयां बेची जा रही हैं।
इसी साल अगस्त में केंद्र सरकार ने 156 फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन यानी एफडीसी दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था। दरअसल, ये दवाइयां आमतौर पर सर्दी व बुखार, दर्द निवारक, मल्टी विटामिन और एंटीबायोटिक के रूप में इस्तेमाल की जा रही थी। मरीजों के लिये नुक्सानदायक होने की आशंका में इन दवाइयों के उत्पादन, वितरण व उपयोग पर रोक लगा दी गई थी। सरकार ने यह फैसला दवा टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड की सिफारिश पर लिया था। जिसका मानना था कि इन दवाओं में शामिल अवयवों की चिकित्सकीय गुणवत्ता संदिग्ध है।
दरअसल, एक ही गोली को कई दवाओं से मिलाकर बनाने को फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन ड्रग्स यानी एफडीसी कहा जाता है। बहरहाल, सामान्य रोगों में उपयोग की जाने वाली तथा जीवन रक्षक दवाओं की गुणवत्ता में कमी का पाया जाना मरीजों के जीवन से खिलवाड़ ही है। जिसके लिये नियामक विभागों की जवाबदेही तय करके घटिया दवा बेचने वाले दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए।
बीते मार्च में दिल्ली पुलिस ने नकली दवाओं के एक बड़े गिरोह को पकड़ा। पुलिस ने आरोपियों के पास से कैंसर की अलग-अलग ब्रांड की नकली दवाएं बरामद कीं। इनमें सात दवाएं विदेशी और दो भारतीय ब्रांड की थी। आरोपी कीमोथैरेपी के इंजेक्शन में पचास से सौ रुपये की एंटी फंगल दवा भरकर एक से सवा लाख रुपये में बेच रहे थे। इससे कुछ दिन पहले ही तेलंगाना में औषधि नियंत्रक प्रशासन ने चाक पाउडर से भरी डमी गोलियां बरामद की थी। इसी तरह गाजियाबाद में नकली दवा बनाने वाली एक फैक्ट्री पकड़ी गई थी। देश के अलग-अलग हिस्से से आए दिन गुणवत्ताविहीन और मिलावटी दवाओं के कारोबार से जुड़े मामले प्रकाश में आते रहते हैं।
दवा निर्माण एक चरणबद्ध प्रक्रिया है। ये नैदानिक परीक्षण के बाद उपभोक्ताओं तक पहुंचती हैं। दवा कंपनियों में प्रयोगशालाएं होती हैं, जहां प्रत्येक चरण का आकलन कर दवा को अंतिम रूप दिया जाता है। भारतीय भेषज संहिता (आईपीसी) और भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अन्य फार्मूले से दवाओं का निर्माण, परीक्षण और संधारण होता है। हर दवा निर्माता कंपनी के लिए तय प्रोटोकॉल का पालन अनिवार्य है।
देश में नकली और मिलावटी दवाओं पर रोक लगाने के लिए औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 में दंड और जुर्माने का प्रावधान है। इसके अंतर्गत नकली दवाओं से रोगी की मौत या गंभीर चोट पर आजीवन कारावास की सजा है। मिलावटी या बिना लाइसेंस दवा बनाने पर पांच साल की सजा का प्रावधान है। इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों और चिकित्सा उपकरणों का राष्ट्रीय नियामक है। कई बार तो पर्चे पर लिखी दवा का नाम उच्च शिक्षित व्यक्ति भी नहीं पढ़ पाता। इसके लिए नियामकों द्वारा समय-समय पर चिकित्सकों को दवाओं के नाम स्पष्ट अक्षरों में लिखने के निर्देश दिए गए हैं।
पिछले साल दवाओं में क्यूआर कोड लगाए जाने की पहल शुरू हुई है। यह सभी दवाओं में अनिवार्य किया जाना चाहिए। इससे दवाओं की कालाबाजारी थमेगी। दवाओं की गुणवत्ता तय करने में फार्माकोविजिलेंस कार्यक्रम काफी मददगार साबित हो सकता है। इसमें दवाओं के प्रतिकूल प्रभावों का अध्ययन कर उन्हें गुणवत्तापूर्ण बनाया जाता है। घटिया दवाओं से जुड़े मामलों की जितनी अधिक शिकायतें होंगी, कानूनी शिकंजा उतना ही सख्त होगा। दवा उद्योग में संदिग्ध गतिविधियों को रोकने के लिए केंद्र सरकार शिकायत प्रणाली को मजबूत कर रही है।
इस साल मार्च में दवा कंपनियों के लिए यूनिफॉर्म कोड फार फार्मास्यूटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिस (यूसीएमपी), 2024 लागू किया गया है। इसके तहत अब दवा कंपनियों को अपनी वेबसाइट पर शिकायत करने की व्यवस्था देनी होगी। कंपनियां चिकित्सकों को प्रचार के नाम पर उपहार नहीं दे सकेंगी। आयोजन में विशेषज्ञ के तौर पर आमंत्रित किए जाने वाले चिकित्सकों को ही आने-जाने एवं ठहरने की सुविधा दी जा सकती है। ऐसे आयोजनों के खर्च का ब्याैरा भी यूसीएमपी के पोर्टल पर साझा करना होगा।
एक अनुमान के मुताबिक जल्द ही भारतीय दवा बाजार 60.9 अरब डॉलर के स्तर को पार कर जाएगा। ऐसे में अपने मुनाफे के लिए लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने वालों पर समय रहते सख्त कार्रवाई करनी होगी। नकली दवाओं को बनाना-बेचना भ्रष्टाचार ही नहीं मानवीय सेहत के लिए एक बड़ा खतरा भी है। ऐसे में नियामकीय व्यवस्था को मजबूत बनाकर ही नकली और मिलावटी दवाओं से निजात मिलेगी। दुर्भाग्यपूर्ण है कि मानवीय मूल्यों में इस हद तक गिरावट आई है कि लोग अपने मुनाफे के लिये दुखी मरीजों के जीवन से खिलवाड़ करने से भी नहीं चूक रहे हैं।

– रोहित माहेश्वरी