संपादकीय

कहां पहुंच गये हैं हम !

Aditya Chopra

आजादी के 75 वर्ष बाद भी अगर हम भारत के लोग अपने समाज की संरचना में हिन्दू-मुसलमान के भेदभाव का भाव आर्थिक धरातल पर डाल रहे हैं तो एेसी तरक्की का खुदा मालिक! आजाद भारत को मजबूत बनाने में हिन्दू और मुसलमान दोनों का ही बराबर का योगदान है। इस देश की यह परंपरा रही है कि हिन्दू त्यौहारों का इन्तजार हिन्दुओं से ज्यादा मुसलमानों को रहता है। इसका कारण यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मुसलमान भाइयों की भागीदारी 70 प्रतिशत से ज्यादा रहती है। हिन्दुओं के सामाजिक व धार्मिक कार्य तक मुसलमान कारीगरों की भागीदारी के बिना सम्पन्न नहीं होते हैं। मन्दिरों के भवन निर्माण अधिकतर मुस्लिम कारीगर ही करते हैं। एक जमाना था जब भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का फलसफा दिया करती थी। भारत के मुसलमान हिन्दुओं स्त्रियों के सुहाग के सामान से लेकर पूजा में प्रयोग की जाने वाली सामग्री तक का उत्पादन करते हैं। जिन बांके बिहारी जी को पूजने हिन्दू वृन्दावन जाते हैं उसी शहर में गोपालजी या ठाकुर जी की पोशाक बनाने का काम मुसलमान कारीगर करते हैं। मुसलमानों के बगीचों से ही भगवान श्रीराम की पूजा-अर्चना के लिए पुष्प आदि जाते हैं।
हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यही है। मगर मुजफ्फरनगर पुलिस ने जो ताजा फरमान जारी किया है वह न केवल संविधान विरोधी है बल्कि समाज को तोड़ने वाला है। पुलिस ने कहा है कि इस जिले में कांवड़ियों के यात्रा मार्ग पर जितनी भी खाने-पीने की दुकानें, ढाबे व फल आदि के ठेले पड़ते हैं सभी पर उसके मालिक का नाम लिखा होना चाहिए। यह आदेश ही स्वयं में पुलिस को मुल्जिम बनाता है क्योंकि उसके आदेश से ठेले वालों तक की पहचान हिन्दू-मुसलमान में होती है जबकि सदियों से भारत के मुसलमान फल-सब्जियों के कारोबार में संलिप्त हैं। क्या व्यवसाय का भी कोई धर्म होता है ? एेसे आदेश का संज्ञान न्यायपालिका को स्वतः लेना चाहिए क्योंकि यह समाज के विशिष्ट तबके को उसकी रोजी-रोटी से महरूम करने की मंशा से भरा हुआ है। जाहिर है कि कांवड़िये हिन्दू ही होते हैं जो हरिद्वार से सावन के महीने में कांवड़ भर कर लाते हैं और अपने शहरों व कस्बों में पहुंच कर शंकर जी को जल चढ़ाते हैं। मुजफ्फरनगर उसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुख्य अंचल है जहां मुसलमान कारीगर मेलों-ठेलो में अपनी प्रशाद की दुकाने सजाते हैं। किसी देवता या भगवान के सम्मान में लगने वाले इन मेलों में जो प्रशाद चढ़ाया जाता है वह बताशों का होता है जिन्हें मुस्लिम कारीगर ही बनाते हैं।
भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यही है। आजकल आमों की बहार चल रही है और पूरे प्रदेश में बागों के ठेके प्रायः मुस्लिम काश्तकार ही लेते हैं। क्या उनके मुसलमान होने से आम की कोई जाति या धर्म हो जाता है? अमृत फल आम की सैकड़ों किस्मों के ये काश्तकार पक्के जानकार होते हैं। उनका यह फन उनकी खानदानी विरासत के तौर पर अगली पीढि़यों तक जाता है। परंपरा तो यह भी है कि कांवड़ यात्रियों के मार्ग में सेवार्थ लगाये जाने वाले जल-पान स्थलों तक के प्रबन्धन में मुस्लिम नागरिकों की भागीदारी होती है। यही भागीदारी सब नागरिकों को भारतीय बनाती है। क्या आप सोच सकते हैं हिन्दुओं के बड़े से त्यौहार बिना मुस्लिम कारीगरों की शिरकत के मनाए जा सकते हैं। दशहरे पर ऊंचे-ऊंचे रावण के पुतले जलाने वाले हिन्दू जब जय श्रीराम का उद्घोष करते हैं तो क्या वे भूल सकते हैं रावण का पुतला बनाने वाला कोई मुस्लिम कारीगर ही होता है। इसी प्रकार दीपावली पर बच्चों के खेल खिलौने से लेकर आतिशबाजी के सामान का कारोबार मुस्लिम फनकार और दुकानदार ही बेचते हैं।
हिन्दुओं का जब कोई बड़ा त्यौहार आता है तो मुस्लिमजनों के चेहरे पर भी रौनक आ जाती है क्योंकि इन त्यौहारों में उनकी फनकारी की मांग कई गुना बढ़ जाती है। हिन्दू दूल्हे की बारात में सबसे आगे बैंडबाजा बजाते हुए जो लोग चलते हैं उनमें से 90 प्रतिशत मुस्लिम फनकार ही होते हैं। दूल्हे जिस घोड़ी पर चढ़ते हैं उसकी रास किसी मुस्लिम 'सईस' के हाथ में ही होती है। दरअसल भारत में हर हिन्दू में एक मुसलमान रहता है और हर मुसलमान में एक हिन्दू रहता है। यह एेसा अन्तर्सम्बन्ध है जिसे कोई भी पुलिसिया फरमान नहीं तोड़ सकता। परन्तु कांवड़ियों को लेकर जिस तरह राजनीति हो रही है वह पूरी तरह अनुचित है। पुलिस का काम संविधान के अनुसार अपना दायित्व निभाना है और संविधान कहता है कि कानून के सामने हर हिन्दू-मुसलमान बराबर है और उसे अपना व्यवसाय चुनने की पूरी आजादी है।
संविधान किसी भी धर्म के प्रत्येक नागरिक को जीवन जीने का अधिकार देता है। जीवन जीने के लिए रोजगार की जरूरत होती है और फल-सब्जी के कारोबार में मुस्लिम भाइयों को महारथ हासिल है। उनकी रोजी पर लात मारकर कैसे हम भारत के सम्पन्न होने की कल्पना कर सकते हैं। इसलिए भाजपा के ही नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने मुजफ्फरनगर पुलिस के इस फरमान का कड़ा विरोध किया है। दुःख की बात यह है कि मुजफ्फरनगर का फरमान पूरे राज्य में लागू कर ​िदया गया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी इसी राह पर चल पड़े हैं। यह फरमान अपने आप में भारत विरोधी है। सवाल यह है कि ठेलों के बाहर नाम लिखा ही क्यों जाये क्या इससे फलों की गुणवत्ता बदल जायेगी ? सवाल यह है कि राजनीति ने हम लोगों को कहां पहुंचा दिया है। क्या भारत केवल हिन्दू-मुसलमान का नाम है। हमने तो शपथ ली थी कि हम संविधान के साये में नया वैज्ञानिक सोच वाला हिन्दोस्तान बनायेंगे।